प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण गुजरात में नर्मदा नदी पर बना सरदार सरोवर बांध 17 सितंबर को राष्ट्र को समर्पित कर दिया। इससे लाखों परिवारों और हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि को जल देने वाली विशाल परियोजना ही पूरी नहीं हुई। यह क्षुद्र स्वार्थों के कारण पक्षपाती एजेंडा पर काम करने वाले तमाम व्यक्तियों और संगठनों द्वारा खड़ी की गई बाधाओं पर विकास की राजनीतिक की विजय भी थी। सितंबर के कार्यक्रम के साथ ही 1961 में देखा गया वह सपना भी पूरा हो गया, जो रास्ते में आने वाली अड़चनों से पार पाने की इच्छाशक्ति नहीं होने के कारण अधूरा रह गया था।
गुजरात सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार सरदार सरोवर परियोजना - जिसका नाम उन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर रखा गया था, जो इस परियोजना के पीछे प्रेरक शक्ति थे (उन्होंने देश की स्वतंत्रता से पहले ही इसका सपना देख लिया था) और जिनके संकल्प के कारण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसका शिलान्यास किया था - से 18 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि को सिंचाई की सुविधा मिलेगी और राज्य के लगभग 72 तालुकों में 3,000 से अधिक गांवों को जिससे लाभ होगा। इससे राजस्थान में 2.46 लाख हेक्टेयर भूमि और महाराष्ट्र में बड़े भूभाग की सिंचाई में भी मदद मिलेगी। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि इस परियोजना के कारण “चार करोड़ गुजरातियों को पीने का पानी मिल जाएगा।”
विभिन्न राज्यों को इससे मिलने वाले इतने अधिक फायदों को देखते हुए इसका विरोध हैरत में डालने वाला ही था। पारिस्थितिकी तथा जन विस्थापन आदि से जुड़े जो मुद्दे उठाए गए, वे प्रासंगिक थे किंतु जैसे-जैसे काम आगे बढ़ता गया, उन्हें सुलझा लिया गया। अधिकतर निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के सामने यह स्पष्ट हो गया कि आलोचक केवल इसलिए अड़े हैं क्योंकि अलग-अलग कारणों से उन्होंने यह परियोजना पूरी नहीं होने देने की ठान ली है। राजनीतिक जगत के भीतर और बाहर के शक्तिशाली हितधारकों के समर्थन वाले सामाजिक कार्यकर्ता मौके पर पहुंच गए और उन्होंने एक तरह से घेराबंदी ही कर ली, जिससे सरदार सरोवर बांध के काम में देर हो गई। आरंभ में परियोजना की लागत 6,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया था, जो बाद में बढ़कर 50,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। और इससे निर्माण की लागत ही नहीं बढ़ी बल्कि इसके कारण गुजरे दशकों के दौरान हजारों हेक्टेयर जमीन की ठीक से सिंचाई नहीं हो सकी और लाखों घरों को पानी नहीं मिल पाया, जो उन्हें नर्मदा नदी से मिलता। हालांकि पहले दो दशक संबंधित राज्यों द्वारा विभिन्न अध्ययन कराए जाने में ही गुजर गए, जिनके बाद योजना आयोग ने इस पर मुहर लगाई। आरंभिक अध्ययन रिपोर्टों में जल के प्रयोग का जो खाका खींचा गया, उसका महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश ने जमकर विरोध किया। साझा सहमति नहीं बन पाने के कारण 1969 में नर्मदा जल विवाद पंचाट का गठन करना पड़ा। मामले का गहन अध्ययन कर रहे पंचाट ने दस वर्ष बाद यह समाधान दियाः लगभग 35 अरब घन मीटर उपलब्ध पानी में से मध्य प्रदेश को 65 प्रतिशत, गुजरात को 32 प्रतिशत और महाराष्ट्र तथा राजस्थान को 3-3 प्रतिशत हिस्सा मिलेगा। उस समय ऐसा लगा कि विवाद निपट गया है और परियोजना पूरी तेजी से आगे बढ़ेगी। लेकिन उसके बाद तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे निशाना बनाना शुरू कर दिया, जो ख्याति (और धन?) की चाह में उसी तरह चले आए थे, जैसे पतंगा लौ के पास पहुंच जाता है।
इसे खारिज करने वालों में प्रमुख कार्यकर्ता मेधा पाटकर थीं। विभिन्न क्षेत्रों - राजनीति, साहित्य और सिनेमा भी - से अपनी ही तरह सोचने वाले विघ्नकारियों की मदद से उन्होंने जो संसाधन जुटाए थे, उन्हें देखकर उनकी ताकत को कम नहीं आंका जा सकता। उनके साथ मिलकर पाटकर ने सरदार सरोवर बांध परियोजना को रद्द कराने का आंदोलन छेड़ दिया। उनके कारण अलग-अलग थे और उन्होंने बेहद सावधानी के साथ उन सब पर जनता और पर्यावरण की भलाई के मकसद का मुलम्मा चढ़ा दिया; उन्होंने दावा किया कि इसके काण हजारों लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा और राज्यों के पास विस्थापितों के लिए उचित राहत एवं पुनर्वास योजना नहीं है। लेकिन उन्हें पता था कि इस मामले में कोई उम्मीद ही नहीं है क्योंकि इसमें शामिल राज्य आगे बढ़ने की ठान चुके थे और उनके दुष्प्रचार की परवाह नहीं करने वाली आम जनता को पता था कि सरदार सरोवर बांध से उसे कितना फायदा होने वाला है। उन्होंने हरेक कोशिश कीः अनशन किया और टेलीविजन कैमरों की चौंध के नीचे जमीन पर लेटी रहीं, बांध बनने पर आने वाली आपदा की भयानक लेकिन मनगढ़ंत कहानियां सुनाईं और परियोजना का समर्थन करने वाले नेताओं के खिलाफ जहर उगला तथा व्यक्तिगत आरोप लगाए। उसके बाद उन्होंने कुछ ऐसा किया, जिसे अधिकतर भारतीय सबसे बड़ा विश्वासघात मानते हैं। उन्होंने परियोजना के लिए मिलने वाली वित्तीय सहायता रुकवाने के इरादे से अपना अभियान तेज कर दिया।
उनके तीखे विरोध ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचा, जो भारत में विकास संबंधी योजनाओं में किसी भी तरह के विवाद को लपकने के लिए हमेशा तैयार रहता है। आरंभ में इस योजना के लिए धन देने को राजी हो चुके विश्व बैंक ने वास्तव में उनके विरोध के कारण ही पर्यावरण के मसलों आदि का हवाला देकर बाद में हाथ खींच लिया। पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन ने इसकी खुशी मनाई होगी। सबसे पहले 1985 में बांध निर्माण स्थल पर पहुंचने वाली पाटकर को पहली बार लगा होगा कि बांध पर पूरी तरह रोक लगाने में वह सफल रही हैं। किंतु उनकी सफलता कुछ ही समय तक टिकी। प्रधानमंत्री मोदी ने यह परियोजना राष्ट्र को समर्पित करते समय दावा किया कि विश्व बैंक के इनकार के बाद गुजरात के कई मंदिरों ने सरदार सरोवर के लिए धन दिया। धन कहीं से भी आया हो, लटक चुकी परियोजना फिर शुरू हो गई और तत्कालीन सरकार ने विश्व बैंक द्वारा मंजूर किया गया कर्ज मार्च 1993 में ‘रद्द’ कर दिया। हैरत की बात नहीं है कि करीब दो दशक पहले इन्हीं कार्यकर्ताओं के कारण विवाद उच्चतम न्यायालय की देहरी पर भी पहुंच गया और कई वर्ष तक अनसुलझा ही रहा। अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ शर्तों पर पूरी ऊंचाई (138.68 मीटर) तक बांध बनाने की मंजूरी दे दी। शर्तों में एक यह भी थी कि ऊंचाई पहले की तुलना में पांच मीटर अधिक करने के कारण जो लोग विस्थापित होंगे, उनका संतोषजनक पुनर्वास होना चाहिए। सभी पक्ष इस पर फौरन सहमत हो गए और इस तरह परियोजना के विरोध में पाटकर की एक और दलील खारिज हो गई।
इस प्रकार शुरू में परियोजना का ‘पूरी तरह’ विरोध करने वाली पाटकर और उनके साथियों को जब लगा कि अदालत पर भी उनकी हरकतों का असर नहीं पड़ रहा है तो हालात से समझौता करते हुए वे ‘बुराइयां’ दिखाने और उन्हें सुधारने की जरूरत पर उतर आए। अदालत ने यह सुनिश्चित करने के लिए पद्धति तय कर दी थी कि विस्थापितों का समय पर और सही तरीके से पुनर्वास किया जाए। पर्यावरण से जुड़ी चिंताएं भी खत्म हो गई थीं। इस तरह कार्यकर्ताओं के पास शिकायत करने को कुछ रहा नहीं था। 2011 के बाद से सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में बांध की ऊंचाई बढ़ाई जाने लगी। इससे जुड़े कई पक्ष मानते थे कि पानी का घरों तथा सिंचाई में अधिकाधिक इस्तेमाल करने के लिए यह जरूरी है। 2004 तक बांध की ऊंचाई 110.64 मीटर हुई थी; मार्च, 2006 में इसे 121.92 मीटर करने की मंजूरी मिली और अब उसकी ऊंचाई अधिकतम सीमा तक पहुंच चुकी है।
कई दशकों पहले परियोजना पूर्ण होने की राह में कठिनाइयों और दुर्भावना के साथ खड़ी की गई अड़चनों की चुनौती थी। आज सरदार सरोवर बांध बन जाने के बाद इसके फायदे अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने की चुनौती है। लाभार्थियों (कृषि भूमि) तक जल ले जाने के लिए नहरों का जाल तैयार करना होगा। गुजरात सरकार के आंकड़े बताते हैं कि इस नेटवर्क में 532 किलोमीटर लंबी मुख्य नहर होगी और उससे निकले वाली 30 से अधिक शाखा नहरें होंगी। इसके अलावा छोटी और खेतों की नहरें भी होंगी। नहर प्रणाली और उससे लाभ लेने वाले क्षेत्र के आकार के बारे में अब भी अधिक स्पष्टता नहीं है। कुछ आलोचक कहते आ रहे हैं कि लाभ बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं। जो भी हो, सरदार सरोवर बांध परियेाजना देश की बड़ी उपलब्धियों में गिनी जाएगी।
(लेखक विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में विजिटिंग फेलो हैं और वरिष्ठ राजनीतिक टीकाकरण तथा लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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