नया वर्ष उम्मीदें लेकर आता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की पेचीदा दुनिया में उसके बाद के 365 दिन अनिश्चितता भरे हो सकते हैं। चुनौतियों और अवसरों का सैद्धांतिक एवं अनुभवजन्य निरीक्षण आगे आने वाली अस्पष्टताओं को सक्रिय तरीके से संभालने के लिए सही तरीका अपनाने में मदद करता है। इस लेख का केंद्रीय विषय यही है। 21वीं सदी के दूसरे दशक में जो उथलपुथल 2011 की अरब क्रांति से शुरू हुई थी, वह 2019 में चरम पर पहुंच सकती है बशर्ते प्रमुख देश खुद को इसके मुताबिक ढाल लें। उथलपुथल में जो हैरत या नयापन होता है, वह कम होने की संभावना है क्योंकि राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सक्रिय होकर खुद को अनुकूल बना रहे हैं।
ऐसा लगता है कि भारत ने भू-राजनीतिक और आर्थिक बदलावों से तालमेल बिठाने का काम बहुत जल्दी शुरू कर दिया था। 2018 में वुहान में चीन तथा सोची में रूस के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता तथा उसके बाद की घटनाओं से तो ऐसा ही संकेत मिलता है। लगातार तालमेल बिठाने का यही काम 2019 के सूचकों में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की खासियत रहेगी, जो जापान की संसद द्वारा तय कार्यक्रम से पांच वर्ष पहले ही ‘राष्ट्रीय रक्षा कार्यक्रम निर्देश’ (एनडीपीजी) और ‘मध्यावधि रक्षा कार्यक्रम’ मंजूर किए जाने से स्पष्ट है। यूरोपीय संघ स्वायत्त रक्षा क्षमताओं पर विचार कर रहा है, जिसके लिए अभी तक नाटो गठबंधन का सहारा था।
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इराक में तैनात जवानों से मिलते मुलाकात के वक्त कहा था, “अमेरिका पूरी दुनिया की पुलिस बना नहीं रह सकता है।” इससे पता चलता है कि अमेरिका अनिश्चितता से उपजी चुनौतियों से निपटने के लिए अपनी प्राथमिकताओं में नए सिरे संतुलन बिठाना चाहता है और 2019 में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण पर इस बात का गहरा प्रभाव रह सकता है। संधि में सहयोगियों और सामरिक साझेदारों के प्रति समर्थन कम करने की अमेरिका की रणनीति से भारतीय हित वाले क्षेत्रों - पश्चिम एशिया, दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम एशिया, हिंद-प्रशांत तथा उत्तर-पूर्व एशिया में रक्षा तथा सुरक्षा की योजनाओं एवं ढांचों में आमूल-चूल परिवर्तन दिखेगा। अमेरिका अगर दुनिया भर में सेना भेजना कम करेगा तो बड़ी अनिश्चितताएं पैदा हो जाएंगी। इससे अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र में सकारात्मक स्थिरता आती है या मौजूदा ढांचागत अस्थिरताएं बढ़ती हैं या अमेरिका द्वारा छोड़ी गई जगह भरने की महत्वाकांक्षा दूसरी शक्तियों में उत्पन्न हो जाती है, यह देखना होगा।
भारत के प्रमुख साझेदारों - अमेरिका और चीन, अमेरिका/यूरोप और रूस, अमेरिका/सऊदी अरब/इजरायल और ईरान - के बीच स्पर्द्धा या टकराव बढ़ सकता है और 2019 में इसमें ज्यादा कटुता आ सकती है। बड़ी शक्तियां टकराव की चिंगारी टालने के लिए अपने रिश्तों को संभाल सकती हैं, लेकिन फारस की खाड़ी में युद्ध की स्थिति पैदा होने या इजरायल, फलस्तीन, सीरिया या लेबनान में सुलगता टकराव उथलपुथल पैदा कर सकता है। कई बातें संकेत करती हैं कि दोनों ओर की ताकतें शायद लंबे समय से सुलग रही हैं, जिससे शांति खत्म हो सकती है। उस सूरत में खाड़ी में प्रवासियों की बड़ी आबादी को तो खतरा होगा ही, भारत की ऊर्जा सुरक्षा और सैन्य तकनीक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर भी गंभीर प्रभाव होगा। पश्चिम एशिया के लिए आपात स्थिति की योजनाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि इन विकल्पों का इस्तेमाल करने की कभी जरूरत ही नहीं पड़े।
भारत को परमाणु और हाइपरसोनिक क्रूज तथा सुपर ग्लाइड जैसी उन्नत मिसाइल प्रणालियों के क्षेत्र में होने वाली घटनाओं पर नजदीकी से नजर रखनी होगी ताकि भविष्य में इस क्षेत्र में वह प्रतिस्पर्द्धा कर सके। ताकत के उपरोक्त मुकाबले के जवाब में चीन और रूस की पहले से मजबूत धुरी तैयार हो सकती है। हिंद-प्रशांत में भू-सामरिक प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने से भारत कई मामलों में अकेला पड़ सकता है, जिनमें से कुछ 2019 में दिख भी सकते हैं।
अफगानिस्तान में सुरक्षा की स्थिति भारत के लिए करीबी चुनौती बन सकती है। यह चुनौती तालिबान के साथ गलत वक्त पर बातचीत के जरिये राजनीतिक सौदेबाजी किए जाने और देश में अमेरिकी सैना की मौजूदगी कम होने के कारण जबरन तैयार होगी। तालिबान “जीत” की बात का व्यापक प्रभाव हो सकता है ओर सुरक्षा की स्थिति में तेजी से परिवर्तन हो सकता है, जिसमें इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान (आईएसके) की मौजूदगी को भी बल मिलेगा। भारत को विभिन्न क्षेत्रों में अफगान सरकार की मदद जारी रखने के लिए तैयार रहना होगा।
2018 में पाकिस्तान में आए राजनीतिक बदलाव के कारण अपरिपक्तव और अनुभवहीन इमरान खान सेना की मदद से सत्ता में आ गए हैं। शांति की बात के साथ ही भारत के आंतरिक मामलों पर चिड़चिड़ाहट भरी और अस्वीकार्य टिप्पणियां बेतुका तरीका है, जिसका सामना भारत को 2019 में भी करना पड़ेगा। नियंत्रण रेखा की बात हो या कश्मीर हो, इमरान और सेना का गठजोड़ भारत के लिए सुरक्षा संबंधी बड़ी चुनौती होगा। यदि तालिबान को अपने मोहरों की तरह काबुल में सत्ता के करीब बिठाने की अफगान नीति को पाकिस्तान सफल मान रहा होगा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित आतंकी समूह - लश्कर-ए-तैयबा तथा जैश-ए-मुहम्मद कश्मीर में दोहराने की मांग करेंगे और पाकिस्तान का नेतृत्व इतना परिपक्व नहीं है कि उसे टाल सके। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में सेना की तैनाती के साथ चीन और पाकिस्तान के बीच बढ़ते सैन्य गठजोड़ पर भी करीब से नजर रखनी होगी।
दक्षिण एशिया विशेषकर भारत के हिमालय क्षेत्र के पड़ोसियों नेपाल और भूटान में चीन का राजनयिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य विस्तार चिंता का विषय है क्योंकि यह उत्तरी सीमाओं की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। तिब्बत के पठार में चीनी सेना की बढ़ती मौजूदगी को देखते हुए उत्तरी पड़ोसी के साथ रक्षा और सैन्य सहयोग में तेजी लानी होगी।
बांग्लादेश में चुनाव के बाद भारत के साथ उसके सकारात्मक रिश्ते बने रहने की संभावना है, जिन्हें जमीनी और समुद्री आवाजाही के गलियारे बढ़ाने के लिए मजबूत करने की जरूरत है ताकि पूर्वोत्तर क्षेत्र के साथ संपर्क बढ़े और भारत की सामरिक रास्ते बंद नहीं हों। बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों की मौजूदगी कुछ समय तक तो बढ़ती ही रहेगी और सुरक्षा पर उसके प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए म्यांमार के साथ मिलकर दोनों देशों को संयुक्त रणनीतियां तैयार करनी होंगी।
अमेरिका के वायदे की अनिश्चितताओं और चीनी नौसेना की उपस्थिति बढ़ने के कारण हिंद-प्रशांत में गहमागहमी बढ़ सकती है। भारत के प्रमुख सामरिक साझेदार अपने रुख पर दोबारा विचार कर रहे हैं और क्षेत्र में अमेरिका की घटती उपस्थिति के दुष्प्रभाव से खुद को बचाने का प्रयास करेंगे। भारत को इंडियन ओशन नेवल सिंपोजियम (आईओएनएस) की नरम सैन्य कूटनीति पर आधारित सहकारी सुरक्षा ढांचा तैयार करने के प्रयास जारी रखने चाहिए और साथ में बिम्सटेक सदस्य देशों की सेनाओं द्वारा किए गए मिलेक्स-2018 जैसे बहुपक्षीय अभ्यास भी करने चाहिए।
उत्तर-पूर्व एशिया में पूर्व की ओर बढें तो जापान की एनडीपीजी और सेना के आधुनिकीकरण की योजनाओं का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि हिंद-प्रशांत में अमेरिकी सेना की मौजूदगी भविष्य में और भी कम होने की सूरत में जापानी योजनाओं के कारण इस क्षेत्र में अनुकूल सैन्य संतुलन तैयार होगा। उत्तर कोरिया की परमाणु अस्त्र खत्म करने की योजना पर अनिश्चितता जारी रहने की आशंका है। ऐसे में भारत तथा दक्षिण कोरिया के बीच बढ़ता सैन्य तकनीकी सहयोग भी सकारात्मक पहलू है।
सुरक्षा, साइबर, सूचना और मीडिया के धुंधले क्षेत्र - जिसे ग्रे जोन वॉरफेयर का नाम भी दिया जाता है - की बात करें तो भारत को सरकार के भीतर तथा बाहर के कारकों से जोखिम रहता है। इनसे लड़ने के लिए दुरुस्त सिद्धांत और मुकाबला करने के लिए व्यवस्थित योजना तैयार करने पर फौरन ध्यान देना होगा क्योंकि आधुनिक लोकतंत्रों के सबसे बड़े चुनाव - भारत में अप्रैल-मई, 2019 के लोकसभा चुनाव - के दौरान ऐसी हानिकारक ताकतें अपना प्रभाव डालने का खेल शुरू कर चुकी हैं। इसी तरह मिली-जुली जंग से निपटने की रणनीतियां भी ईजाद करनी होंगी।
रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में क्षमता तथा सामर्थ्य निर्माण भारत के लिए प्रमुख चुनौती बना हुआ है। 2019 में इस पर बहुत प्रभाव पड़ेगा क्योंकि चुनावी खुमारी और सांगठनिक ठहराव के कारण मार्च से सितंबर के बीच करीब छह महीने के लिए निर्णय लेने की गुंजाइश खत्म हो जाएगी। अमेरिका या यूरोप और रूस के बीच तनाव बरकरार रहने की संभावना को देखते हुए भारत को रूस के रक्षा प्रतिष्ठान पर प्रतिबंधों के कारण रक्षा खरीद में गंभीर ऊहापोह से गुजरना होगा।
ध्यान रहे कि भारत जैसे विशाल और बहुदलीय लोकतंत्र में आम चुनाव उथल-पुथल भरे हो सकते हैं और 2019 के शुरुआती दो महीने यह सुनिश्चित करने की योजना और तैयारी में लगाने चाहिए कि ऊपर बताई गई भू-राजनीतिक घटनाओं का कुछ महत्वपूर्ण राजनीतिक हितों पर कम से कम प्रभाव हो।
(ब्रिगेडियर राहुल बोस अग्रणी सुरक्षा विश्लेषक हैं)
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