वैश्विक सैन्य खर्च पर स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट सिपरी द्वारा 2 मई को प्रकाशित हालिया रिपोर्ट में भारत को 2017 में दुनिया में रक्षा पर पांचवां सबसे अधिक खर्च करने वाला देश बताया गया है। सिपरी का कहना है कि “एशिया एवं ओशनिया तथा मध्य एशिया के देशों जैसे चीन, भारत और सऊदी अरब द्वारा खर्च में अच्छी खासी बढ़ोतरी” के कारण हाल के वर्षों में वैश्विक सैन्य खर्च बढ़ा है। एशिया के तीन देश शीर्ष पांच की सूची में शामिल हैं, जिनमें अमेरिका स्वाभाविक रूप से सबसे आगे है और रूस भी है।
अमेरिका, चीन, रूस और भारत का नाम आना आश्चर्य की बात नहीं है और इससे आज की भू-राजनीति में राजनीतिक तथा आर्थिक दर्जे की हकीकत पता चलती है। हालांकि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है, लेकिन शांति तथा स्थायित्व में वह अहम हितधारक है, जो पिछले कुछ वर्षों में संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षा में उसके योगदान तथा क्षेत्रीय “सुरक्षा प्रदाता” के तौर पर उसकी भूमिका से साबित होती है।
भारी भरकम सैन्य खर्च वाले देशों को तीन मुख्य समूहों में बांटा जा सकता है। पहले में अमेरिका और चीन हैं, जिनके बजट हर साल सैकड़ों अरब डॉलर में होते हैं। दूसरे में भारत, रूस, सऊदी अरब, जापान, फ्रांस, जर्मनी और दक्षिण कोरिया जैसे देश हैं, जो 40 अरब डॉलर से 60 अरब डॉलर खर्च करते हैं। तीसरे समूह में इटली, ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील जैसी ताकतें हैं, जिनके बजट 30 अरब डॉलर तक ही सीमित रहते हैं। ऐसी स्थिति में 20171 के लिए भारत के 63.9 अरब डॉलर के अनुमानित रक्षा व्यय की समीक्षा की जा सकती है क्योंकि ‘पांचवें सर्वाधिक खर्च करने वाले’ का दर्जा सही तस्वीर पेश नहीं करता।
सशस्त्र सेनाओं पर किसी भी राष्ट्र का खर्च राष्ट्रीय आकांक्षाओं, खतरे की अनुभूति और खर्च करने की क्षमता से तय होता है। यथास्थिति वाली ताकत के तौर पर भारत की आकांक्षाएं सैन्य शक्ति के बजाय अन्य तरीकों से सभी को अपने साथ लाकर वैश्विक शांति एवं सौहार्द निर्मित करने तक सीमित हैं। इसलिए भारत का रक्षा खर्च बुनियादी तौर पर बाद वाले दो कारकों से तय होता है - खतरे की अनुभूति और खर्च करने की क्षमता।
देश के सामने मौजूद खतरों की बात करें तो यह इस बात को सभी स्वीकार करते हैं कि भारत के सामने वह स्थिति, जिसे उसका सैन्य नेतृत्व कई बार “दो मोर्चे” का नाम दे चुका है। इसमें उसे उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं पर क्रमशः चीन और पाकिस्तान की शत्रुता का एक साथ मुकाबला करना पड़ रहा है। दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश भी हैं। इसे ढाई मोर्चा कहना ज्यादा सही होगा, जिसमें “आधा मोर्चा” आतंकवाद एवं उग्रवाद की चुनौती है।
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को आधुनिक बनाने में चीन का बढ़ता निवेश 2017 में रक्षा के लिए 228 अरब डॉलर के आवंटन में झलकता है, जिसका एक कारण वैश्विक नेता बनने की आकांक्षा है, जिसका खुलासा अक्टूबर, 2017 में कम्युनिस्ट पार्टी के 19वें अधिवेशन के दौरान कई बयानों में हुआ था। सिपरी के अनुसार इसी महत्वाकांक्षा के कारण चीन का रक्षा बजट 2017 में 12 प्रतिशत बढ़ा, जबकि भारत का बजट केवल 5.5 प्रतिशत बढ़ा था।
खतरे में मंशा और क्षमता शामिल होती है। मंशा रातोरात बदल सकती है, लेकिन सैन्य क्षमता हासिल करने में कई दशक लग जाते हैं। इसलिए सेना में अच्छा खासा निवेश करना भारत के लिए आवश्यक है। वहन करने की क्षमता के मामले में भारत के सामने बंदूक बनाम रोटी वाला विकासशील देशों का शाश्वत असमंजस बना रहता है। मानव विकास की स्थिति को देखते हुए भारतीय नेतृत्व ने हमेशा विकास को सैन्य खर्च के ऊपर तरजीह दी है। इसलिए आम तौर पर सब्सिडी ही भारत में सरकारी बजट का सबसे महत्वपूर्ण मद होता है। परिणामस्वरूप भारत में सामरिक समुदाय रक्षा क्षमता एवं क्षमता निर्माण के लिए संसाधनों की किल्लत की शिकायत करता आया है। शिकायत इतनी है कि रक्षा पर संसद की स्थायी समिति सेना को पर्याप्त बजट संसाधन मुहैया नहीं कराने के लिए वित्त मंत्रालय की और सशस्त्र बलों की मांगें पूरी कराने में नाकाम रहने के लिए रक्षा मंत्रालय की कई बार खिंचाई कर चुकी है।
आंकड़ों के तुलनात्मक विश्लेषण से भी भारत द्वारा रक्षा पर कम खर्च की बात पता चलती है और अनुमान है कि 2018-192 में जीडीपी का 1.58 प्रतिशत ही खर्च होगा। 2017 के लिए सिपरी का वैश्विक औसत 2.2 प्रतिशत है। इससे लगता है कि दुनिया भर में सेनाओं पर जितना बजट व्यय हो रहा है, भारत में उससे 29 प्रतिशत कम खर्च हुआ है। यदि सरकार के संपूर्ण खर्च में से सैन्य खर्च का प्रतिशत निकालें तो भी 2017-18 में भारत ने 12.20 प्रतिशत के साथ मामूली खर्च ही किया है। उपरोक्त तथ्यों से पता चलता है कि सिपरी की वार्षिक वैश्विक व्यय समीक्षा में पांचवां सबसे अधिक सैन्य खर्च करार दिए जाने का अर्थ यह नहीं है कि भारत रक्षा पर रकम बहा रहा है बल्कि उसका आवंटन काफी कम है।
भारतीय रक्षा बजट की एक आलोचना कार्मिकों और पूंजी अधिग्रहण के बीच असंतुलित आवंटन को लेकर होती है। आधे मोर्चे यानी आतंकवाद एवं उग्रवाद की चुनौती से निपटने के लिए बड़ी तादाद में जवानों की आवश्यकता है। इसके साथ ही उत्तर में लंबा-चौड़ा पर्वतीय क्षेत्र है। यह जानी-मानी और स्वयंसिद्ध बात है कि पहाड़ जवानों को खत्म कर देते हैं। इसीलिए जवानों की संख्या में कमी करना यथार्थ से मुंह मोड़ना होगा। किंतु रक्षा पर खर्च करने में निपुणता की बहुत अधिक कमी है और इसके लिए वित्तीय योजना तैयार करने, रक्षा खरीद और बजट प्रबंधन में बुनियादी काम कर ध्यान देने की जरूरत है।
जहां तक खतरों से निपटने की बात है तो बुद्धिमान भारतीय मनीषी कौटिल्य ने 321 ईसा पूर्व में शक्ति के घटकों पर चर्चा करते हुए ‘सैन्य शक्ति’ को तीन गुणों में से एक बताया है। अन्य गुण हैं - ‘मंत्रणा और सही न्याय’ तथा ‘उत्साह एवं ऊर्जा’। सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए भारत राष्ट्रीय नेतृत्व के निर्णय तथा अपने सैन्य बलों की ताकत पर विश्वास करता दिख रहा है और अपनी सेना पर बहुत कम खर्च कर रहा है।
संदर्भ
1. सिपरी का रक्षा व्यय कैलेंडर वर्ष पर आधारित होता है, जबकि भारत का बजट वर्ष अप्रैल से मार्च तक होता है।
2. अनुमान सशस्त्र बलों के बजट पर होने वाले व्यय पर आधारित हैं। देखें रजत पंडित। Budget 2018: Govt hikes defence budget by 7.81%, but it's just 1.58% of GDP & lowest since 1962. https://timesofindia.indiatimes.com/india/budget-2018-govt-hikes-defence [3]...
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2018/june/11/sipri-ne-bharat-ko-bataya-raksha-par-pachva-servadhik-kharch-karne-wala-desh
[2] https://www.vifindia.org/author/brig-retd-rahul-bhonsle
[3] https://timesofindia.indiatimes.com/india/budget-2018-govt-hikes-defence
[4] http://www.vifindia.org/2018/may/14/india-s-fifth-largest-military-spending-rank-by-sipri-a-reality-check
[5] https://www.bing.com/images/search?view=detailV2&ccid=C%2bJtgtAu&id=81DA
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