राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) में असम के भारतीय नागरिकों के नाम शामिल हैं। उसमें खास तौर पर उन सभी को भारतीय नागरिक के रूप में शामिल करने पर जोर दिया गया है, जो 1 जनवरी, 1966 के बाद और 25 मार्च, 1971 से पहले भारत आए थे। इसे शुरुआत में 1951 में तैयार किया गया था, लेकिन असम में बाद में आई सरकारों ने वोट बैंक की राजनीति के कारण उसे अद्यतन नहीं किया। किंतु केंद्र में मौजूदा सरकार और असम राज्य सरकार के प्रयासों से अंतिम मसौदा सूची 1 अगस्त को जारी कर दी गई।
कुल मिलाकर 3.29 करोड़ आवेदन विचारार्थ आए। उनमें 40 लाख को अयोग्य पाया गया, जिनमें 2.48 लाख संदिग्ध मतदाताओं के भी नाम थे और उन्हें विदेशियों के पंचाट के पास भेज दिया गया। लंबी प्रतीक्षा के बाद गृह मंत्रालय ने पहली एनआरसी सूची 31 दिसंबर, 2018 को जारी करने का फैसला किया। सरकार के लिए यह बहुत भारी काम था, जिसमें 40,000 कर्मचारी लगाए गए, 8,200 कर्मचारी बाहर से ठेके (आउटसोर्सिंग) पर बुलाए गए और लगभग 1,200 करोड़ रुपये का खर्च आया।
इसके प्रकाशन पर सबसे कड़ी प्रतिक्रिया उन राजनीतिक पार्टियों की ओर से आई, जो अपने वोट बैंकों के लिए इन अवैध प्रवासियों पर निर्भर हैं। सरकार ने दोटूक घोषणा कर दी कि जिनके नाम सूची में नहीं हैं, वे नाम शामिल कराने के लिए सितंबर, 2018 में नए सिरे से दावा कर सकते हैं। लेकिन यदि नए दावे को भी खारिज कर दिया गया तो वह विदेशियों के पंचाट, उसके बाद उच्च न्यायालय और बाद में सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकता है।
एनआरसी संसद में चर्चा का मुख्य बिंदु बन गया है। लोकसभा और राज्यसभा दोनों में भारतीय जनता पार्टी तथा विपक्षी दलों के बीच कई बार गरगारम बहस हुईं। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में बयान दिया कि मौजूदा एनआरसी सूची अंतिम नहीं है और कुछ राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना रही हैं ताकि उन लोगों के मन में अनावश्यक डर पैदा किया जा सके, जिनके नाम अनजाने में सूची से छूट गए हैं। उन्होंने लोगों को बदहवास नहीं होने की सलाह दी और कहा कि जिन नागरिकों के नाम सूची में नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता सिद्ध करने का एक और अवसर दिया जाएगा। मामला इतना नाटकीय हो गया कि कुछ सांसदों और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने सिलचर जाने की कोशिश की और उन्हें हवाईअड्डे पर उतरते ही हिरासत में ले लिया गया।
भारत के महापंजीयक ने जनता को कारण नहीं बताए और 40 लाख लोगों के नाम एनआरसी से बाहर रखने की वजह को गुप्त ही रखा। वास्तव में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के पुरजोर विरोध के बाद जब एनआरसी पर कोई प्रगति नहीं हुई तो सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और 2015 में प्रक्रिया एक बार फिर शुरू हुई। मामला स समय चरम पर पहुंच गया, जब यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम के नेता परेश बरुआ, उनकी पत्नी और पुत्र के नाम सूची में आ गए क्योंकि वे लंबे समय से भारत में नहीं थे। ऐसा ही अनूप चेतिया के साथ हुआ। महापंजीयक ने स्पष्ट कह दिया था कि भारतीय नागरिक के रूप में उन 40 लाख लोगों के जो मौलिक अधिकार तथा विशेषाधिकार हैं, वे एनआरसी के अगली बार अद्यतन होने तक यानी 31 दिसंबर, 2018 तक बरकरार रहेंगे। इस प्रकार भारत के महापंजीयक को पांच महीनों में यह मुद्दा सुलझाने का काम दिया गया है।
सूची जारी होने के फौरन बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवला के बीच जबानी जंग शुरू हो गई। सुश्री बनर्जी ने इसे सभी बंगालियों और बिहारियों को असम से बाहर करने की साजिश बताया और श्री सोनोवाल ने इसे सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों पर कराई गई कवायद घोषित कर दिया। असम के पूर्व मुख्यमंत्री और असम गण परिषद के नेता प्रफुल्ल महंत ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बगैर एनआरसी पूरी ही नहीं हो पाती क्योंकि पिछली सरकारें अपने वोट बैंकों की खातिर इस मसले पर चुप्पी साधे रही थीं। सुश्री बनर्जी ने यह आरोप भी लगा या कि एनआरसी के जरिये भाजपा ने बड़ी संख्या में भारतीयों को उनके ही देश में शरणार्थी बना दिया है। दूसरी ओर श्री सोनोवाल ने एनआरसी को असम में विभिन्न समुदायों की मांग का नतीजा बताते हुए उचित ठहराया और कहा कि पूरा कार्य उच्चतम न्यायालय के सख्त निर्देशों के अनुसार ही किया गया। बांग्लादेश के अवैध प्रवासियों का समर्थन करने के मसले पर भाजपा और कांग्रेस पार्टी के बीच भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला।
सरकार का कहना है कि जो एनआरसी से बाहर रह गए हैं, उन्हें भारत के महापंजीयक के पास जाना होगा और भारतीय के रूप में अपनी राष्ट्रीयता सिद्ध करनी होगी। दूसरी ओर कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने सरकार से यह साबित करने के लिए कहा कि छूटे हुए 40 लाख से अधिक लोग भारतीय नहीं हैं। ओडिशा में बड़ी तादाद में बांग्लादेशी प्रवासी बसे हुए हैं और वहां की राजनीतिक पार्टी बीजू जनता दल ने एनआरसी का खुला समर्थन किया मगर कहा कि यह प्रक्रिया त्रुटिरहित हो और इसके पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं होना चाहिए।
वास्तव में असमवासियों की पड़ताल का पूरा मामला बांग्लादेशियों की पहचान करने के लिए 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार और असम के छात्रों के बीच हुई ‘असम संधि’ से शुरू हुआ। लेकिन असम में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारें भी वोट बैंक गंवाने के डर से इसे लागू नहीं कर पाईं। एनआरसी के मसले को तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख सुश्री बनर्जी ने तो असम में ही नहीं बल्कि बंगाल में भी गृहयुद्ध का कारण बता दिया। यह भी कहा गया है कि बांग्लादेश इससे इतना नाराज हो सकता है कि वह भारत विरोधी नीतियां अपना सकता है। बंगाल में खूनखराबे का डर उस समय सामने आया, जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता ऐसी आशंकाओं के विरुद्ध अपना नजरिया स्पष्ट करने के लिए पश्चिम बंगाल पहुंचे। फिर भी यह सच है कि कुछ नाम अगर अंतिम सूची में नहीं आते हैं तो उन लोगों के मताधिकार समाप्त कर दिए जाएंगे।
कुल मिलाकर यह कवायद किसी खास समुदाय के खिलाफ नहीं है बल्कि उन विदेशियों के खिलाफ है, जो तिकड़म भिड़ाकर इस देश में रहते हैं और भारतीय नागरिकों के हिस्से की सुविधाएं हड़प लेते हैं। बांग्लादेश तक रोहिंग्याओं को म्यांमार लौटाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन हम 25 मार्च, 1971 के बाद आए करोड़ों बांग्लादेशियों में से 50 को वापस भेजने में भी नाकाम रहे हैं। खबरें थीं कि सिलचर सीमा से भारत में प्रवेश करने वाले लोगों को मेमनसिंह में भारतीय पहचान पत्र और वोटर कार्ड बेचे जाते हैं। असम में कोकराझार, बक्सा, उदलगुड़ी, गुवाहाटी, शोणितपुर, सिलचर, गोलपाड़ा, धुबरी और करीमगंज सर्वाधिक प्रभावित इलाके हैं, जिन्हें बांग्लादेशियों की घुसपैठ से सबसे ज्यादा झेलना पड़ा क्योंकि सरकारी जमीन के साथ ही उन्होंने वहां के निवासियों की जमीन पर भी कब्जा कर लिया।
असम में जो हुआ, वह उन राज्यों में भी होना चाहिए, जहां बड़ी संख्या में प्रवासी रहते हैं, जैसे दिल्ली और श्रीनगर में कमरवाड़ी। एनआरसी को पश्चिम बंगाल से शुरू होने दीजिए, उसके बाद बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा का नंबर आए। एनआरसी का मसौदा किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है; यह भारत में अवैध प्रवासियों की पहचान करने के लिए है। असम के अलावा दूसरे राज्यों में भी ऐसे ढेरों प्रवासी हैं। दूसरे स्थानों पर भी यही प्रक्रिया आरंभ करने में क्या गलत है? खूनखराबे का डर?
उच्चतम न्यायालय ने खास तौर पर कहा था कि जब लंबे समय से अटकी एनआरसी की प्रक्रिया शुरू की जाए तो बलपूर्वक कुछ भी नहीं किया जाए। उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया है कि नागरिकता का सत्यापन करते समय मानक प्रक्रिया अपनाई जाए। पश्चिम बंगाल हो या अरुणाचल प्रदेश, एनआरसी के सत्यापन में राज्यों को सहयोग करना ही होगा। कुछ राजनीतिक पार्टियां उन विदेशियों को शरण देने की कोशिश कर सकती हैं, जो असम से पड़ोसी राज्यों में भाग सकते हैं। राजनीतिक पार्टियों के लिए यही बेहतर होगा कि वे एक-दूसरे पर कीचड़ न उछालें और उसके बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बनाई गई नीति पर सहयोग करें। किसी भी राजनेता को एनआरसी के मामले में बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान को घसीटने से परहेज करना चाहिए क्योंकि राष्ट्रहित सर्वोपरि होता है। एनआरसी महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जो भारतीयों को शरणार्थियों तथा अवैध प्रवासियों से स्पष्ट रूप से अलग करता है।
(आलेख में लेखक, पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, बीएसएफ, के निजी विचार हैं। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)
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