गैर कानूनी घोषित किए गए 500 और 1,000 रुपये के 99 प्रतिशत नोटों की भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास वापसी को विपक्षी दल, विशेषज्ञ और मीडिया विमुद्रीकरण की असफलता का इकलौता प्रमाण बता रहे हैं। लेकिन एक बहुआयामी परियोजना का यह ठीक मूल्यांकन नहीं है। केवल एक ही पंक्ति में इसे असफल करार देना सुधार के इस बहुआयामी प्रयास को केवल एक ही पैमाने पर आंकने जैसा है और वह पैमाना है लौटे हुए नोटों की संख्या। यह निष्कर्ष उस गरमागरम और बेतुकी राजनीतिक बहस की वजह से इतना प्रचलित हुआ है, जो 2016 के अंत में शुरू हुई थी। सतही दलील पर आधारित मीडिया का यह प्रलाप झांसे भरा था कि नरेंद्र मोदी का विमुद्रीकरण (नोटबंदी) बरबाद कर रहा है। लेकिन इस झांसे को समझने के लिए हमें नोटबंदी का सटीक विश्लेषण करना होगा, जो उस समय बहस में नजर नहीं आ रहा था और अब भी नहीं दिख रहा।
नोटबंदी की पृष्ठभूमि
नवंबर, 2016 में लौटते हैं, जब नोटबंदी की घोषणा की गई थी। नोटबंदी का कारण बड़े नोटों (500/1,000 रुपये) की संख्या में हुई अभूतपूर्व वृद्धि थी, जो 2004 में 1.5 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर नोटबंदी के ऐलान के समय तक लगभग 15.5 लाख करोड़ रुपये हो गए थे और प्रचलित नकदी में उनका हिस्सा 34 प्रतिशत से बढ़कर 88 प्रतिशत हो गया था। भारतीय रिजर्व बैंक ने सरकार को बताया कि बैंकिंग प्रणाली से बाहर गए लगभग एक तिहाई बड़े नोट यानी लगभग 6 लाख करोड़ रुपये कभी लौटकर ही नहीं आए। वे प्रणाली से बाहर चलते हैं, जिससे पता चलता है कि नजर से दूर मौजूद बड़ी नकदी भारी-भरकम काली अर्थव्यवस्था की मदद कर रही थी और उसे तैयार कर रही थी।
2004 से 2010 के बीच यानी छह वर्षों में ही सोने, शेयर और जमीन की कीमतों में 1999 से 2004 की तुलना में लगभग दस गुना बढ़ोतरी से यह बात पता चल गई थी। संपत्ति की कीमतों में बढ़ोतरी तो हो रही थी, लेकिन वास्तविक वृद्धि नहीं हो रही थी। इससे उलटा हो रहा था। संपत्ति की कीमतों में बनावटी वृद्धि के कारण भारत में उच्च वृद्धि की वैसी ही जाली तस्वीर बन गई, जैसी 2008 से पहले अमेरिका में हुई थी। यह बात इस तथ्य से सिद्ध हो जाती है कि छह वर्षों (2004 से 2010) में 8.6 प्रतिशत की उच्च वृद्धि होने के बावजूद केवल 27 लाख नौकरियां बढ़ीं, जबकि उससे पहले के पांच वर्षों (1999 से 2004) में 5.4 प्रतिशत की मध्यम वृद्धि दर के बल पर भी 6 करोड़ नौकरियां बढ गई थीं।
और इतना ही नहीं बाद के उच्च वृद्धि के दौर में वार्षिक मुद्रास्फीति दर 6.5 प्रतिशत थी, लेकिन पहले वाले औसत वृद्धि दर वाले पांच वर्षों में मुद्रास्फीति की दर केवल 4.6 प्रतिशत रही थी। उसके अलावा मध्यम वृद्धि के समय में विदेशी क्षेत्र का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा था और 25 वर्षों तक चालू खाते का घाटा बरकरार रहने के बाद अंतिम वर्षों में 20 अरब डॉलर का चालू खाते का अधिशेष दर्ज किया गया था। किंतु उसके उपरांत उच्च वृद्धि वाले छह वर्षों में चालू खाते का घाटा सैकड़ों अरब डॉलर में पहुंच गया।
यह बताने के लिए किसी भविष्यद्रष्टा की जरूरत नहीं थी कि बाद के छह वर्षों में संपत्ति के कारण ही वृद्धि हो रही थी, जो ऐसी मरीचिका थी, जिससे न तो रोजगार सृजन हुआ और न ही अर्थव्यवस्था को बाहरी या आंतरिक राहत मिल सकी। स्पष्ट है कि इस बनावटी वृद्धि का कारण संपत्ति की ऊंची कीमतें थीं, जिन्हें बड़े नोटों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि का सहारा मिल रहा था। कोई भी अर्थशास्त्री अथवा विश्लेषक आंकड़ों या उन पर आधारित निष्कर्षों पर प्रश्न खड़े नहीं कर सकता। लेकिन राजनीतिक और वैचारिक बुनियाद पर चल रही नोटबंदी की बहस ने इन महत्वपूर्ण तथ्यों पर गौर ही नहीं किया और दूसरे अहम आयामों को छोड़कर एक ही बिंदु पर सिमटकर रह गई।
राजनीति ने नोटबंदी को एक ही बिंदु पर समेटा
नोटबंदी पर अर्थशास्त्र को ताक पर रखकर पूरी तरह राजनीतिक हो गई। अर्थशास्त्रियों और कैमरा थामे पत्रकारों ने पुराने नोटों को बदलने या जमा करने के लिए बैंकों के बाहर कतार में खड़े लोगों पर नजर डाली और राजनेताओं तथा मीडिया की ही तरह जनसरोकारी बनते हुए नोटबंदी का विरोध करने लगे। नोटबंदी भारत से इतना जुड़ा हुआ मसला था कि दुनिया में कहीं भी इसकी तुलना की ही नहीं जा सकती थी। भारत-केंद्रित मसलों की जानकारी नहीं रखने वाले विदेशी विशेषज्ञों ने नोटबंदी को विनाशकारी कहकर लताड़ दिया। डॉ. मनमोहन सिंह की अगुआई में देसी विशेषज्ञों ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्रियों, मीडिया तथा विपक्ष ने मोदी के खिलाफ जंग छेड़ दी और मोदी ने मोर्चे पर अकेले ही डटकर नोटबंदी की राजनीति की और उनका हमला झेला तथा अग्निपरीक्षा देते रहे।
उन्होंने सीधे जनता से बात की और इस परेशानी को सहने का अनुरोध उनसे किया। और उन्होंने स्वयं ही मोदी की बात मान ली, जैसा कि नोटबंदी के बाद मिलीं भारी चुनावी जीतों में दिखा। लेकिन इन सबके बीच नोटबंदी को सही ठहराने के लिए मोदी को अपना इकलौता लोकप्रिय तर्क इस्तेमाल करना पड़ा, जिसे लोग आसानी से समझ सकते थे और वह तर्क था, काले धन का पता लगाना और सफाया करना। इससे यही समझा गया कि जो नोट बैंक में नहीं लौटे, वे वही काला धन थे, जिसका सफाया कर दिया गया। नतीजा यह हुआ कि आर्थिक धारा को ठीक करने के बहुआयामी सुधार को मोदी-विरोधी राजनीति ने ऐसी स्थिति में ला दिया, जहां नोटबंदी की कामयाबी या नाकामी केवल इस बात पर निर्भर करेगी कि कितना काला धन बैंकों में लौटेगा या नहीं लौटेगा। इस सीधे से तर्क ने नोटबंदी के प्रभाव की ठीक तस्वीर को धुंधला कर दिया और अब उस परियोजना को ही विनाशकारी करार दिया है।
वांछित बहुआयामी सुधार, जिनमें मिली सफलता
नोटबंदी का लक्ष्य बड़े नोटों के उस अभूतपूर्व भंडार को समाप्त करना तो था ही, जिसके कारण संपत्ति की कीमतों में तेजी आई थी और अर्थव्यवस्था के सामने असहनीय भावी संकट का खतरा खड़ा हो गया था; साथ ही इसका मकसद अर्थव्यवस्था में बहुआयामी सुधार करना भी था। नोटबंदी की परियोजना में विभिन्न उद्देश्य थेः (1) काला धन पकड़ना, (2) इसके बढ़ने से रोकना, (3) करदाताओं की संख्या बढ़ाना, (4) नकदी के कारण बढ़े संपत्ति मूल्य को रोकना और कम करना, (5) खलनायक बन चुके भारीभरकम नकदी भंडार, विशेषकर बड़े नोटों को नीचे लाना, (6) जनता के पास मौजूद अधिशेष नकदी वापस लेना क्योंकि वह बैंकिंग प्रणाली के समांतर अर्थव्यवस्था तैयार कर रही थी, (7) बैंकों को अतिरिक्त जमाओं को फ्रैक्शनल रिजर्व मॉडल के जरिये उधार देने योग्य संसाधनों में बदलने की क्षमता प्रदान करना, (8) ब्याज दरें नीचे लाना, (9) घरेलू बचत में वित्तीय बचत की हिस्सेदारी बढ़ाना, (10) क्षमता से बाहर गई जमीन की कीमतों को कम कर घरों को किफायती बनाना, (11) असंगठित क्षेत्र को संगठित बनाना तथा उसके लिए संगठित सहायता उपलब्ध कराना, (12) रोजगार रहित ऊंची वृद्धि के बजाय रोजगार वाली वृद्धि यानी वास्तविक अर्थव्यवस्था की वृद्धि की ओर बढ़ना और (13) जाली नोट खत्म करना तथा कश्मीरी आतंकवादियों और नक्सलियों की नकदी का सफाया कर देना।
यह सूची अभी खत्म नहीं हुई है। नकदी के कारण होने वाली मूल्यवृद्धि के बल पर होने वाली झांसा भरी वृद्धि के होते हुए इनमें से कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता था; इसका तरीका बड़े नोटों पर रोक लगाकर भारी नकदी भंडार को खत्म करना ही था। यह प्रतिबंध बड़े नोटों की भूख खत्म कर देता और नकदी के प्रभुत्व वाली अर्थव्यवस्था को कम नकदी वाली अर्थव्यवस्था में बदल देता। इस कसौटी पर कसा जाए तो मोदी की नोटबंदी की परियोजना अपने विविध उद्देश्य पूरे करने में बेहद सफल रही है। लेकिन दुर्भाग्य से आरंभ से ही नोटबंदी के खिलाफ खड़े विशेषज्ञों और मीडिया ने तटस्थ होकर बहुआयामी प्रभाव को देखना बंद कर दिया है। उसके बजाय वे इसे नाकाम करार देने की प्रतीक्षा कर रहे थे और जैसे ही आरबीआई ने बंद किए गए 99 प्रतिशत नोट वापस आने की घोषणा की, उन्होंने मौका लपक लिया और इसे ही नाकामी का इकलौता पैमाना बताने लगे। नोटबंदी परियोजना के काला धन विरोधी एजेंडे की सफलता को वापस नहीं आए बंद नोटों की संख्या तक समेट देना बेतुका और गलत है। यदि काला धन रखने वाले बंद नोटों को बैंकों में जमा करने का दुस्साहस करते तो कर संबंधी जांच होने लगती। जिन नोटबंदी विरोधी या मोदी-विरोधी बयानों को नोटबंदी पर विमर्श कहा गया था, उन्होंने इस पहलू को पूरी तरह अनदेखा कर दिया।
काले धन का एजंडा सफल रहा, नाकाम नहीं
नोटबंदी अपने बहुआयामी उद्देश्य हासिल करने या निर्धारित बदलाव करने में कितनी कामयाब रही, यह देखने से पहले काले धन का पता लगाने के उस लक्ष्य की बात करते हैं, जिसकी चर्चा सब कर रहे हैं। बंद हुए जो नोट बैंकों में जमा नहीं हुए हैं, वे नोटबंदी की वजह से पता चले काले धन के सीधे प्रमाण हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि बैंकों में जमा काले धन का पता नहीं चलेगा। जिन लोगों के पास काला धन बंद हुए नोटों में रखा था, यदि उन्होंने खतरा मोल लेते हुए उसे बैंकों में जमा कराया है तो आयकर अधिकारियों को जमाओं की जांच करनी होगी और ऐसी जमाओं पर कर वसूला जाएगा। इसमें समय तो निश्चित रूप से लगेगा, लेकिन ऐसा हो रहा है।
करीब 2.9 लाख करोड़ रुपये की जमा हुई नकदी की कर के लिए जांच की जा रही है। नोटबंदी के कारण पता चला काला धन तीन श्रेणियों में आता हैः (1) बंद हुए नोटों में लगभग 29,000 करोड़ रुपये की अघोषित संपत्ति; (2) जमा नहीं किए गए करीब 16,000 करोड़ रुपये के बंद नोट; और सबसे महत्वपूर्ण हैं 2.90 लाख करोड़ रुपये की जमाएं, जिनकी जांच कर अधिकारी कर रहे हैं। अंतिम श्रेणी बहुत बड़ी है और उसे पूरी तरह नजरअंदाज कर यह कहा जा रहा है कि नोटबंदी का काले धन संबंधी उद्देश्य नाकाम हो गया है। 45,000 करोड़ रुपये के काले धन का पता चल चुका है और 2.9 लाख करोड़ रुपये के संभावित काले धन की जांच चल रही है, जो कुल मिलाकर 3.35 लाख करोड़ रुपये का काला धन हो जाता है और इसका खुलासा नोटबंदी की वजह से ही हुआ है। यदि जमा किए गए संभावित काले धन में से आधे पर भी कर वसूल लिया जाता है तो उसका मतलब होगा करीब 1.5 लाख करोड़ रुपये के काला धन, जिसमें से ज्यादातर कर और जुर्माने की शक्ल में वसूल लिया जाएगा।
स्वतः खुलासे की इससे पहले लाई गई कोई भी योजना सफल नहीं हुई थी। ऐसी दो योजनाओं से ठीकठाक कर मिला था। 1997 में 9,500 करोड़ रुपये का कर मिला था और 2016 की योजना में 29,400 करोड़ रुपये बतौर कर हासिल हुए। स्वतः खुलासे की पिछली योजनाओं से कई गुना अधिक कर नोटबंदी में मिलना तय है। 3.35 लाख करोड़ रुपये के वास्तविक एवं संभावित काले धन का पता चलने के अलावा नोटबंदी ने व्यक्तिगत आयकर का दायरा भी बढ़ा दिया है। 2016-17 में उससे पिछले वर्ष की तुलना में 57 लाख अधिक आयकर रिटर्न दाखिल किए गए, अग्रिम कर संग्रह 42 प्रतिशत बढ़ गया और स्वतः निर्धारित कर 34 प्रतिशत बढ़ा। काले धन का पता लगाने में नोटबंदी का असफल करार देने के लिए ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों को नजरअंदाज करना निश्चित रूप से सतही बात है। यह कहना जल्दबाजी भी है क्योंकि 2.9 लाख करोड़ रुपये के जिस जमा धन की जांच की जा रही है, उस पर कितना कर मिला, यह जानने के लिए जांच पूरी होने तक की प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ेगी। कुल मिलाकर नोटबंदी का काले धन का एजेंडा सफल ही रहा, उसे किसी भी तरह असफल नहीं बताया जा सकता।
(लेखक राजनीतिक और आर्थिक मामलों पर लिखने वाले सुप्रसिद्ध स्तंभकार हैं।)
Translated by: Shiwanand Dwivedi (Original Article in English) [3]
Image Source: https://www.linkedin.com/pulse/fringe-benefits-demonetisation-ramnath-iyer [4]
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/september/19/vimudrikaran-bhuayami-priyogana
[2] https://www.vifindia.org/author/shri-s-gurumurthy
[3] http://www.vifindia.org/article/2017/september/07/demon-a-multidimensional-project
[4] https://www.linkedin.com/pulse/fringe-benefits-demonetisation-ramnath-iyer
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