यह लेख भावी तस्वीर के बारे में कुछ अनुमानों से शुरू होगा। पहला, निकट भविष्य में जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ किसी कारगर समझौते की संभावना नहीं है और यह मुद्दा यथास्थिति के साथ चलता रहेगा। पाकिस्तान भारत के सामने चारा डालने और हमारी सहनशीलता की सीमा के बारे में अपनी धारणा के मुताबिक काम करने की योजना बनाता रहेगा और उसे अंजाम भी देता रहेगा। दूसरा, भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान नीतिगत कुशलता के उच्च स्तरों पर काम करता रहेगा, सुरक्षा के माहौल में उसका प्रभुत्व रहेगा और आतंकवादियों को खत्म करने का काम जारी रखेगा। लेकिन आतंकवादियों के खात्मे के अच्छे अनुपात के जरिये दबदबा हासिल करने के अलावा इससे संघर्ष की तस्वीर को संघर्ष में स्थिरता के आखिरी चरण से आगे बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिलेगी और पिछले कुछ समय से संघर्ष उसी जगह अटका हुआ है। तीसरा, सुरक्षा प्रष्ठिान, राजनीतिक समुदाय, खुफिया एजेंसियों, वरिष्ठ वर्ग तथा जानकारी रखने वाले विभिन्न शिक्षाविदों तथा राजनयिकों को अच्छी तरह पता है कि क्या किया जाना है, लेकिन यह नहीं पता है कि उसे कैसे किया जाना है।
उपरोक्त धारणाएं जम्मू-कश्मीर के बारे में कोई भी रणनीति तय करने में उपयोगी हैं। फिर भी मौजूदा वातावरण पर स्पष्टता होनी चाहिए, जिसके आधार पर कुछ जाने-अनजाने तथ्य सामने आते हैं। 20 वर्ष पहले क्षेत्र में 5000 तक आतंकवादी थे, लेकिन अब घटकर बमुश्किल 300-350 ही बचे हैं, जिनमें अधिकतर स्थानीय हैं और दक्षिण कश्मीर में जमा हैं। पीर पंजाल के दक्षिणी इलाकों में राज्य के निवासी नहीं के बराबर हैं। कश्मीर में 2018 में 248 आतंकियों का खात्मा किया गया है (और 180 की भर्ती की खबरें हैं), लेकिन बचे हुए आतंकियों की संख्या नहीं बदली है। घुसपैठ और भर्ती के जरिये उनकी संख्या साल-दर-साल इतनी ही बनी रह सकती है।
हर साल घुसपैठ की 100 से 150 घटनाएं होती हैं और जब तक अतिरिक्त बल तैनात नहीं किया जाए और तकनीक बेहतर नहीं बनाई जाए तब तक सेना कुछ बेहतर करने का वायदा नहीं कर सकती और ऊपर बताए दोनों उपाय होने की संभावना बहुत कम है। 2001 और उससे पहले के वर्षों में हर साल घुसपैठ का आंकड़ा लगभग 2000 रहता था। उत्तर कश्मीर में अपेक्षाकृत स्थिरता है, लेकिन तैनात बलों में किसी भी तरह की कमी से दरारें दिखने लगेंगी और घुसपैठियों की समस्या गंभीर हो जाएगी। अलगाववाद और आतंकवाद की समस्या दक्षिण कश्मीर में चरम पर है। मारे गए आतंकवादियों की जगह लेने के लिए स्थानीय युवा मौजूद हैं; नए भर्ती किए गए आतंकी की औसत जिंदगी चार-पांच महीने से अधिक नहीं होती है। स्थानीय आतंकवादियों के जनाजे में आतंकी आकाओं को भर्ती का मौका मिल जाता है। अजब बात है कि आतंकियों की ही नहीं बल्कि जमीन पर काम करने वालों (ओवर ग्राउंड वर्कर्स) और पत्थरबाजों की भी हिम्मत लगातार बढ़ती जा रही है और अब वे सेना से भिड़ने में भी नहीं हिचकते। इसी कारण आतंक-विरोधी अभियानों में भीड़ दखल करने का प्रयास करती है, जिससे नागरिक मारे जाते हैं या घायल होते हैं और अलगाव तथा वैर की भावना और भी बढ़ जाती है। अलगाववादी नेतृत्व ज्यों का त्यों बना हआ है और उसे तोड़ने का कोइ प्रयास नहीं हो रहा है।
आतंकवादियों के खात्मे की रणनीति ही कारगर साबित हो रही है, लेकिन और आतंकवादी न बनें, इसकी रणनीति नहीं होने क कारण सैन्य अभियानों का कभी नहीं खत्म होने वाला चक्र ही बन रहा है। प्रशासन के मुद्दों को सरकार का प्रशासनिक दल संभाल रहा है मगर बदलाव लाने की ऊर्जा और क्षमता बहुत कम है क्योंकि जमीन पर काम करने वाले प्रशासक प्रशासन संबंधी निर्देशों का क्रियान्वयन पूरी तरह से कर ही नहीं पाते हैं। अशांति भरे आंतरिक छद्म युद्ध क्षेत्र में एक चीज गायब है ओर वह है लोगों तक पहुंचने, उनसे बात करने, पहले से बनी मानसिकता खत्म करने, बढ़ते चरमपंथ की चुनौतियों से पार पाने, अलग किस्म की धारणाएं तैयार करने में मदद करने और फिर से पहल आरंभ करने के लिए केंद्रित रणनीति की कमी।
वास्तविक राजनीतिक गतिविधि कई वर्षों से कश्मीर से गायब है और न तो राजनीतिक समुदाय और न ही प्रशासकों में जमीनी स्तर पर तक पहुंचने की इच्छाशक्ति तथा क्षमता है। यह काम केवल सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) कर रहे हैं, लेकिन वे राजनीतिक, वैचारिक और सामाजिक समस्याओं को नहीं सुलझा सकते। सेना के सैन्य नागरिक कार्यक्रम ‘ऑपरेशन सद्भावना’ ने जवानों को आम नागरिकों तक पहुंचने में काफी मदद की है। इसे उत्साह के साथ चलाया जा रहा है, लेकिन इसकी सीमाएं हैं। असल में ‘ऑपरेशन सद्भावना प्लस प्लस’ की जरूरत है, जिसकी जिम्मेदारी सेना ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार भी लें तथा प्रत्येक एजेंसी को इसमें शामिल किया जाए। यह काम एक साल में ही नहीं किया जा सकता। लेकिन 2019 में इसे आरंभ किया जा सकता है और दीर्घकालिक रणनीति तैयार की जाती है, जिसमें समय-समय पर समीक्षा की भी गुंजाइश हो।
जटिल रणनीतियां तैयार करने से कुछ हासिल नहीं होगा। अतीत में ऐसे प्रयोग हो चुके हैं, जिनसे लोगों में उम्मीद जगी, लेकिन उन्हें जारी नहीं रखा गया। ऐसी स्थिति तब आती है, जब अपनी-अपनी लड़ाई में जुटी हरेक संस्था और विभाग के पास सैद्धांतिक दिशानिर्देश नहीं होते हैं। अतीत से दो आसान उदाहरणों से इसे समझते हैं। पहला, केंद्रीय कारागार बुरे लोगों की मांद बना हुआ है, जिन पर बहुत कम नियंत्रण है; बंदियों को बाहरी लोगों से संपर्क करने की सुविधा मिल जाती है और वे अंदर बैठकर साजिश रच सकते हैं और आतंकी अभियानों की योजना भी बना सकते हैं। दुर्दांत पाकिस्तानी आतंकवादी नवीद जट्ट के भागने की साजिश ऐसे ही रची गई थी, जिसने बाद में पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या की और हाल ही में सेना के एक अभियान में मारा गया। अतीत में प्रशासन पत्थरबाजों को हिरासत में रखने की बुनियादी सुविधाएं भी तैयार नहीं कर पाया था, जिसके कारण उन्हें केंद्रीय कारागार में दुर्दांत आतंकवादियों के साथ रखना पड़ता था और कई मामलों में पत्थरबाज भी बाहर आकर आतंकवादी बन जाते थे।
रणनीतिक नजरिये से देखें तो पहला निर्देश तो यही होना चाहिए कि सुरक्षा अभियान लगातार चलते रहें ताकि आतंकवादियों की संख्या में वृद्धि नहीं होने दी जाए। सुरक्षा बलों को घुसपैठ से निपटने के लिए रात में देखने में सहूलियत देने वाले उपकरणों समेत सर्वश्रेष्ठ उपकरण प्रदान करने में किसी तरह की ढिलाई नहीं होनी चाहिए। सीआरपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस को भीड़ से पिटने के लिए बेहतरीन प्रशिक्षण मिले और पेलेट गन से अच्छे उपकरण उनके हाथ में होने चाहिए। उन्हें ऐसा प्रशिक्षण मिले, जो सामने दिखे, जिसकी मात्रा पता चल सके और जिसके लिए जवाबदेही तय की जा सके। विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) का छोटा सा जत्था तैनात नहीं किया जाए ताकि उनके हथियार आतंकवादियों के हाथों में नहीं आ पाएं। सुरक्षा के लिहाज से दक्षिणी पीर पंजाल जैसे अपेक्षाकृत शांत क्षेत्रों समेत कहीं भी सेना की तैनाती कम करने के प्रयास नहीं किया जाएं। हिंसा नहीं होने का अर्थ यह नहीं समझा जाए कि स्थिति सामान्य हो गई है; वहां पहले जितने बल ही तैनात रखे जाएं और उनका इस्तेमाल नीचे दिए गए अन्य उपायों के लिए किया जाए।
‘पहुंच’ शब्द को परिभाषित करने पर जोर दिया जाए और उसमें व्यक्तिगत धारणा की कोई जगह नहीं हो। पहुंच की परिभाषा में सेना की मौजूदगी वाले इलाकों में ही नहीं बल्कि हर जगह लोगों की गरिमा और आत्मसम्मान लौटाने के प्रयास शामिल किए जाएं। राजनीतिक समुदाय को लोगों के पास आने और उनसे बात करने के लिए मनाने के प्रयास होने चाहिए। ऑपरेशन सद्भावना की तर्ज पर लोगों को सामुदायिक केंद्रों पर छोटे-छोटे और बाद में बड़े समूहों में मिलने-जुलने में मदद करने का सेना और जम्मू-कश्मीर पुलिस का पहले का प्रयोग वास्तविक राजनीतिक गतिविधि बहाल करने में मदद करेगा।
आम शिकायत है कि कट्टरपंथी विचारधारा ने मस्जिदों पर कब्जा कर लिया है और कश्मीरी की धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु सूफी संस्कृति को बदल दिया है। उलेमा की मदद के बगैर उदारवादी विचारधारा बहाल करना संभव नहीं है। यह काम स्थानीय स्तर पर नहीं हो सकता। इसके लिए भारत के बाकी हिस्सों से प्रयास होने चाहिए। खुफिया एजेंसियों की मदद से कट्टरपंथी उलेमा का सफाया और उनकी जगह उदार उलेमाओं को बिठाना धीमा और लगातार चलने वाला अभियान हो सकता है, जिसके लिए उन मौलानाओं को साथ लिया जा सकता है, जो इसके इच्छुक हों।
युवाओं के पास पहुंचने के अलग मतलब होते हैं। कल्पनाशील कार्यक्रमों के जरिये उन्हें छोटे-छोटे गुटों में इकट्ठा करने की गतिवधियां तेज होनी चाहिए और इसमें बाकी भारत के जाने-माने युवाओं को हिस्सेदारी करनी चाहिए। उनके भीतर वास्तव में वैर भाव है, लेकिन अगर उन्हें शत्रुता भरे विचार भी जाहिर करने का मौका दिया जाए तो उनका रुख बदल सकता है। हमें याद रखना चाहिए कि अगर त्राल जैसी बदनाम तहसील ने दो सौ आतंकवादी दिए हैं तो उसने जेएके लाइट इन्फैंट्री और जेएके राइफल्स समेत भारतीय सेना की विभिन्न रेजिमेंटों को ढेर सारे देशभक्त जवान भी दिए हैं। खेलों का जमकर आयोजन हो रहा है और कई कश्मीरी युवा इसमें शानदार प्रदर्शन भी कर रहे हैं। इसका इस्तेमाल युवाओं में गौरव की भावना लाने के लिए किया जाना चाहिए।
सोशल मीडिया को सभी खराब मानते हैं, जिसका इस्तेमाल विभिन्न देश-विरोधी वर्ग दुष्प्रचार में करते हैं। इसका मुकाबला दिल्ली में बैठी संस्थाएं नहीं कर सकतीं क्योंकि उन्हें वास्तविकता का भान ही नहीं है और सेना, जम्मू-कश्मीर पुलिस या खुफिया एजेंसियों जैसे संगठन भी ऐसा नहीं कर सकते। यह पेशेवर काम है, जिसके लिए शोध, सामग्री लेखन और मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शन की जरूरत है। इसके लिए ठोस और संयुक्त प्रयास होना चाहिए बशर्ते संगठन अपनी-अपनी निजी पहचान छोड़ सकें। फिलहाल सूचना के योद्धाओं की जरूरत है, जो घंटों प्रयास कर सकें और काम में जुटे रह सकें। यह जिम्मा एकीकृत कमान उठा सकती है बशर्ते उसे अधिकार दिए जाएं। केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल एकीकृत कमान की बागडोर संभालनी चाहिए और युद्ध की चालों तथा विचार प्रक्रिया में इसका ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए। यह विवादास्पद बात लग सकती है, लेकिन सूचना के खेल में सेना का लंबा अनुभव उसे इस प्रयास में शीर्ष संगठन के तौर पर आदर्श बनाता है।
जम्मू-कश्मीर में पांच बड़े विश्वविद्यालय हैं। उनकी भूमिका को अभी तक तय नहीं किया गया है, लेकिन उसे अधिक स्पष्ट तरीके से परिभाषित किया जा सकता है। शिक्षा संबंधी प्रयासों के साथ ही उन्हें चर्चा करने के लिए और जागरूकता बढ़ाने के लिए लोगों को अलग-अलग उप-क्षेत्रों से साझा मंच पर लाना चाहिए। जम्मू डिविजन और श्रीनगर से शहरों को गोद लेने पर भी विचार किया जा सकता है। सांबा और अनंतनाग को उतना ही स्वीकार किया जाए, जितना उधमपुर और बारामुला को किया जाता है; विभिन्न शहरों के नागरिकों के बीच संवाद को बढ़ावा देने से भाईचारा तथा समझ बढ़ती है, जो संघर्ष वाले क्षेत्रों में विभाजनकारी माहौल को कम करने के लिए बहुत जरूरी है।
उपरोक्त सुझाव उस विचार सागर में बूंद के समान हैं, जो पूरे भारत के सैकड़ों निवासियों के दिमाग में दौड़ता है। हमें स्वयं से प्रश्न करने चाहिए कि हमारे कुछ लोकतांत्रिक तौर-तरीके कश्मीर के लोगों को मुख्यधारा में लाने की राह में रोड़ा तो नहीं बन रहे हैं। यह छिटपुट विचार नहीं है कि दिल्ली में मीडिया द्वारा कश्मीरियों को कोसने से एक बड़ा उद्देश्य तय करने में हमें मदद नहीं मिलेगी। यह उद्देश्य है 2019 को वह वर्ष बनाना, जिसमें जम्मू-कश्मीर की 30 वर्ष पुरानी समस्या पर पकड़ मजबूत हो सके।
(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)
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