पारंपरिक भारत ही आज के भारत का उद्भव और स्रोत है। यही भारत के अस्तित्व की रीढ़ है। दार्शनिक स्तर पर यही उसकी आत्मा है। यदि अत्यधिक आधुनिकता से अंधे हो गए ‘आधुनिक’ भारतीय सभी परंपराओं को पिछड़ी बताकर खारिज नहीं करते और उनका असर महसूस करने से चूक नहीं जाते तो यह जीवन के हरेक क्षेत्र में नजर आता है। भारत में दर्शन एवं अध्यात्म की खोज स्पष्ट दिखती है और समय-समय पर भारत के जनसामान्य को एक साथ लाती है तथा उन्हें उनकी धरती से ऐसे पवित्र विचार के माध्यम से जोड़ती है, जिसे कोई अन्य सभ्यता जानती ही नहीं है। वास्तव में लोगों को एकजुट करने और उन्हें उनकी धरती से जोड़ने की इस प्राचीन राष्ट्र की क्षमता ही राष्ट्रीयता का आधार है।
भारतीय सभ्यता ने अपनी धरती से मजबूती से जुड़ी अपनी आस्था का न तो युद्ध के जरिये अपनी सीमा के बाहर विस्तार किया और न ही दूसरे लोगों या देशों पर इसे जबरन थोपा। इसीलिए इसकी आस्था न तो दूसरे क्षेत्रों या लोगों में गई और न ही उनकी पहचान में इसकी मिलावट हुई। इसीलिए इसकी पहचान भारत की धरती से ही जुड़ी रही। इसका धार्मिक प्रभाव जब इसकी सीमाओं से बाहर गया तो भी भारतीय धर्म दूसरे क्षेत्रों की आस्थाओं और संस्कृतियों के साथ फले-फूले और उस क्षेत्र पर भारतीय शासन स्थापित नहीं किया गया। इस प्रकार भारत ने चीन पर बौद्ध मत थोपने का प्रयास नहीं किया। उसके बजाय चीन ने स्वयं ही बौद्ध मत स्वीकार किया। इंडोनेशिया और अन्य पूर्वी देशों में हिंदू प्रभाव का मामला भी इसी तरह का था।
जो धर्म भारत भूमि से जुड़ी आस्थाओं का समूह है, उसकी अनूठी विशेषता यह है कि वह टकराव से दूर रहता है। अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांत वाले इस धर्म ने कभी किसी अन्य धर्म का विरोध नहीं किया है। इसके उलट इसने दूसरे सभी धर्मों को सबको समाहित करने वाले अपने समुदाय में मिला लिया। चूंकि यह टकराव से दूर रहता है, इसलिए इसमें बिल्कुल भी आक्रामकता नहीं रही। इसने सर्व धर्म समभाव के सिद्धांत में विश्वास किया। इन्हीं परंपराओं ने सदियों तक संरक्षण देने वाली सत्ता नहीं होने और इसकी आत्मा को नीचा दिखाने तथा नष्ट करने पर आमादा शत्रु सत्ता होने के बाद भी इस प्राचीन देश का अस्तित्व बरकरार रखा है एवं इसकी आत्मा की रक्षा की है। कोई भी ‘आधुनिक’ सत्ता अज्ञात काल की इस प्राचीनता और परंपराओं की लगातार सहायता के बगैर इस देश में नहीं चल सकती। यह पारंपरिक भारत आध्यात्मिक भारत से जुड़ा हुआ है और उससे अलग नहीं हो सकता।
लेकिन भारत को संगठित देश का व्यक्तित्व देने में पारंपरिक भारत का महत्व एकदम स्पष्ट होने के बाद भी स्वतंत्र भारत के संविधानवाद और राजनीतिक प्रतिष्ठान ने ‘आधुनिक’ भारत का सफलतापूर्वक वास्तविक भारत के रूप में गठन किया है और प्रचारित भी किया है। और ‘आधुनिक’ संवैधानिक भारत पारंपरिक भारत पर गर्व तो क्या करेगा, उसने उतनी ही सफलता के साथ उस भारत को भूलने लायक और खेद करने लायक खराबी बताते हुए तुच्छ बना दिया है। पारंपरिक भारत को झगड़ालू और कठिन तथा पिछड़ा बताते हुए आधुनिक भारत उसे बोझ की तरह खारिज करता गया। ऐसा करते-करते और पारंपरिक भारत के बारे में अपनी कल्पनाओं को सच मानकर आधुनिक भारत ने स्वयं को उन आध्यात्मिक मूल्यों से काट लिया, जो पारंपरिक भारत के हृदय में बसी हैं।
‘आधुनिक’ भारत का विचार दार्शनिक स्तर पर प्राचीन अंग्रेजी मॉडल पर आधारित है, जिसे ईसाइयत के उन प्रयोगों और अनुभवों पर गढ़ा गया है, जो उसने व्यक्तिवाद, धर्मनिरपेक्षता तथा उदारता को आधुनिकता का प्रतीक मानते हुए किए गए। संक्षेप में कहा जाए तो आधुनिक भारत ऐसी अनूठी और मोहक प्रयोगशाला है, जो इस प्राचीन राष्ट्र के मूल एवं स्थानीय विचारों को पूरी तरह अनदेखा करते हुए इस पर प्राचीन अंग्रेजी अनुभवों को थोपकर प्रयोग करने में लगातार जुटी है। भारत में जबरन थोपी गई आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने वाला इस अनजाने दर्शन और बाहरी संस्थानों ने पिछले कुछ वर्षों में पारंपरिक भारत के सौहार्द को बिगाड़ दिया है और इसकी राजनीतिक व्याख्या ने अंत में वोट बैंक की राजनीति तैयार कर दी है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए विभिन्न फैसले पारंपरिक भारत के प्रति धर्मनिरपेक्ष भारत के रुख को चुनौती देने में उतने ही प्रभावी रहे हैं, जितना स्वयं पारंपरिक भारत। संपूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य की स्रोत रही संस्कृत भाषा का मामला ही लीजिए। ‘धर्मनिरपेक्ष’ भारत ने उसे कोस-कोसकर एक तरह से भुला ही दिया था और देखिए कि न्यायपालिका ने प्राचीन भाषा के प्रति धर्मनिरपेक्ष भारत की आपत्तियों को किस प्रकार निपटाया है। ‘धर्मनिरपेक्ष’ भारत ने संस्कृत को एक प्रकार से मृत भाषा ही करार दे दिया था और इसे हिंदू धर्म से भी जोड़ दिया था तथा इसे राष्ट्रीय, सांस्कृतिक संपत्ति के बजाय धार्मिक भाषा बनाकर पेश किया था। इसने तो आंखें मूंदकर यहां तक कहा था कि संस्कृत को बढ़ावा देने का अर्थ हिंदू धर्म को बढ़ावा देना हेागा और बहुसंख्यकों के अतिक्रमण के रूप में यह धर्मनिरपेक्षकता का उल्लंघन होगा। इसके उलट उर्दू के प्रोत्साहन को धर्मनिरपेक्ष भारत ने अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार के संवैधानिक कर्तव्यों का हिस्सा बताया। किंतु न्यायपालिका ने अलग रुख अपनाया और संस्कृत को समुचित स्थान दिया। उच्चतर न्यायपालिका द्वारा धरती की व्याख्या और हिंदू पद्धति अथवा हिंदुत्व को भारत का सदियों पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक अवलंब बताना न्यायिक व्याख्या भर नहीं था। वास्तव में यह उन सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक तथा राजनीतिक नियमों को स्वीकार करना है, जिन्होंने भारत की जनता और भूमि को उनकी विशिष्ट पहचान प्रदान की है।
विकृत धर्मनिरपेक्षता के रखवालों द्वारा भारत के परिवेश के हिंदू अवलंब को नकारे जाने के वर्तमान चलन के बाद भी स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने इन अवलंबों को बहुत महत्व दिया है और स्वतंत्र भारत द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाओं के ढांचे में इसे सूक्ष्म रूप से लेकिन आग्रह के साथ समाहित कर दिया गया है। हमारा संविधान, हमारी संसद, हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका और राज्य के अन्य महत्वपूर्ण अंग स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि स्वतंत्र भारत का भाग्य गढ़ने के लिए प्रेरणा का अंतिम स्रोत हजारों वर्ष पुराने हिंदू आदर्श तथा सभ्यतागत संबंध ही होंगे। भारत की राजनीतिक प्रणाली के संस्थापकों के मन में इस बात को लेकर लेशमात्र भी संदेह नहीं था कि भारत बहुलवादी और लोकतांत्रिक राज्य तभी रह पाएगा, जब यह लोकतांत्रिक और बहुलवादी हिंदुत्व के बुनियादी मूल्यों से जुड़ा रहेगा।
संभवतः यही कारण था कि धर्मनिरपेक्षता शब्द को भारतीय संविधान के पाठ में शामिल नहीं किया गया क्योंकि यह बात बिना हिचक स्वीकार कर ली गई थी कि हिंदू बहुसंख्यक भारत देश में रहने वाले विभिन्न धर्मों के लोगों के साथ राज्य का संबंध स्थापित करने में धर्मनिरपेक्ष और निष्पक्ष रहेगा। लेकिन 1976 में आपातकाल के दौरान उन लोगों के दबाव के कारण 42वें संशोधन के जरिये धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान में शामिल कर दिया गया, जो लोग भारतीय सभ्यता के मूलभूत मूल्यों में विश्वास नहीं करते थे। 42वें संशोधन के अनुसार संविधान की प्रस्तावना में “संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य” शब्दों के स्थान पर “संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य” शब्द डाल दिए गए।
भारतीय संविधान के जनक भारत की हिंदू धरोहर से परिचित मालूम देते थे। संविधान सभा द्वारा स्वीकार किए गए संविधान की पहली प्रति में सर्वाधिक चित्र दिए गए हैं। संविधान के मुख्य पाठ में कुल 21 रेखाचित्र हैं। इन चित्र संविधान के प्रत्येक भाग के आरंभ में दिए गए हैं, जिनसे बहुत दिलचस्प जानकारी मिलती है। ये चित्र भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों का प्रतिनधित्व करने के लिए चुने गए हैं। भारतीय संविधान ने भारत के इतिहास को निम्नलिखित कालखंडों में बांटा हैः-
(1) मोहनजोदड़ो काल
(2) वैदिक काल, महाकाव्य काल
(3) महाजनपद एवं नंद काल
(4) मौर्य काल
(5) गुप्त काल
(6) मध्ययुगीन काल
(7) मुस्लिम काल
(8) ब्रिटिश काल
(9) भारत का स्वतंत्रता आंदोलन
(10) स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी आंदोलन।
मुस्लिमों से पहले के काल से निम्न रेखाचित्र चुने गए हैं:-
(1) मोहनजोदड़ो की मुहर
(2) वैदिक आश्रम (गुरुकुल)
(3) लंका की राक्षस सेना पर राम की विजय एवं सीता के रूप में धर्मनिष्ठा एवं गुण पुनः प्राप्त करना
(4) अर्जुन को गीता के उपदेश देते श्री कृष्ण
(5) उपदेश देते भगवान बुद्ध
(6) भगवान महावीर के जीवन का एक दृश्य
(7) भारत एवं विदेश में धार्मिक प्रवचन
(8) हनुमान का चित्रण
(9) महाराजा विक्रमादित्य का दरबार
(10) नालंदा विश्वविद्यालय की मुहर
(11) ओडिशा से एक हिंदू मूर्ति
(12) शिव नटराज की कांस्य प्रतिमा
(13) पृथ्वी पर गंगावतरण।
मुस्लिम काल का चित्रण करने के लिए दो रेखाचित्र चुने गए हैं। ये हैं:-
(1) अकबर का चित्र
(2) शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह के चित्र।
ब्रिटिश काल एवं भारत के स्वाधीनता आंदोलन के काल से चुने गए चित्र हैं:-
(1) टीपू सुल्तान
(2) रानी लक्ष्मीबाई
(3) नेताजी सुभाष चंद्र बोस
(4) महात्मा गांधी।
संविधान के मुख्य भाग में दिए गए चित्रों के अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है कि ये न तो मनमाने ढंग से चुने गए हैं और न ही कुछ सोचे बगैर चुने गए हैं। ये संविधान के पृष्ठों को कलात्मक तरीके से सजाने भर के लिए नहीं हैं। उसके बजाय ये भारत की प्रकृति और उन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुने गए लगते हैं, जिन्हें संविधान अपने लिखित शब्दों के माध्यम से बल देने का प्रयास करता है। संविधान निर्माताओं के मन में इस बात को लेकर बिल्कुल भी संदेह नहीं था कि इस देश की हिंदू विरासत ही वह चट्टान है, जिस पर संविधान की भावना टिकी है। मुगल काल का वर्णन करने के लिए चुने गए चित्र भी एक कहानी कहते हैं। पूरे काल में से केवल अकबर को चुना गया, जो हिंदू आदर्शों एवं भावना के करीब आते हैं। शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह को इसीलिए चुना गया क्योंकि उन्होंने इस्लामी धार्मिक प्रभुत्व के माध्यम के रूप में काम कर रहे मुगल शासन के दमन एवं क्रूरता के विरुद्ध संघर्ष किया।
ब्रिटिश काल और भारत के स्वाधीनता आंदोलन के युग से चुने गए चित्र भी विशिष्ट हैं। टीपू सुल्तान और रानी लक्ष्मी बाई, दोनों यूरोपीय औपनिवेशिक प्रभुत्व के विरुद्ध युद्ध करते रहे थे। ‘स्वाधीनता के क्रांतिकारी आंदोलन’ वाले चरण से चुना गया एक अन्य चित्र नेताजी सुभाष चंद्र बोस का है, जिनके पराक्रम और उत्सर्ग ने स्वतंत्रता सेनानियों का मनोबल ऊंचा किया और समाज के अन्य वर्गों पर भी व्यापक प्रभाव डाला। भारत के स्वाधीनता आंदोलन का विषय का प्रतिनिधित्व करने के लिीए केवल महात्मा गांधी को चुना गया, जिनका हिंदू मूल्यों, हिंद स्वराज और राम राज्य के साथ गहरा जुड़ाव सर्वविदित है। भारत के संविधान ने इस प्रकृति का वर्णन करने के लिए हिंदू चरित्रों को चुना है।
भारतीय शासन की सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक और प्रशासनिक इकाइयों में भी हिंदुत्व की सुगंध व्याप्त है। लोकसभा का प्रमुख अध्यक्ष होता है और अध्यक्ष के आसन के ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा हैः धर्मचक्र प्रवर्तनाय (धर्म का पहिया चलाने के लिए)। प्राचीन भारत के शासकों ने धर्म के मार्ग को अपना कार्यक्षेत्र माना था और स्वतंत्र भारत की राजनीतिक को संभालने वालों ने धर्मचक्र को राष्ट्रीय ध्वज पर अंकित कर और उससे संबंधित ध्येय वाक्य को सर्वोच्च विधायी निकाय के केंद्र में लिखकर इसी विचार को स्वीकार किया।
भारत की संसद में कई स्थानों पर हिंदू चरित्र की याद दिलाने वाले प्रमुख चिह्न हैं:
(1) द्वारा संख्या 1 पर उकेरा गया हैः लोकद्वारंपात्राः अनुपश्येमत्वं वयंवेरा (छांदोग्य उपनिषद) अर्थात् ‘लोगों के कल्याण के लिए द्वार खोल दो और उन्हें संप्रभुता का मार्ग दिखाओ।’
(2) केंद्रीय कक्ष के द्वार परः अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम, उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् (पंचतंत्र) अर्थात् ‘यह मेरा है, यह पराया है, यह संकीर्ण हृदय वाले सोचते हैं, उदार चरित्र वाले पूरे संसार को एक ही परिवार मानते हैं।’
(3) लिफ्ट संख्या 1 के निकट गुंबद परः न सा सभा यत्र न संति वृद्धः, वृद्ध न ते ये न वदंति धर्मम्, धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति, सत्यम् न तद्यच्छलमभ्युपैति (महाभारत) अर्थात् ‘वह सभा नहीं है, जिसमें वृद्ध न हों; वह वृद्ध नहीं है, जो धर्म के अनुसार नहीं बोलता; वह धर्म नहीं है, जहां सत्य नहीं हो; वह सत्य नहीं है, जिसमें छल हो।’
(4) लिफ्ट संख्या 2 के निकट गुंबद परः सभा वा न प्रवेष्टव्या, वक्तव्यं वा समंजसम्, अब्रुवन् विब्रुवन् वापि, नरौ भवति किल्विषी (मनुस्मृति) अर्थात् ‘या तो सभा में प्रवेश न करें या उसके भीतर जाएं तो धर्मानुसार ही बोलें क्योंकि नहीं बोलने वाला अथवा असत्य बोलने वाला समान रूप से पाप का भागी होता है।’
हिंदू धरोहर और उसकी मूल्य परंपराओं का भारत के कानूनी एवं प्रशासनिक जीवन पर प्रभाव उस समय और भी स्पष्ट हो जाता है, जब हम विभिन्न संस्थानों द्वारा अंगीकृत किए गए मूल आदर्शों को देखते हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
(1) भारत सरकार - सत्यमेव जयते
(2) लोकसभा - धर्मचक्र प्रवर्तनाय
(3) उच्चतम न्यायालय - यतोधर्मस्ततोजयः
(4) आकाशवाणी - बहुजनहिताय
(5) दूरदर्शन - सत्यम् शिवम् सुंदरम्
(6) भारतीय सेना - सेवा अस्माकम् धर्मः
(7) भारतीय नौसेना - शन नो वरुणः
(8) भारतीय वायुसेना - नभः स्पृशम् दीप्तम्
(9) दिल्ली विश्वविद्यालय - निष्ठा धृति सत्यम्
(10) जीवन बीमा - योगक्षेमम् वहाम्यहम्
ये आदर्श धार्मिक रूढ़ियों के वाहक नहीं होते हैं। ये सभ्यतागत मूल्य होते हैं, जो गहन मानवीयता और न्यायसंगत जीवन की प्रतिबद्धता के सूचक होते हैं। ये सद्गुण हैं, हिंदू जीवन पद्धति की प्राचीन मूल्य परंपरा हैं, जिन्हें स्वीकार करना आधुनिक भारत के लोकतांत्रिक शासन के भविष्य के लिए उत्तम माना गया है।
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[3] http://www.vifindia.org/article/2017/august/03/indian-civilisation-and-the-constitution
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