फ़रवरी 2018 में तुर्कमेनिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान , पाकिस्तान और भारत के शीर्ष नेतृत्व ने 1700 किमी की तुर्कमेनिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान -पाकिस्तान-भारत (तापी) पाइपलाइन का उद्घाटन किया. हेरात और सेरहेताबाद में हुए कार्यक्रमों के दौरान सभी नेताओं ने यह उम्मीद जताई कि पुराने झगड़ों से निबटते हुए अब आगे बढकर आपसी व्यापार और आर्थिक लाभ पर गौर किया जायेगा.
तापी पाइपलाइन काफ़ी लम्बे समय से कार्यरत थी. 2013 में गैस की बिक्री और खरीद से सम्बंधित एक समझौता किया गया था जिसके तहत तुर्कमेनिस्तान सीमा पर गैस के दाम ब्रेंट क्रूड से 20 प्रतिशत कम कीमत पर तय किये गये थे. 2015 में चारों देशों के नेताओं ने इस परिवर्तनात्मक परियोजना की नीव डाली. इस समझौते के अनुसार, तुर्कमेनिस्तान 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के माध्यम से अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत ओ 3.2 बिलियन क्यूबिक फ़ीट गैस प्रतिदिन उपलब्ध करवाएगा. इसमें से 15 बिलियन डॉलर गैस फील्ड का विकास करने के लिए उपयोग में लाया जायेगा तो वहीँ 10 बिलियन डॉलर का प्रयोग अफ़ग़ानिस्तान ,पाकिस्तान और भारत में पाइपलाइन बिछाने के लिए किया जायेगा. तुर्कमेनिस्तान पाइपलाइन बिछाने में आई लागत का 85 प्रतिशत खुद व्यय करेगा और बाकि व्यय 15 प्रतिशत भारत, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान बराबर रूप से यानी 5-5 प्रतिशत व्यय करेंगे. अपनी 85 प्रतिशत हिस्सेदारी में तुर्कमेनिस्तान 51 प्रतिशत का योगदान देगा और शेष 34 प्रतिशत की व्यवस्था अन्य निवेशकों के माध्यम से की जाएगी.
पाइपलाइन, जिसके 30 साल तक चलने की सम्भावना है, ने तुर्कमेनिस्तान के गालकिनइश गैस फील्ड से 33 बीसीएम गैस वार्षिक क्षमता दर्ज करवाई है. अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत द्वारा गैस प्राप्ति की प्रतिशत 1.5 प्रतिशत, 49.25 प्रतिशत और 49.5 प्रतिशत क्रमशः है. 1990 के दौरान अमेरिका ने तापी पाइपलाइन के निर्माण हेतु अमेरिकी कंपनी यूनोकल की मदद प्रस्तावित की थी. तत्कालीन अमेरिकी सह-सचिव रोबिन राफेल, जो उस वक़्त तालिबान के प्रचण्ड पक्षधर थे और दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान को नियंत्रित करते थे, ने इस पाइपलाइन की सुरक्षा को लेकर पूरा सहयोग दिया था. मगर जब तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया और मानवाधिकार से जुड़े गंभीर अपराधों को अंजाम देने लगा अमेरिका को अपने हाथ इस परियोजना से पीछे खींचने पड़े.
सोवियत संघ के टूटने के पश्चात्, पाकिस्तान को मध्य एशिया में रणनैतिक अवसर प्राप्त हुआ. इसका फायदा उठाने वालों में बेनज़ीर भुट्टो की दोनों सरकारों में आंतरिक सुरक्षा सलाहकार/गृह मंत्री रहे मेजर जनरल नसीरुल्लाह बाबर सबसे पहले थे. एक साक्षात्कार में उन्होंने यह स्वीकार कि मध्य-एशियाई देशों को विशेष रूप से गैस और तेल के लिए एक एशियाई आउटलेट की आवश्यकता है. “पाकिस्तान की भू-आर्थिक महत्वता, पश्चिमी, दक्षिणी और मध्य एशिया में समाहित उसकी भौगौलिक स्थिति से है”, उन्होंने कहा.
निश्चित रूप से, पाकिस्तान की भौगौलिक स्थिति ने उसे मध्य-एशियाई देशों की अन्य ऊर्जा से भरपूर अर्थव्यवस्थाओं के बीच फायदा पहुँचाया है, और अन्य बढती अर्थव्यवस्थाओं जो ऊर्जा की कमी से जूझ रहीं है, जैसे भारत और चीन से रणनैतिक रूप में उसे बेहतर स्थिति में रखा है. मगर इस स्थिति में भी पाकिस्तान के लिए अफ़ग़ानिस्तान परेशानी का सबब है. दिक्कत यह है कि यदि अफ़ग़ानिस्तान इस पाइपलाइन के समझौते में शामिल नही हुआ तो पाकिस्तान का यह सपना अधूरा रह जायेगा. भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से तर्कसंगत यह है कि पाकिस्तान आने से पूर्व तापी पाइपलाइन का रास्ता अफ़ग़ानिस्तान में पड़ेगा और पाकिस्तान के बाद भारत में यह पाइपलाइन आएगी.
इस पाइपलाइन से आर्थिक फायदे काफ़ी ज्यादा है. मोटी पारवहन फ़ीस के अलावा भी पाकिस्तान को इस पाइपलाइन परियोजना की आवश्यकता इसलिए है क्योंकी ईरान-पाकिस्तान पाइपलाइन अब ठप्प पड़ चुकी है. साथ ही, ईरान ने हाल ही में पाकिस्तान को 2009 के गैस ख़रीद-बिक्री के समझौते के तहत तय मात्रा में गैस न ख़रीदने के आरोप में जुर्माने के रूप में 1.2 बिलियन डॉलर का बिल थमा दिया. इसके अलावा गैस की तंगी के चलते पाकिस्तान को महँगे दामों पर लिक्विफाईड प्राकर्तिक गैस (एलएनजी) आयात करनी पड़ी. एलएनजी के इस पूरे मसले पर ही भ्रष्टाचार हो गया जिसमें प्रधानमंत्री अब्बासी पर भी आरोप लग रहें है.
इस पाइपलाइन के आर्थिक फ़ायदे तो साफ़ है मगर अब हम इसके राजनैतिक फायदों की भी चर्चा करते है. अब तक राजनीती भी आर्थिक दिलचस्पियों पर हावी थी. पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान ने अपनी आर्थिक प्रगति पर कम और हिंदुस्तान की आर्थिक प्रगति पर प्रहार करने का कार्य ज्यादा गंभीरता से लिया है. इसके लिए उसने ऊर्जा क्षेत्र को ही चुना-जिसके भारत में बेहतरीन आसार है. इसलिए इस परियोजना में भारत को शामिल करने के प्रति वह मुखर रूप से विरोध में था. मगर चूँकि भारत के वृहत बाज़ार के बिना पाइपलाइन परियोजना आर्थिक रूप से मंद हो सकती है, इसलिए पाकिस्तान को मजबूरन भारत का इस परियोजना में भागीदार होना स्वीकारना पड़ा.
पाइपलाइन से जुडी कई समस्याएं है- जिनमें सबसे प्रमुख उसकी सुरक्षा है. यह पाइपलाइन अफ़ग़ानिस्तान के हेरात, फराह, निमरूज़,हेलमंद और कंधार प्रान्तों से होकर गुजरेगी. इन सबमें ही तालिबानी घुसपैठ प्रबल रही है. 2001 से 2014 के बीच भी जब हजारों अमेरिकी और नाटो सैनिक इन प्रान्तों में थे, सुरक्षा की स्थिति कुछ अधिक बेहतर नही थी बल्कि बद से बद्तर ही हुई है. इसमें भी कोई संशय नही की बिना शांति सुनिश्चित किये न तो तापी पाइपलाइन का कोई फायदा है और न ही कोई निवेशक इस 10 बिलियन डॉलर की परियोजना में निवेश करने में दिलचस्पी लेगा.
इसलिए यह काफ़ी सुकून की बात है की तालिबान ने इस परियोजना का सहयोग किया है. तालिबान के प्रवक्ता, ज़बीहुल्लाह मुजाहिद ने फ़रवरी में एक टिप्पणी की थी जो उद्घाटन समारोह की तिथि के आसपास ही की गयी थी जिसमें उन्होंने कहा, “ हम तापी परियोजना के विरुद्ध नही है, बल्कि इसके पक्ष में है और हम इस परियोजना के लिए आवश्यक सुरक्षा उपलब्ध करवाने के लिए भी तैयार है”. उन्होंने यह भी कहा की तालिबानी साम्राज्य के दौरान अफ़ग़ानिस्तान में पाइपलाइन निर्माणाधीन थी. एक अन्य तालिबानी विभाजित गुट जिसका नेतृत्व मुल्ला मुहम्मद रसूल ने भी यह भरोसा दिलाया की वे इस परियोजना का सहयोग करेंगे और विदेशी अथवा समूहों द्वारा इस परियोजना में व्यवधान उत्पन्न करने से रोकेंगे.
अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने अपनी तरफ़ से सुरक्षा का प्रबंध करने के अलावा आम लोगों से भी इस परियोजना में सहयोग देने की गुहार लगायी. 2017 में जब सरकार ने जन-जागरण अभियान और संगोष्ठियों का आयोजन किया था, लोगों को यह समझाने के लिए कि इस पाइपलाइन परियोजना से कितने फ़ायदे लोगों को मिलेंगे, उसके बाद देश में एक सकारात्मक माहौल बना था और निवासियों ने पाइपलाइन के निर्माण और अन्य कार्य को लेकर सहयोग प्रदान किया था. इससे जाहिर तौर पर इस परियोजना को सफल बनाने में मदद मिलेगी.
राशिद के अनुसार, हाल ही में राष्ट्रपति घानी द्वारा दिया गया शांति-प्रस्ताव पिछले दस साल में अब तक का सबसे ‘खुला और संक्षिप्त शांति समझौता’ है जिसे किसी अफगानी सरकार ने प्रस्तुत किया है. लेकिन सवाल यही है ‘क्या यह काम करेगा?’ इसमें एक सवाल अमेरिकी सेना की वापसी पर भी है. बिना यह जाने की अमेरिकी कितने समय तक अफ़ग़ानिस्तान में रहने वाले है, तालिबानी शायद ही शांति समझौते पर मुहर लगायेंगे. अमेरिका के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि वे अफगानी सरकार की सुरक्षा का प्रबंध करके ही वहाँ से जाए. शायद तालिबानी भी यह जानते है कि बिना किसी ठोस शांति समझौते की अमेरिका पीछे हटने वाला नही है. इसलिए अमेरिका और तालिबान के बीच शांतिवार्ता और अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है. मुमकिन है कि इससे दोनों एक ही पक्ष पर रजामंदी बना सके, हालाँकि इसमें कई जोख़िम भी है.
अमेरिका हमेशा से ही तापी पाइपलाइन के पक्ष में रहा है. अन्य कारणों के अलावा उसे यह ईरान-पाकिस्तान पाइपलाइन के विकल्प के तौर पर नज़र आता है. इससे वह रूस के हस्तक्षेप के बिना दक्षिणी एशियाई तक पहुँच बना सकता है, जिससे इनकी आर्थिक निर्भरता रूस पर कम हो सकेगी. हालाँकि जानेमाने अफगानी मामलों के जानकार, अहमद राशिद ने मार्च 2018 को डेली टाइम्स को दिए गये अपने साक्षात्कार में यह गौर किया है कि स्थिति अब भी गंभीर है. यदि तालिबानी साथ आ भी जाते है, तो अल-क़ायदा, पाकिस्तानी तालिबान, इस्लामिक स्टेट और बलूच अलगाववादियों का क्या होगा? अगर वे समझौते का हिस्सा नही बने तो बाधा जरुर बन सकते है.
सुरक्षा के अलावा, पाइपलाइन परियोजना की सफलता में एक अन्य महत्वपूर्ण कारक पाकिस्तान है. 1980 से ही पाकिस्तान ने खुद को अफ़ग़ानिस्तान के संरक्षक के रूप में दिखाने का प्रयास किया है और उसके विकास में भी लगातार दखलंदाजी की है. पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान में रणनैतिक दिलचस्पी इस बात में भी है कि किस प्रकार भारत के प्रभाव को ख़त्म न सही पर कम जरुर किया जा सके. साथ ही वह यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा की दूरंद लाइन को लेकर अफ़ग़ानिस्तान कोई विवादित सवाल खड़े न करे. इस तरह से अफ़ग़ानिस्तान में कमजोर सरकार और अस्थिरता, पाकिस्तान के निजी हितों के लिए और बेहतर साबित हो सकता है. विरोध प्रदर्शन के बावजूद पाकिस्तान यही मंशा रखता है कि वह किस प्रकार अपनी टुकड़ियाँ काबुल में स्थापित कर सके. तालिबान के साथ अपनी गहरी मित्रता के चलते यह भी संभव है कि पाकिस्तान किसी भी तरह की शांतिवार्ता में बाधा पैदा करने का प्रयास करे.
इस कारण से वित्तीय क्रिया कार्य बल (एफएटीएफ़) की ‘निगरानी सूचि’ में होने से सहायता प्राप्त होती है. यदि पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान की शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में बाधा पैदा करता है तो उसे दण्डविराम दिया जा सकता है. आतंकवाद के मुद्दे पर अपने करीबी मित्र, चीन और सऊदी अरब का सहयोग खोने के बाद भी यह प्रश्न अभी बना हुआ है कि क्या पाकिस्तान अफगानी शांतिवार्ता को एक अवसर के रूप में देखता है या नही? अगर नही देखता, तो ऐसा मुमकिन है कि पाकिस्तान को उत्तरी कोरिया और ईरान की तरह एफ़एटीएफ़ की ब्लैकलिस्ट सूचि में शुमार कर दिया जाए. हर अंतरराष्ट्रीय संगठन अब खुललर आतंकवाद के विरूद्ध सामने आ रहें है. ऐसे में पाकिस्तान के पास बेहद कम विकल्प है. क्या इन परिस्थितियों में भी पाकिस्तान, आतंक को पोषित करने की अपनी नीति पर कायम रहेगा?
अतः तापी पाइपलाइन की सफलता अभी संतुलन स्थापित करने से भी संभव है. पाकिस्तान को राष्ट्रीय हित में एक गंभीर और बड़ा निर्णय लेना होगा-जिसके तहत क्या आर्थिक फायदों पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा अथवा सुरक्षा-सम्बंधित मानसिकता ही इनकी नीतियों पर हावी रहेगी?
(तिलक देवाशेर भारत सरकार के कैबिनेट सचिवालय में पूर्व-विशेष सचिव हैं)
(ये लेखक के निजी विचार हैं और वीआईएफ का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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[2] https://www.vifindia.org/author/tilak-devasher
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