संयुक्त समग्र कार्य योजना (जेसीपीओए) के तहत गठित संयुक्त आयोग की बैठक 6 जुलाई को वियना में हुई। संयुक्त आयोग का गठन ईरान परमाणु समझौते के क्रियान्वयन के कारण होने वाले विवादों को सुलझाने की व्यवस्था के तौर पर किया गया था। अमेरिका के जेसीपीओए से बाहर निकलने के राष्ट्रपति ट्रंप के 9 मई के ऐलान के बाद इस प्रकार की यह पहली बैठक थी, जो ईरान के अनुरोध पर बुलाई गर्ठ थी। ब्रिटेन के अलावा अन्य सभी देशों - फ्रांस, जर्मनी, रूस, चीन और ईरान ने अपने विदेश मंत्रियों के जरिये उपस्थिति दर्ज कराई। ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व मध्य पूर्व के लिए मंत्री एलिस्टेयर बर्ट ने किया था। संयुक्त आयोग की अध्यक्षता यूरोपीय संघ (ईयू) के उच्च प्रतिनिधि फेडरिका मोगेरिनी ने की थी।
बैठक तब संपन्न हुई, जब सभी प्रतिभागियों ने “परमाणु समझौते के संपूर्ण एवं प्रभावी क्रियान्वयन के लिए अपनी प्रतिबद्धता” पुनः जता दी। संयुक्त बयान में कहा गया कि “ईरान द्वारा परमाणु संबंधी अपने वायदों का क्रियान्वयन किए जाने के बदले प्रतिबंध की समाप्ति और उसके कारण होने वाले आर्थिक फायदे जेसीपीओए के आवश्यक अंग हैं।” ईरान के प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम अथवा क्षेत्रीय स्थिति का इसमें कोई जिक्र नहीं था और राष्ट्रपति ट्रंप ने उसी को परमाणु समझौते से बाहर निकलने का आधार बताया। संयुक्त बयान में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की 24 मई को आई उस 11वीं रिपोर्ट का स्वागत किया गया, जिसमें कहा गया था कि ईरान परमाणु संबंधी अपने वायदों को पूरा कर रहा है।
सभी पक्षों ने जिस परमाणु समझौते का पुनः समर्थन किया, उसे बरकरार रखने के लिए कुछ अहम बातें जरूरी हैं - ईरान का तेल एवं गैस निर्यात, नौवहन, बीमा, निर्यात ऋण सुविधा जारी रहना और कंपनियों को देश से बाहर अमेरिकी प्रतिबंधों से सुरक्षित रखना। प्रतिभागी देशों ने इन “उद्देश्यों” के प्रति अपनी प्रतिबद्धता “प्रदर्शित” की। लेकिन असली मुद्दा क्रियान्वयन का है। ईरान के विदेश मंत्री जरीफ ने बैठक के बाद कहा कि इन उपायों को अमेरिकी प्रतिबंध आरंभ होने से पहले ही लागू करना होगा। फिलहाल यह मुश्किल लग रहा है।
वियना बैठक लंबी-चौड़ी बयानबाजी के बीच हुई। सोमवार को राष्ट्रपति रूहानी ने कहा कि यह मान लेना ‘नासमझी’ है कि ‘किसी दिन सभी तेल उत्पादक देश अपने अतिरिक्त तेल का निर्यात करेंगे और ईरान इकलौता देश होगा, जो अपना तेल निर्यात नहीं कर पाएगा।’ उन्होंने कहा कि “कर सकें तो ऐसा कीजिए और फिर नतीजे देखिए।” राष्ट्रपति रूहानी का बयान के बाद ईरान रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी) के प्रमुख मेजर जनरल मुहम्मद अली जाफरी ने कहा, “हमें उम्मीद है कि जरूरत पड़ने पर हमारे राष्ट्रपति द्वारा बताई गई योजना लागू की जाएगी... हम दुश्मन को बता देंगे कि या तो सभी तंगेह-ए-होरमुज (होरमुज जलडमरूमध्य) का इस्तेमाल करेंगे या कोई भी नहीं कर पाएगा।”
ईरान परमाणु समझौते में क्षेत्रीय मामलों को शामिल नहीं किया गया है। उन्हें लाया जाता तो भू-राजनीति सामने आ जाती। दोनों ने ही तेल की कीमतों को प्रभावित किया है। वियना बैठक की पूर्वसंध्या पर 5 जुलाई को ओपेक की तेल बास्केट 75.21 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी। जुलाई, 2017 की कीमतों के मुकाबले इसमें बहुत अधिक इजाफा हुआ है। उस समय बास्केट 46.93 डॉलर प्रति बैरल थी अर्थात् साल भर में 60.25 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। वेनेजुएला तथा लीबिया द्वारा आपूर्ति में बाधा पड़ने से तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्य भी प्रभावित हुए। ईरान परमाणु समझौते से किनारा करने के अमेरिका के फैसले से यह सिलसिला और तेज हुआ। राष्ट्रपति ट्रंप की 9 मई की घोषणा से पहले ही बाजारों में कीमतें बढ़ चुकी थीं। तेल मूल्य 1 मई को 70.59 डॉलर थे, जो 9 मई को 73.97 डॉलर तक पहुंच चुके थे और अगले दिन 74.46 डॉलर हो गए।
ओपेक के तेल मंत्रियों की 22 जून की बैठक बाजार को दिलासा देने में असफल रही। उसमें उत्पादन की तय सीमा खत्म करने पर सहमति जताई गई। लेकिन इसमें नवंबर, 2016 के फैसले को पैमाना माना गया और उसके बाद से विश्व अर्थव्यवस्था तथा तेल मांग में हुए सुधार पर ध्यान नहीं दिया गया। कुल मिलाकर इससे तेल उत्पादन के वर्तमान स्तर में 6 लाख बैरल प्रतिदिन की वृद्धि हो गई। बाजार के अनुसार इस निर्णय में ईरान के तेल निर्यात को पूरी तरह बंद करना शामिल नहीं था। फिलहाल ईरान प्रतिदिन लगभग 39 लाख बैरल तेल का उत्पादन करता है और लगभग 22 लाख बैरल निर्यात करता है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने सऊदी अरब से उत्पादन में 20 लाख बैरल प्रतिदिन का इजाफा करने के लिए कहा है। यह आंकड़ा ईरान के निर्यात स्तर के लगभग बराबर है। हो सकता है कि सऊदी की अतिरिक्त उत्पादन क्षमता इतनी ही नहीं हो। वहां इस समय रोजाना 105 लाख बैरल तेल उत्पादन हो रहा है। माना जाता है कि वह 110 लाख बैरल प्रतिदिन तक उत्पादन कर सकता है। इससे अधिक उत्पादन तकनीकी रूप से संभव तो हो सकता है, लेकिन उसे लंबे समय तक बरकरार रखना मुश्किल होगा। दूसरे खाड़ी देश भी उत्पादन में मामूली इजाफा ही कर सकते हैं।
अमेरिका में शेल गैस का उत्पादन बढ़ा है। लेकिन पाइपलाइन की क्षमता में ठहराव आ जाने के कारण उसे बाजार तक पहुंचाने में समस्या हैं। अमेरिकी बाजार में कीमतों का महत्वपूर्ण बेंचमार्क वेस्ट टैक्सस इंटरमीडिएट जून की शुरुआत में 65 डॉलर प्रति बैरल से कुछ ऊपर उठकर 8 जुलाई को 73.80 डॉलर तक पहुंच गया था। वास्तव में अमेरिका में यह मूल्य वृद्धि ओपेक बास्केट की कीमत में बढ़ोतरी से तेज है। इससे बड़ी समस्या का संकेत मिलता है। अगर गैस के विशाल संसाधनों वाले अमेरिकी बाजार में तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव पर नियंत्रण करना मुश्किल है तो कम संसाधनों वाले दूसरे देशों में तो इस पर काबू पाना और भी कठिन होगा।
इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका ईरान से तेल आयात को अचानक रोकने के बजाय दूसरे विकल्पों पर चर्चा के लिए तैयार हो सकता है। भारत-अमेरिका संबंध बहुत महत्वपूर्ण हैं। भारत को ईरान के साथ भी संबंध बनाए रखने हैं। पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस मसले पर सरकार के रुख को सटीक ढंग से सामने रखा। उन्होंने कहा, “राष्ट्रहित सबसे ऊपर है और हमारा निर्णय उसी के अनुरूप होगा।” ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का असर भारतीय बाजार पर निश्चित रूप से पड़ेगा। भारतीय तेल बास्केट का मूल्य पिछले 3 महीने में चढ़ गया है। अप्रैल में वह 69.30 डॉलर प्रति बैरल था, जो जून में 73.85 डॉलर प्रति बैरल हो गया। साल भर पहले जुलाई, 2017 में आंकड़ा 47.86 डॉलर प्रति बैरल था अर्थात् साल भर में इसमें 54.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। विकासशील देश होने के कारण भारत के पास तेल कीमतों में तेज वृद्धि को संभालने की क्षमता बहुत कम है, आपूर्ति चाहे कितनी भी बढ़ा ली जाए।
(लेखक ईरान में भारत के राजदूत थे और मिस्र, सऊदी अरब तथा लीबिया में रह चुके हैं।)
Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English) [3]
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