जिसने भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को 25 जुलाई, 2018 को उस समय बोलते सुना होगा, जब यह स्पष्ट हो गया था कि चुनावी नतीजे उनके पक्ष में आए हैं, उसे अपने मन में उनकी छवि बदलनी पड़ी होगी। हमने दोस्ताना माहौल वाले वर्षों में उन्हें भारत में देखा है। ठसकदार और रसिक छवि, होड़ करने की जबरदस्त प्रवृत्ति और भारत के प्रति बहुत अधिक दोस्ताना भाव उनके व्यक्तित्व की पहचान थे। उन दिनों में लोग आश्चर्य करते थे कि इमरान खान जैसा नजरिया पाकिस्तान में सत्ता का क्यों नहीं हो सकता, जो हमेशा ही द्वेषपूर्ण रही है। अब हमारे सामने स्पष्ट हो रहा है कि पाकिस्तान में ऊपर चढ़ने के लिए आपको गिरगिट की तरह रंग बदलना पड़ता है। इमरान के मामले में बदलाव ऐसा हुआ कि नवाज शरीफ और बिलावल भुट्टो जैसे मुख्यधारा के अन्य चेहरों के मुकाबले उनकी पूरी शख्सियत ही बदल गई है।
कई मामलों में पाकिस्तान के भाग्य का फैसला करने वाली पाकिस्तानी सेना को महसूस हो गया कि मुख्यधारा की पहली दोनों राजनीतिक पार्टियों - पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग - नवाज (पीएमएल-एन) के साथ उसकी दोस्ती के दिन पूरे हो चुके हैं। इसकी वजह यह थी कि समय गुजरने के साथ उनके नेताओं की हिम्मत बढ़ती जा रही थी और भारत के साथ रिश्तों के मामले में वे अपनी मर्जी से कदम बढ़ाने के प्रयास करने लगे थे। पाकिस्तानी सेना के लिए इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पार्टी राष्ट्रीय सत्ता में बैठने के एकदम काबिल थी क्योंकि वह अपेक्षाकृत नई थी और कुछ अरसा पहले ही खैबर पख्तूनवा की सत्ता उसने हासिल की थी। किसी भी पार्टी को इस तरह बढ़ावा दिया जाए तो वह बढ़ावा देने वाले की आभारी ही रहेगी। पिछले तीन वर्ष से भी अधिक समय से पीटीआई को तैयार किया जा रहा था।
इमरान खान के निजी अस्तित्व के लिए रूढ़िवादी इस्लामी छवि जरूरी थी और क्रिकेट विश्व कप जीतने वाली पाकिस्तानी टीम के कप्तान होने के कारण उनकी राष्ट्रवादी छवि पहले से ही बनी हुई थी। जब से उन्होंने तत्कालीन पीएमएल-एन सरकार में भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए कुछ मौकों पर इस्लामाबाद शहर को ठप करने में मदद की थी तभी से उन्हें अक्सर तालिबान खान कहा गया है। पीटीआई को सत्ता में लाने के लिए पाकिस्तानी सेना ने सीधे पाकिस्तान चुनाव आयोग के साथ मिलीभगत की है या नहीं, इसका शायद कोई मतलब नहीं रह गया है क्योंकि साजिश के तहत पहले से तय नतीजे तो आने ही हैं। पीटीआई अभी सत्ता में नहीं बैठी है क्योंकि उसे सरकार बनाने के लिए कुछ पार्टियों के समर्थन की जरूरत होगी। यदि पीटीआई को पूर्ण बहुमत के साथ जीत मिली होती तो अधिक स्थिरता होती, लेकिन उससे पार्टी की हिम्मत शायद कुछ ज्यादा ही जल्दी बढ़ जाती। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार की डोरी अपने हाथों में रखने वाली ताकतों का अब इमरान खान के ऊपर पूरा नियंत्रण है।
उपरोक्त स्थिति को देखते हुए क्या भारत में किसी को लगता है कि भारत-पाकिस्तान रिश्तों के बेहतर दिन आने वाले हैं? हालिया अतीत में उम्मीद जगी है। करीब डेढ़ वर्ष पहले पाकिस्तान के सेना प्रमुख के रूप में जनरल कमर बाजवा की नियुक्ति से कुछ सकारात्मक संकेत मिले। उन्हें सुशिक्षित और ऐसा व्यक्ति माना जाता था, जो समझ सकते थे कि पाकिस्तान की अधिक गंभीर सामाजिक एवं आर्थिक समस्याएं सुलझाने के लिए भारत के साथ शांति स्थापित करना ही पाकिस्तान के व्यापक हित में है। किंतु बहुचर्चित बाजवा सिद्धांत के बाद भी इस धारणा के ठोस परिणाम नहीं मिले। 2018 के पाकिस्तान चुनावों की तैयारी पाकिस्तानी सेना ने उच्चतर न्यायपालिका और मजबूर मीडिया के साथ मिलकर की थी ताकि पीएमएल-एन को सत्ता में लौटने नहीं दिया जाए क्योंकि पार्टी अपनी बेड़ियां तोड़कर पूरी आजादी के साथ भारत संबंधी नीति पर चलना चाहती थी। इसलिए इमरान के आने पर कुछ भी बदलने की संभावना नहीं है। मानसिकताएं और इतिहास बदलाव नहीं होने देते, केवल परिस्थितियां बदलाव लाती हैं। इसलिए या तो परिस्थतियां रचनी पड़ेंगी या ऐसी घटनाओं के जरिये परिस्थिति बनेंगी, जो रिश्तों के तौर-तरीकों को बदल देंगी। लेकिन ये परिवर्तन किस प्रकार के हो सकते हैं?
पहला संभावित परिवर्तन भारत द्वारा नई पहल के लिए हाथ बढ़ाया जाना है। 2019 में गहमागहमी भरे एक और आम चुनाव होने हैं, इसलिए इसकी संभावना तो बिल्कुल भी नहीं दिखती। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने पहले ईमानदारी के साथ ऐसा प्रयास किया था और वास्तव में वे दो कदम उठाए थे, जिनकी बात इमरान ने हाल ही में अपने भाषण में की थी। लेकिन बदले में उसे एक कदम भी उठता नहीं दिखा। इसलिए भारत द्वारा पाकिस्तान के प्रति नजरिये में किसी भी प्रकार की नरमी की संभावना नहीं के बराबर है।
दूसरा, क्या इमरान खान पहल कर सकते हैं? चूंकि वह पाकिस्तानी सेना के नियंत्रण में जकड़े हुए हैं, इसलिए इसकी संभावना भी बहुत कम है। मान लें कि वह ऐसा करते हैं तो अपने शुरुआती भाषणों में उन्होंने कश्मीर को मुख्य समस्या बताकर उसका समाधान करने की जो बात कही थी और भारतीय सेना पर मानवाधिकारों के गंभीर हनन के जो आरोप लगाए थे, उन्हें देखकर रत्ती भर भी सकारात्मक माहौल तैयार होने की संभावना नहीं दिखती, जबकि भारत को इस दिशा में आगे बढ़ाने के लिए ऐसा माहौल तैयार करना जरूरी है।
तीसरा परिवर्तन ऐसी परिस्थितियां हो सकती हैं, जिनका पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति पर नियंत्रण हो, जिससे वह अपनी नीतियों में परिवर्तन के लिए विवश हो जाए और बेहतर वातावरण तैयार हो। इशारा पाकिस्तान के खिलाफ फाइनेंशियल असिस्टेंस टास्क फोर्स (एफएटीएफ) से जुड़ी शर्तों की ओर है, जिनमें उससे आतंकी नेटवर्कों की वित्तीय मदद रोकने के लिए अपनी आंतरिक प्रणालियां दुरुस्त करने के लिए कहा गया है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था खस्ता है और चीन पहले ही उसे दो अरब डॉलर का राहत पैकेज दे चुका है। लेकिन पााकिस्तान को कभी न कभी उन कदमों में अधिक पारदर्शिता दिखानी पड़ेगी, जो उसने आतंक का संरक्षण रोकने के लिए उठाने पड़ रहे हैं। इस हिसाब से भारत को सक्रिय होना पड़ेगा ताकि पाकिस्तान ऐसे कदम उठाए। उसे कूटनीतिक कदम उठाने पड़ेंगे और सही वर्गों से दबाव डलवाना पड़ेगा ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि पाकिस्तान के आतंक निरोधी उपायों में भारत केंद्रित जिहादी तत्व भी हों, जिन्हें फिलहाल वह अपनी रणनीतिक संपत्ति मानता है। चुनावों ने एक सकारात्मक स्थिति तैयार कर दी है - भारत केंद्रित जिहादी समूह राजनीतिक हाशिये पर चले गए हैं। अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक पार्टी के ऊपर सवार हाफिज सईद और उसकी मिल्ली मुस्लिम लीग को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। क्या इसका फायदा उठाया जा सकता है या उससे भी अहम बात यह है कि क्या पाकिस्तान में सत्ता की डोरी संभालने वाली ताकतें इन संपत्तियों को कम से कम कुछ समय के लिए किनारे कर सकती हैं। इन तत्वों के ऊपर नियंत्रण से जिहादी हिंसा से मुक्त वातावरण तैयार हो सकता है और भारत को निशाना बनाने के बड़े प्रयास भी बंद हो सकते हैं।
इन परिस्थितियों के बीच चौथी बात चीन की भूमिका है। कई वर्षों तक भारत के साथ मिले-जुले विवाद का रास्ता अपनाने का पाकिस्तान का दुस्साहस भरा नजरिया चीन के समर्थन का ही नतीजा है। उस समय यह चीन के भी अनुकूल था। लेकिन 2017-18 भारत-चीन संबंधों के लिहाज से घटनाओं से भरा रहा और उतार-चढ़ाव भी आए। वुहान, सोची और चिंगदाओ के बाद रिश्ते बदल रहे हैं और चीन को लग सकता है कि भारत तथा पाकिस्तान के बेहतर रिश्ते उसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक हितकारी होंगे। ऐसी परिस्थितियों में चीन की पहल बेहतर भारत-पाक संबंधों के लिए माहौल तैयार करने में काफी मददगार हो सकती है।
भारत के लिए बुनियादी जरूरत यह है कि इमरान खान का पाकिस्तान ऐसे कदम उठाए, जिनसे पाकिस्तान में भारत विरोधी जिहादी संगठनों पर नकेल कस जाए। राजनयिक वातावरण में सार्थक बयानों के साथ ऐसे उपाय होने चाहिए, जिनके प्रमाण मिल सकें। नियंत्रण रेखा पर लंबे समय तक शांति बने रहने से ऐसी किसी भी प्रक्रिया को जारी रखने में मदद मिलेगी।
(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)
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