यदि 2019 की बात करें तो दक्षिण चीन सागर सुलगते हुए पलीते की तरह है, जो बिना चेतावनी के किसी भी समय फट सकता है और आग लग सकती है। चीन और अमेरिका के बीच बयानबाजी इतनी बढ़ चुकी है कि हिंसक नौसैनिक टकराव को रोकना ही अमेरिका और चीन के रक्षा मंत्रियों के बीच होने वाली चर्चा का मुख्य विषय बन चुका है। अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस के इस्तीफे के बाद रुख और भी कड़ा हो सकता है।
चीन सैन्यीकरण नहीं बढ़ाने का आश्वासन तो दे रहा है, लेकिन पैरासेल्स और स्प्रैटलिस द्वीपसमूह में उसके सैन्य विमानों, नौसैनिक पोतों तथा वायु रक्षा पलटनों की मौजूदगी बढ़ रही है। यह सब इतने बड़े स्तर पर हो रहा है कि अमेरिका की एशिया-प्रशांत नौसेना कमान के कमांडर एडमिरल डेविडसन को सीनेट के सामने हुई सुनवाई में स्वीकार करना पड़ा कि दोनों देशों की सेनाओं के संतुलन को देखते हुए छोटे-मोटे टकराव में अमेरिकी नौसेना चीन की नौसेना के सामने कमतर रह जाएगी। इसीलिए अमेरिका ने अपनी नाखुशी जाहिर करते हुए रिमपैक नौसैनिक अभ्यास में चीनी नौसेना को दिया न्योता रद्द कर दिया है। चीनी नौसेना ने पहली बार पिछले वर्ष सितंबर में असुरक्षित और गैर पेशेवराना चाल चलते हुए अमेरिका के लक्षित मिसाइल विध्वंसक यूएसएस डीकैटर का रास्ता रोकने के लिए तरीका अपनाते हुए विध्वंसक लुयांग का इस्तेमाल किया और अमेरिकी विध्वंसक को स्प्रैटलिस, गैवेन और जॉनसन रीफ्स से होकर स्वतंत्रता के साथ नौसैनिक गश्त करने से रोक दिया।
इस घटनाक्रम में एक और मोड़ आ रहा है क्योंकि खबरों के मुताबिक पेंटागन दक्षिण चीन सागर और ताइवान जलडमरूमध्य में अधिक केंद्रित नौसैनिक अभ्यास करने की योजना बना रहा है; पिछले वर्ष इसमें नौसैनिक गश्त की स्वतंत्रता का भरपूर इस्तेमाल किया गया था और परमाणु क्षमता से युक्त बी-52 बमवर्षक विमानों ने उड़ानें भी भरी थीं। ब्रिटेन ने सिंगापुर या ब्रुनेई में नौसैनिक ठिकाना बनाने पर विचार कर रहा है और ब्रिटेन तथा फ्रांस सांकेतिक तौर पर ही सही पहली बार नौसैनिक गश्त की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस क्षेत्र में नौसैनिक अभ्यासों तथा अन्य देशों की गश्तों में बढ़ोतरी हो रही है और अमेरिकी नौसेना कम से कम तीन बार ताइवान जलडमरूमध्य से होकर गुजरी है, जिसका चीन ने ताइवान के साथ तनाव को देखते हुए कड़ा विरोध भी किया है। अलबत्ता जब सितंबर में ऑस्ट्रेलिया का एक जंगी जहाज ताइवान जलडमरूमध्य से गुजरा था तब अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की संभावित मिलीभगत की खबरें अखबारों में आने के बावजूद चीन की ओर से सार्वजनिक तौर पर किसी तरह का विरोध नहीं हुआ था। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने शिनच्यांग में चीनी नीतियों की खुली आलोचना की है और अपने-अपने बाजारों में चीनी निवेश, विशेषकर हाई-टेक कंपनियों के निवेश पर रोक लगाई है। ऐसे में ये घटनाक्रम पश्चिम और चीन के बीच बड़े स्तर पर टकराव का हिस्सा लग रहे हैं, लेकिन हाल तक ऐसे खुले टकराव की अपेक्षा नहीं रही होगी। चीन की घरेलू अर्थव्यवस्था की नाजुक हालत को देखते हुए उसके खिलाफ आर्थिक ताकत का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो अमेरिका तथा चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध में नजर भी आया है।
चीनी अधिकारियों और टिप्पणीकारों ने 2013 में पूर्वी चीन सागर में घोषित वायु रक्षा सूचना क्षेत्र (एडीआईजेड) की तर्ज पर इस बार सेनकाकू द्वीप समूह को शामिल करते हुए एडीआईजेड की घोषणा की संभावना से कभी इनकार नहीं किया है। चीन के उप विदेश मंत्री ने तो 2016 में जोर देकर कहा था कि ‘यदि हमारी सुरक्षा खतरे में पड़ी’ तो चीन के पास इस क्षेत्र की स्थापना का अधिकार है। क्षेत्रीय अधिकारों के बारे में चीन के दावे राष्ट्रपति शी की जबान से मेल खाते हैं, जो अपने पूर्वजों विरासत की रक्षा की बात करते हैं। याद रहे कि पैरासेल्स और स्प्रैटलिस की जमीन पर चीन के कथित ऐतिहासिक अधिकारों के दावों और ‘नाइन डैश लाइन्स’ के जरिये किए जा रहे अपरिभाषित समुद्री क्षेत्र के दावों के बल पर ही राष्ट्रपति शी का चीन में लगभग पूर्ण आधिपत्य हो गया है। इसलिए दक्षिण चीन सागर के मामलों पर घर तथा विदेश में चीन का रुख देश में सत्ता की वर्तमान राजनीति से जुड़ा है। हाल में आई खबरों के मुताबिक राष्ट्रपति शी देश में राजनीतिक दबाव झेल रहे हैं क्योंकि जिस समय चीन की अर्थव्यवस्था में कमजोरी उजागर हो रही है, उस समय वह अमेरिका के साथ व्यापार विवाद को साध नहीं पाए।
हालांकि आसियान देश विभिन्न जमीनी क्षेत्रों में चीन के सैन्यीकरण से परेशान हैं, लेकिन उन्हें इस बात की भी चिंता है कि क्षेत्र में शांति बाधित हो रही है, जिससे संगठन और भी कमजोर होगा तथा उसके इर्दगिर्द बना कमजोर सुरक्षा ढांचा टूट जाएगा। चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव’ (बीआरआई) परियोजनाएं इन देशों और क्षेत्रीय दावों का विरोध करने वालों के लिए अब भी लुभावनी बनी हुई हैं और ‘मैरिटाइम सिल्क रूट’ (एमएसआर) इन्हीं परियोजनाओं में शामिल है। यह मजबूत क्षेत्रीय भू-राजनीतिक रुख है, जो हाल में कुछ प्रमुख लाभार्थियों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया के बावजूद बना हुआ है।
अजीब बात है कि फिलीपींस जैसे वे देश भी इसमें शामिल हैं, जिन्हें चीनी सेना का दबाव झेलना पड़ा है। दबने की एक वजह शायद यह भी है कि चीनी नौसेना के साथ अमेरिकी नौसेना के टकराव का चीन तथा पड़ोसी क्षेत्र पर दावा करने वाले अन्य देशों के बीच सैन्य टकराव से कोई लेना-देना नहीं है; ये देश अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया की मदद से अपनी सैन्य और नौसैनिक क्षमताओं में इजाफा कर रहे हैं।
फिलहाल दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को उम्मीद है कि बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में जापान तथा अमेरिका से निवेश आएगा। यह बात अलग है कि बीआरआई के तहत चीन ने कहीं अधिक निवेश का वायदा किया है और आसियान देशों के साथ द्विपक्षीय आधार पर, आसियान-चीन मामले में और आसियान+3 (आसियान और चीन, जापान तथा कोरिया) मंच पर चीन के अधिक मजबूत व्यापारिक एवं आर्थिक रिश्ते हैं।
साथ ही दक्षिण चीन सागर के मामले में आचार संहिता पर भी उनकी बात आगे बढ़ी है और बातचीत के एक ही दस्तावेज पर वे राजी हुए हैं। विश्वास बहाली के कुछ उपायों पर भी सहमति बनी है और दोनों पक्षों के बीच रक्षा मंत्रियों के स्तर पर नियमित अनौपचारिक बैठक भी हुई हैं। पिछले अक्टूबर में चीन तथा आसियान देशों के बीच पहला नौसैनिक अभ्यास भी हुआ था।
दक्षिण चीन सागर में चीन और अमेरिका का टकराव बड़े वैश्विक खेल का हिस्सा भर है, जिसमें चीनी ताकत की सीमाओं को परखा जा रहा है यानी उसे फर्स्ट आईलैंड्स चेन तक सीमित करने की कोशिश हो रही है। जमीन पर भारी सेना की मौजूदगी तथा अलग-अलग देशों को नाइन डैश लाइन के दावों के बल पर जबरिया झुकाने की कोशिशों पर चिंता के बावजूद आसियान को अतीत के अनुभव के आधार पर लगता है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद चीन उनकी चिंताओं के प्रति अधिक संवेदनशील बन जाएगा। जमीन पर सेना तैनात करने के मामले में अमेरिका ने सामरिक अस्पष्टता बनाए रखी है, जिसे उन्होंने सुरक्षा के अपने आकलन में शामिल किया है। पिछले वर्ष मई में विश्वसनीय खबरें आई थीं कि पेंटागन ने अमेरिकी नौसेना को नौवहन के स्वतंत्र अधिकार का इस्तेमाल टालने के लिए कहा था क्योंकि उसे उम्मीद थी कि उत्तर कोरिया के मामले में अमेरिकी कूटनीति में चीन मदद करेगा। अमेरिका के इस अस्पष्ट रुख और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की मामला साधने की कोशिश के बीच चीनी नेतृत्व को सैन्यीकरण के अपने मंसूबे पूरे करने का मौका दिख रहा है।
नए वर्ष में अमेरिकी और चीनी नौसेनाओं का सोचा-समझा टकराव जारी रहने की संभावना है और इस बात की भी पूरी संभावना है कि उकसाने वाली हरकतों के बावजूद बात आगे नहीं बढ़ेगी। दक्षिण चीन सागर में चीन के एडीआईजेड की स्थापना बहुत मुश्किल है क्योंकि स्प्रैटलिस की ज्यादातर जमीन पर उसका नियंत्रण नहीं होगा। हेग मध्यस्थता अदालत ने भी 2016 में कह दिया कि स्प्रैटलिस द्वीपों का समूह नहीं है और इसी कानूनी आधार पर चीन ने कह दिया कि पैरासेल्स द्वीप समूह के चारों ओर बनी बेसलाइन की भी कोई वैधता नहीं है। चीन के समुद्री दावों के बरअक्स एडीआईजेड की भौगोलिक तुक भी नहीं है और इसके साथ जो अस्पष्टता आएगी, वह पूर्व चीन सागर की ही तरह क्षेत्रीय कूटनीति में भी विद्वेष पैदा कर देगी।
आसियान देशों के साथ भारत के मजबूत होते नौसैनिक संबंध हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके हालिया कूटनीतिक कदमों के साथ ही क्षेत्रीय कारक होते जा रहे हैं, लेकिन पिछले मार्च में एक भारतीय टेलीविजन चैनल पर नौसेना अध्यक्ष की यह प्रतिक्रिया दिलचस्प रही कि जरूरत पड़ने पर भारतीय नौसेना दक्षिण चीन सागर में संतुलन पलट सकती है। दोकलाम के बाद हमारे सामरिक योजनाकारों के दिमाग में ऐसी बातें आने की पूरी संभावना है, लेकिन वहां की परिस्थितियों और अमेरिका के साथ समझ पर अब भी अटकलें ही लगाई जा सकती हैं।
(लेखक भारत के राजदूत रह चुके हैं, जो समुद्री एवं सुरक्षा मामलों पर लिखते रहते हैं)
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