हाल ही में मिज़ोरम सरकार ने म्यांमार में शरणार्थियों की समस्या को लेकर चेतावनी जारी की है। पिछले साल के अंत तक राज्य सरकार यहाँ की स्थिति को लेकर काफ़ी निश्चिन्त थी। उनका मानना था की रखाईन इलाके के रोहिंग्या इस ओर रुख़ नही करेंगे। राज्य सरकार ने बौद्ध शरणार्थियों द्वारा म्यांमार से मिज़ोरम की ओर प्रस्थान करनी की आशंका को लेकर किसी तरह की चिंता अथवा डर भी व्यक्त नही किया था।
मगर नवम्बर 2017 के अंत में मिज़ोरम सरकार ने भारत सरकार को चेतावनी दी, जब हज़ार से अधिक म्यांमारी शरणार्थी लावन्ग्त्लाई जिले में घुस आए। भारत-म्यांमार सीमा पर तैनात केन्द्रीय पैरा-मिलिट्री सेना, असम राइफल्स, ने इसके पश्चात् अपनी आठ टुकड़ियाँ भी इस क्षेत्र में तैनात कर दी है। इसके बावजूद पश्चिमी म्यांमार के अराकन और रखाईन के पास में स्थित चिन राज्य से 1300 बौद्ध-नागरिकता वाले शरणार्थियोंने म्यांमार में सेंध लगा ली है। ताजा पधारे शरणार्थी अस्थायी तौर पर लॉनगतलाई जिले के लैत्लांग, दुम्जौत्लंग, ह्मावंगबुच्चुआ और ज़ोचाछुः नामक चार गाँव में ठहरे हुए है।
म्यांमार से आने वाली जनसंख्या से यहाँ सामान्य तौर पर तनाव बना रहता है। इस तनाव की वजह भी जायज़ है। अधिकतर गांवों की जनसंख्याँ 200 से 400 प्रति व्यक्ति की है। शरणार्थी (जिन्हें आम जन ज़खाई और खुमीस) धार्मिक, भाषाई, सांस्कृतिक तौर पर वहां के निवासियों से भिन्न है और संख्यात्मक रूप से वहां के निवासियों को प्रभावित करने के प्रत्यनशील है। इसके अलावा रोजगार भी यहाँ एक चुनौती है। हालाँकि राज्य सरकार और स्थानीय गैर-सरकारी संगठन इन बौद्ध शरणार्थियों को मदद देने का कार्य कर रहें है, ये केवल एक स्थायी समाधान है।
रोहिंग्या के मसले पर पहले ही म्यांमार के पश्चिमी क्षेत्र समेत दक्षिणी इलाकों में जिसमें रखाइन भी शामिल है, तनावग्रस्त है। मगर इससे स्थानीय बौद्ध भी अछूते नही रहें है। इसलिए यकायक इन लोगों का भारत की रुख़ करना अपेक्षित नही था। इसका कारण शायद अराकन सेना का विद्रोही स्वाभाव हो सकता है, जो पहले ही राकेट से चलने वाले ग्रेनेड लांचर, मोर्टार और अन्य हथियारों के साथ रखाइन और अराकन के पहाड़ी क्षेत्र को अधिगृहित करने की मंशा से ग्रस्त है और इसलिए 2017 से ही म्यामांर सेना से युद्ध कर रही है। काचिन स्वतंत्रता सेना से सम्बंधित अराकन सेना अभी थ म्यांमार सेना के साथ सीजफायर समझौता कायम करने में विफल रही है। नय्पिदाव ने देश के उत्तरी व् पूर्वी आतंकवादी संगठनों के साथ समझौते स्थापित करने में अहम योगदान दिया है और अब यही इस विद्रोही सेना के साथ एकीकृत शांति की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में कार्यरत है। जो फ़िलहाल मुश्किलों से जूझ रहा है।
इन हालातों में गैर-मिज़ो लोगों के समूह को इस इलाके में पनाह देना केंद्र और राज्य सरकार के लिए समझदारी का कार्य होगा। कई मिज़ोरम सरकारें और सजातीय मिज़ो सिविक सोसाइटी ने भारत के संविधान के छठवें अनुसूची, जिसमें की गैर-मिज़ो जातियाँ दर्ज है, के द्वारा स्थापित किये कार्यपालिका, प्रशासनिक और वित्तीय ढांचे से छेड़छाड़ के विरुद्ध है। चक्मास, रेंग्स, ह्मर् और लाइस उन समुदायों में से है जो इस समस्या से पहले ही प्रभावित है। संवेदनशील मिज़ोरम जैसे इलाक़े में म्यांमारी बौद्धों के आ जाने से स्थति बिगड़ सकती है। इन हालातों में अराकन इलाके के म्यांमारी बौद्धों को लंबे समय के लिए दक्षिणी मिज़ोरम में बसाना वहाँ के निवासियों के बीच डर और नकारात्मकता का भाव पैदा कर सकता है। जिस तरह से रोहिंग्या शरणार्थियों को उनके देश वापस प्रत्यावर्तित किया गया उसी तरह के कदम यहाँ भी कूटनीति और राजनैतिक स्तर पर उठाये जा सकते है जिससे म्यांमारी बौद्धों के देश को छोड़ने के इस प्रचलन को पल्टा जा सके।
कई सरकारी महकमों में इस बात की नज़रिया भी है कि यह बौद्धों द्वारा मिज़ोरम की ओर प्रव्रजन की यह समस्या केवल क्षणिक है। पश्चिमी म्यांमार में तनावपूर्ण परिस्थतियों के चलते और लगातार यह स्थिति बने रहने, इन इलाकों में अलग-अलग समुदायों के लोगों के मिलने-जुलने और देश में शांति की स्थिति कायम होने में जितना वक़्त लग रहा है उसे देखते हुए यह कहना ठीक होगा, की यह नज़रिया ज्यादा सटीक नही है। इसलिए भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति से यही बेहतर है कि वह राजनैतिक-आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए उचित कदम उठाये और मिज़ोरम में समुदायों के बीच की स्थिति से निबटने के लिए भी संवेदनशील परन्तु आवश्यक कदम उठाए। यह खासतौर पर उन इलाकों के लिए जरूरी है जहाँ 510 किमी लम्बी सीमा म्यांमार के साथ है और साथ ही त्रिपुरा जैसे राज्य के भी निकट है जहाँ सांस्कृतिक-जातीय स्तर पर मिज़ो लोगों के परिवेश से भिन्नता पाईं जाती है। सीमा के बेहतर प्रबंध के लिए भी म्यांमार सेना और भारत की राष्ट्रीय राइफल्स को और बेहतर ढंग से निगरानी करने की जरूरत है।
भारत की ‘पूर्व देखो’ नीति और सहगामी आधारभूत संरचना के विकास, व्यापार-सम्बंधित योजनायें जो दक्षिणी एशिया में म्यांमार के जरिये स्थापित होने के लिए एक राजनैतिक रूप से स्थिर विकाशील क्षेत्र, जो म्यांमार के पश्चिमी इलाकें में फैले तनाव से सामाजिक-आर्थिक-सामुदायिक रूप से मुक्त हो, बेहद आवश्यक है।
पहले रखाईन क्षेत्र के रोहिंग्या द्वारा बांग्लादेश में प्रव्रजन और अब अराक-चिन इलाकों में बौद्धों द्वारा मिज़ोरम में प्रव्रजन की कोशिश और उनमें से कुछ का यहाँ बीएस जाना इस बात की पुष्टि करता है कि यह सब देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है। म्यांमार में स्थित सित्तवे बंदरगाह को बंगाल की खाड़ी से पलेत्वा में जोड़ना और देश के सबसे पश्चिमी जिले, ज़ोरिन्पुरी को मिज़ोरम से जोड़ना आदि कई बहु-उपयोगी परिवाहन परियोजनाओं के क्रियान्वन में रखाईन और अराकन जैसी स्थितियाँ बाधा बन सकती है।
उक्त सन्दर्भ में, भारत ऐसी कूटनीति अपना सकता है जिसके तहत वह म्यांमार पर बौद्ध शरणार्थियों की घर वापसी और नय्पिदाव को तेजी से व बेहतर ढंग से क्रियान्वित करने के लिए उसपर दवाब बना सके जिससे शरणार्थियों को भी लौटने के लिए एक सुरक्षित वातावरण मिल सके। इन बौद्ध शरणार्थियों को रोहिंग्या से जोड़ने की आवश्कता नही है और कोफ़ी अन्नान सलाहकार आयोग की सिफारिशों को मानाने के लिए अथवा रखाईन में सामंजस्य करने पर इस बातचीत को केन्द्रित करने की आवश्कता नही है।
हालाँकि रोहिंग्या और अराकन बौद्धों की समस्याएं कुछ स्तर पर आपस में जुडी हुई है, मगर बेहतर होगा की इन दोनों स्थितियों को अलग-अलग रखकर ही म्यांमार की सरकार से इस समस्या का हल निकालने को लेकर बातचीत की जाये। जल्द से जल्द इन समस्यायों के निबटारे को लेकर प्रयास शुरू किए जाने चाहिए और कूटनीति के स्तर पर आशियान देशों के समूह और बांग्लादेश को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। अराकन बौद्धों की स्थिति में भी देश-प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया पर बातचीत की जल्द-से-जल्द शुरुआत होती है तो यह संभव है की रखाईन में गैर-बौद्ध और रोहिंग्या की वापसी के दरवाज़े भी इस ओर से खुलने लगे।
मिज़ोरम में स्थिति को सुधारने के लिए, केंद्र सरकार बौद्ध शरणार्थियों के लिए सीधे तौर पर राहत और अस्थायी आवास की व्यवस्था की जिम्मेदारी ले सकती है। राज्य सरकार की भूमिका इसमें शरणार्थियों को सूचीबद्ध करने और उनके दस्तावेज तैयार करने, स्वास्थ सेवाओं की उपलब्धता और कुछ सामुदायिक सेवा जिसमें सुरक्षा आदि सम्मिलित है, की हो सकती है। इसका व्यय केंद्र सरकार उठा सकती है।
इस तरह की व्यवस्थाओं से राज्य की संपदा का विघटन भी नही होगा और राजनैतिक तौर पर मिज़ोरम की आंतरिक स्थिति में संवेदनशीलता को प्रकट करने का फायदा भी होगा। अब चुनाव ज्यादा दूर नही है ऐसे में बौद्ध प्रव्रतन का पूरा आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक जिम्मा नई दिल्ली पर डाल देने से स्थानीय स्तर पर इस मुद्दे दे कलह होने के कम से कम आसार रहेंगे।
(लेखक पूर्व-आईडीएएस अफसर है जिन्होंने भारत सरकार और उत्तर-पूर्वी राज्य सरकार में कई वरिष्ठ पदों पर कार्य किया है। ये लेखक के निजी विचार हैं और वीआईएफ का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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[2] https://www.vifindia.org/author/gautam-sen
[3] http://www.vifindia.org/article/2018/march/01/mizoram-contends-with-refugee-influx-from-myanmar
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