अगर मुझे ठीक याद है तो यह 2002 के आखिर की बात है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नए साल की शुरुआत के लिए गोवा पहुंच चुके थे। मैं उस समय वहीं था। कुछ महीने पहले ही पत्रकारिता से अवकाश लेकर मैंने मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर के मीडिया सलाहकार का काम संभाला था और साथ ही मुझे सरकार के सूचना एवं प्रचार विभाग (डीआईपी) का निदेशक पद पर भी भेजा गया था। इसीलिए स्थानीय मीडिया को पार्रिकर के हस्तक्षेप के बाद लंबे-चौड़े बीच रिजॉर्ट पर प्रधानमंत्री के साथ तस्वीर खिंचाने के लिए इकट्ठा करना मेरा काम था। प्रधानमंत्री नए साल के लिए इसी बीच में ठहरे थे।
करीब दो दर्जन मीडियाकर्मी बीच से कुछ दूर खड़े थे। प्रधानमंत्री अपने दलबल के साथ खुले में निकल आए थे और समुद्र के एकदम नजदीक खड़े थे, जिसकी लहरों की मंद आवाज बिल्कुल लोरी की तरह लग रही थी। दिन बहुत खुशनुमा था और हर कोई प्रसन्न था। प्रधानमंत्री तमाम अधिकारियों के साथ खड़े थे और उनके चारों ओर सुरक्षाकर्मियों ने रस्सी के बैरिकेड से आधा घेरा बना रखा था। हमें सब्र करने और उस लक्ष्मण रेखा के बाहर रहने की सलाह दी गई। अपने गुस्से के लिए कुख्यात एक वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार ने दो बार सुरक्षा घेरा तोड़ने की कोशिश की और रस्सी के नीचे या ऊपर से जाने का प्रयास किया। दोनों बार विशेष सुरक्षा समूह (एसपीजी) के कर्मियों ने उन्हें हल्के से धकेल दिया। उसके बाद उन्होंने मीडियाकर्मियों के साथ हो रहे तिरस्कार की शिकायत जोर-जोर से करना शुरू कर दिया और चेतावनी दी कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी कठोरता को बरदाश्त नहीं करेगी।
सुरक्षा दल (एसपीजी) का एक परेशान सदस्य मेरे पास आया क्योंकि मैं उत्तेजित पत्रकार के पास खड़ा था और उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था। सुरक्षाकर्मी ने मुझे कहा कि यदि वह व्यक्ति एक बार और सुरक्षा घेरा तोड़ने की कोशिश करेगा तो वह बलप्रयोग के लिए मजबूर हो जाएगा। हंगामा इतना अधिक था कि एक पल के लिए वाजपेयी का ध्यान भी उधर चला गया। उन्होंने मुस्कराते हुए हमारी ओर देखा और उसके बाद पास खड़े लोगों में व्यस्त हो गए। आधे घंटे बाद रस्सियां नीचे कर दी गईं और हमें उनके पास जाने की अनुमति दे दी गई। वह अपनी जानी-पहचानी मोहक मुस्कान के साथ हमसे मिले। जब मैंने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया तो उन्होंने कहाः “आप लोग भाग्यशाली हैं, जो इतने सुंदर राज्य में काम कर रहे हैं।” एक-दो दिन बाद डीआईपी के एक फोटोग्राफर ने उनकी एकदम गूढ़ मुद्रा में तस्वीर खींची। एक गिलास लेकर (मुझे याद नहीं कि गिलास उनके हाथ में था या उनके सामने पड़ी मेज पर था) वह समुद्र तट पर बैठे थे और वर्ष की आखिरी शाम को डूबते सूरज के कारण आसमान में आग की लपटों जैसी लाली छाई थी। यह तस्वीर पूरे देश में फैल गई और इससे वाजपेयी का आभामंडल और भी बढ़ गया।
दूसरे प्रधानमंत्री भी गोवा आ चुके थे - राज्य को पुर्तगालियों से आजादी मिलने के बाद पहले चुनाव में यहां के लोगों द्वारा कांग्रेस को नकारे जाने से चकराए जवाहरलाल नेहरू आए थे, जिन्होंने अचंभित होकर कहा था, “अजीब हैं गोवा के लोग”। इंदिरा गांधी आई थीं और राजीव गांधी भी आए थे। लेकिन वाजपेयी कुछ अलग थे - मनोहर, सज्जन, स्नेही, विनोदी और आकर्षक भी! मैं भूल नहीं सकता कि उनके साथ सुपरस्टार जैसा व्यवहार किया जा रहा था। वह वाकई अपनी तरह के सुपरस्टार ही थे। उस समय तक वाजपेयी स्वयं को अलग प्रकार का प्रधानमंत्री सिद्ध कर चुके थे। उन्होंने देश के लचर बुनियादी ढांचे (विशेषकर राष्ट्रीय राजमार्ग और ग्रामीण सड़कों) में दीर्घकालिक बदलाव शुरू कर दिए थे, पोकरण परीक्षण (इतनी गोपनीयता से किया गया कि चौकन्ने अमेरिका को भी खबर नहीं हुई) के जरिये देश की परमाणु क्षमता का प्रदर्शन किया था, पाकिस्तान की ओर (लाहौर बस सेवा के जरिये) दोस्ती का हाथ बढ़ाया, रास्ता भटकने पर (कारगिल युद्ध में) पाकिस्तानियों को अपमानजनक सबक सिखाया फिर भी आगरा शिखर वार्ता (जो पाकिस्तानी नेता परवेज मुशर्रफ की जिद के कारण नाकम हो गई) के जरिये पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने का प्रयास किया, राजनीतिक रूप से संवेदनशील निजीकरण का कार्यक्रम (जिसके जरिये सार्वजनिक क्षेत्र की खस्ताहाल इकाइयों को निजी प्रबंधन के हवाले किया गया) आरंभ किया और देश की विदेश नीति के लंबे समय से चले आ रहे चरित्र को छेड़े बगैर अमेरिका के साथ संबंध गहरे किए और इजरायल के साथ संबंध मजबूत किए।
इन साहसिक और कल्पनाशील फैसलों से किस तरह देश का कद देश और दुनिया में बढ़ाया, यह बात विस्तार से कई बार लिखी जा चुकी है और उसे दोहराने की जरूरत नहीं। लेकिन 16 अगस्त को उनका निधन होने के बाद श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ गई और उनके साथ काम कर चुके का सुअवसर पा चुके कुछ लोगों ने राष्ट्रहित के लिए अपने साथियों को भी रुष्ट कर देने के वाजपेयी के संकल्प की बात की। मोबाइल टेलीफोनी में तेज वृद्धि शुरू करने के लिए लाइसेंस शुल्क प्रणाली के बजाय राजस्व साझेदारी के मॉडल पर उन्होंने अपने वरिष्ठ अफसरशाह एन के सिंह का समर्थन किया (सिंह ने इस बारे में टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिखा था, जो वाजपेयी के निधन के अगले दिन प्रकाशित हुआ था )। एन के सिंह ने इस योजना पर जोर दिया था और दूरसंचार क्षेत्र को बुरी स्थिति से उबारने के लिए दूरसंचार ऑपरेटरों की बैंक गारंटी को भुनाने की दूरसंचार मंत्री की सलाह का विरोध किया था।
प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी की उपलब्धियां निस्संदेह विलक्षण रहीं, लेकिन वह कुल मिलाकर छह वर्ष से कुछ अधिक समय के लिए ही शीर्ष पर रहे - पांच वर्ष के पूर्ण कार्यकाल से पहले दो अलग-अलग मौकों पर 13 दिन और 13 महीनों के लिए प्रधानमंत्री रहे थे। फिर भी वह छोटी सी अवधि लोगों को यह अहसास दिलाने के लिए काफी थी कि वाजपेयी देश के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में से एक रहे। मेल टुडे द्वारा हाल ही में कराए गए एक सर्वेक्षण में 94 प्रतिशत पाठकों ने उन्हें सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री करार दिया। यह किसी चमत्कार से कम नहीं है क्योंकि वाजपेयी के सामने नेहरू और इंदिरा गांधी जैसी शख्सियतें थीं, जिन दोनों के कार्यकाल लंबे रहे थे और इस तरह चिरस्थायी विरासत छोड़ने के ज्यादा मौके भी उनके पास थे।
फिर प्रधानमंत्री के रूप में उनके प्रदर्शन के अलावा क्या था, जिसके कारण उन्हें इतने विराट व्यक्तित्व के तौर पर याद किया जाता है? उनके व्यक्तित्व के दो पहलुओं ने उनकी छवि गढ़ने में योगदान किया। पहला था उनका व्यक्तित्वः कवि, लोकतंत्रवादी, उदारवादी। और दूसरी थी उनकी राजनीतिक कुशाग्रताः जनता ही नहीं दूसरे राजनीतिक दलों के बीच भी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्वीकार्यता बढ़ाने में अकेले उनका ही योगदान था। वे पार्टियां बाद में भाजपा की सहयोगी बनीं और उनमें से कुछ अभी तक उसकी साझेदार हैं। मत भूलिए कि प्रधानमंत्री बनने से पहले ही वाजपेयी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सितारे थे, उन लोगों की तरह नहीं, जिनकी पहचान सत्ता हाथ में लेने के बाद ही बनती है। 1977 में जनता पार्टी सरकार बनने से उसके ढहने तक मंत्री के तौर पर उन्होंने ऐसे मंत्रिमंडल में देश के लिए शानदार काम किया था, जिस मंत्रिमंडल में लोग अपने हिसाब बराबर करने में ही जुटे रहे थे। उससे पहले उन्होंने 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही सांसद के रूप में मजबूत पहचान बनाई थी और नेहरू को भी कथित रूप से कहना पड़ा था कि युवा वाजपेयी में किसी दिन प्रधानमंत्री बनने की क्षमता है।
उसके बाद उन्होंने (अन्य वरिष्ठ नेताओं विशेषकर अपने मित्र एल के आडवाणी की मदद से, जिन्होंने सहायक की भूमिका निभाई) भाजपा को गढ़कर, 1990 के दशक में उसे सीटों के लिहाज से देश की सबसे बड़ी पार्टी बनाकर और कंेद्र में पहली भाजपानीत सरकार बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। 2014 में पार्टी ने जो प्रचंड जीत दर्ज की, उसकी नींव तो वाजपेयी ने ही रख दी थी। लेकिन प्रधानमंत्री बनने से बहुत पहले ही उन्होंने अपने कार्यों और झकझोरने वाली कविताओं के जरिये लोगों के दिल जीत लिए थे।
सबको साथ लेकर चलने की अपनी आदत के बाद भी उन्होंने पार्टी की बुनियाद रखने वाले मूल सिद्धांतों को लेकर कभी समझौता नहीं किया और राजनीतिक विरोधियों की आलोचना में वह कभी पीछे नहीं हटे। 1996 में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले लोकसभा में दिया गया उनका भाषण अद्भुत है। उन्हें सदन में बहुमत पाने से रोकने के लिए जो विपक्षी पार्टियां एकजुट हो गई थीं, उन्हें आड़े हाथों लेते हुए वाजपेयी ने कहा कि उनमें कोई समानता नहीं है, वे केवल उन्हें सत्ता से हटाने पर अड़ी हैं और वे पार्टियां कुछ हफ्ते पहले ही चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ लड़ी थीं। एक और अवसर पर उन्होंने संघ के साथ अपने संबंधों का और हिंदुत्व के प्रति अपनी निष्ठा का गर्व के साथ बखान किया और आलोचना कर रहे विरोधियों को करारा जवाब दिया। उन्होंने अपने हिंदू होने पर गर्व करने वाली कविता भी लिखी। लेकिन उनका शब्द चयन और हमला करने का उनका तरीका ऐसा होता था कि उनके प्रतिद्वंद्वियों को चुभन महसूस होती थी, लेकिन वे दुखी नहीं होते थे। जरूरत पड़ने पर वह अपने प्रतिद्वंद्वियों के पास जाने में संकोच भी नहीं करते थे, जिससे उनके मन में किसी तरह का रोष बाकी नहीं रह जाता था। वाजपेयी राजनेता भी थे और नीतिज्ञ भी थे। और अगर उनकी कविताओं को भी मिला लें तो आपको रूमानी आदर्शवादी भी मिल जाएगा।
वह भीतर से सीधे रहे होंगे, लेकिन उनके व्यक्तित्व में कई परतें थीं। एक खुशनुमा परत हटाइए तो आपको उतनी ही सुंदर दूसरी परत मिल जाएगी। बेंजमिन फ्रैंकलिन ने एक बार कहा थाः “यह सोचना बहुत बड़ी भूल है कि गुणों के बगैर भी महान बना जा सकता है। मैं कहता हूं कि कभी ऐसा कोई महान व्यक्ति हुआ ही नहीं है, जो वास्तव में गुणवान नहीं था।” वाजपेयी उसी प्रकार के महान व्यक्ति थे।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English)
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