देश में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने की अहमियत को कई तरीके से समझा जा सकता है। चूंकि जीएसटी के जरिये अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था का कायाकल्प ही किया गया है, इसलिए उसे समझने का सबसे अच्छा तरीका आर्थिक पहलू होगा। हालांकि यह तरीका गलत नहीं है - वास्तव में कई लोग इससे सबसे अच्छा तरीका भी बताएंगे - लेकिन नीति को आर्थिक कवायद भर बता देने से वे राजनीतिक पहलू छूट जाएंगे, जो केंद्र सरकार और उसके आलोचकों ने सामने रखे हैं। एक पुरानी कहावत को नए तरीके से लिखें तोः जीएसटी इतना अहम है कि उसे अर्थशास्त्रियों के ही भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
इस बात को समझने और आगे बढ़ाने के लिए पहले इनत तथ्यों को देखना होगाः पहली बात, मोदी सरकार ने जीएसटी की औपचारिक शुरुआत का घंटा संसद में ही बजाया। दूसरी बात, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आधिकारिक रूप से इस नीति को आरंभ करने के लिए एक साथ बटन दबाए। तीसरी बात, 1 जुलाई की मध्यरात्रि से जीएसटी आरंभ करने के लिए 30 जून की देर रात संसद में विशेष सत्र आयोजित किया गया। चौथी बात, इससे पहले किसी भी सरकारी नीति को संसद में विशेष संयुक्त सत्र के जरिये लागू नहीं किया गया है। पांचवीं बात, कोई सरकारी कार्यक्रम आरंभ करने के लिए आधी रात में संसद का सत्र भी पहले कभी नहीं बुलाया गया।
अंतिम बिंदु की बात करें तो आधी रात के सत्र किसी समारोह के लिए ही हुए हैं। 14-15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत की संविधान सभा की बैठक (उस स्थान पर हुई, जिसे अब संसद का केंद्रीय कक्ष कहा जाता है और जहां जीएसटी आरंभ किया गया हुई। उस समय जवाहरलाल नेहरू ने प्रसिद्ध ‘नियति से भेंट’ भाषण - जो अपने साहित्यिक मूल्य के कारण अद्भुत माना जाता है, इतिहास की पुस्तकों में जिसका उल्लेख है और जिसका प्रयोग कई संदर्भों में किया जाता है - दिया था। 14-15 अगस्त, 1972 में भी देश की स्वतंत्रता के 25 वर्षों का जश्न मनाने के लिए आधी रात में सत्र बुलाया गया था। 9 अगस्त, 1992 को भी भारत छोड़ो आंदोलन के 50 वर्ष पूरे होने पर आधी रात को ही एक अन्य सत्र बुलाया गया था। 14-15 अगस्त, 1997 को भारत की आजादी की स्वर्ण जयंती मनाने के लिए आधी रात को संसद का सत्र हुआ था।
तब नरेंद्र मोदी की सरकार ने परंपरा से हटकर नया चलन क्यों आरंभ किया? जो इस चलन से नाराज हैं, वे तीन वर्ष बाद भी यह समझ नहीं पाए हैं कि यह सरकार काम अलग ढंग से करने और पुराने ढर्रे को पलटने के लिए ही जानी जाती है। वे नवीनता को समझने में ही जूझ रहे हैं और अभी तक ठीक से समझ नहीं सके हैं। उनके कष्टों की सूची बहुत लंबी है - मोदी की विदेश नीति, विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी का उनका फैसला, सर्जिकल स्ट्राइक, तकनीक का इस्तेमाल कर सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं को नया रूप देना, आधार को विस्तार देना, लोगों को बैंकिंग प्रणाली के जरिये जोड़ने का विशाल कार्यक्रम, योजना आयोग को भंग करना और बहुत कुछ। इन कदमों ने अलग-अलग और मिलकर आलोचकों को परेशान कर दिया है और भ्रम में भी डाल दिया है, इन कदमों के बाद हुए चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को एक के बाद एक विजय मिली हैं और विरोधियों के हाथ मुट्ठी भर वोट ही आए हैं, जिससे अलोचकों का भ्रम और भी बढ़ गया है। नए तरीके से काम करने का इतिहास होने के बावजूद जीएसटी का आरंभ करने के लिए संसद में आधी रात को सत्र बुलाने का सरकार का फैसला कई लोगों को हैरत में डाल गया। अंत में लाखों लोग प्रधानमंत्री को बोलते हुए देखने और सुनने के लिए अपने टेलिविजन सेट से चिपके रहे और उन्हें सुनने के बाद ही टीवी बंद किए गए।
इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला कि मोदी प्रशासन ने इतना भव्य आयोजन करने का फैसला क्यों किया? सरकारें नीतियां और कार्यक्रम तो शुरू करती ही रहती हैं, कुछ तमाशे के साथ और कुछ सादगी के साथ। मोदी सरकार ने भी स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे कई कार्यक्रम बहुप्रचारित, भव्य आयोजनों में आरंभ किए हैं, जिनमें नृत्य-गीत के कार्यक्रम तक हुए हैं। प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के फैसले की घोषणा करने के लिए राष्ट्र को स्वयं संबोधित किया ताकि फैसले को अधिक वजन और विश्वसनीयता हासिल हो सके। इसलिए जीएसटी व्यवस्था को सरकार द्वारा आधी रात में संसद के विशेष सत्र के जरिये आरंभ किए जाने के पीछे ये कारण हो सकते हैं।
पहला कारण यह है कि सरकार जीएसटी को जनता के सामने राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण कदम के तौर पर पेश करना चाहती थी। सरदार वल्लभभाई पटेल की अगुआई में रियासतों को भारतीय संघ में मिलाना पहला कदम था। सरकार का दिया गया ‘एक राष्ट्र, एक कर’ का जुमला भारत की ‘एकता’ का संकेत देता है, सांस्कृतिक और भौगोलिक ही नहीं बल्कि आर्थिक एकता भी। इस नजरिये से यह हास्यास्पद ही था कि एक ही उत्पाद या सेवा पर एक ही देश के अलग-अलग हिस्सों में कर की दरें अलग-अलग हों क्योंकि इससे विनिर्माताओं और खरीदारों दोनों को भ्रम होता था और कई प्रकार की अनियमितताएं भी होती थीं। इसलिए चूंकि जीएसटी देश को आर्थिक रूप से एक बनाता है, इसलिए उसके स्वागत के लिए संसद में मेजें थपथपाने से कम कुछ होना भी नहीं चाहिए था। प्रधानमंत्री ने इस अवसर में नाटकीयता का आवश्यक पुट भी जोड़ दिया, जब उन्होंने कहा, “आधी रात में हम सब इस देश की भावी यात्रा तय करने जा रहे हैं... सवा अरब लोग इस ऐतिहासिक घटना के साक्षी बन रहे हैं।” उन्होंने कहा यह यात्रा आरंभ करने के लिए संसद के केंद्रीय कक्ष से बेहतर कोई अन्य स्थान है ही नहीं। स्वाभाविक रूप से उन्होंने सरदार पटेल द्वारा देश के एकीकरण की भी याद दिलाई।
इस उत्सव में राष्ट्रपति मुखर्जी को शामिल करने की मोदी सरकार की इच्छा दूसरा कारण थी। मुखर्जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कांग्रेस नीत संप्रग सरकार में वित्त मंत्री के तौर पर साझा कर का विचार दिया था। उसे याद करते हुए राष्ट्रपति ने हाल में ही कहा, “जीएसटी का लागू होना देश के लिए बहुत बड़ा अवसर है। लेकिन मेरे लिए निजी तौर पर भी यह बहुत बड़ा मौका है। वित्त मंत्री के तौर पर मैंने 2009 में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था।” राष्ट्रपति ने आगे कहा कि अंततोगत्वा जीएसटी के क्रियान्वयन का रास्ता साफ करने वाले 101वें संविधान संशोधन विधेयक को हरी झंडी दिखाने का “विशेषाधिकार” भी उन्हें ही मिला। राष्ट्रपति पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए सरकार ने महसूस किया कि उन्हें जीएसटी के आरंभ का साक्षी बनाने के लिए संसद और उसका केंद्रीय कक्ष ही सबसे अच्छा मंच होगा। हालांकि देश का राष्ट्रपति किसी एक पक्ष का राजनेता नहीं होता है, लेकिन कांग्रेस के साथ राष्ट्रपति मुखर्जी के लंबे जुड़ाव को देखते हुए भी सरकार ने उन्हें शामिल करने का निर्णय लिया होगा ताकि आयोजन निष्पक्ष दिखे।
तीसरा कारण सरकार का यह भरोसा है कि जीएसटी देश के लिए अच्छा होगा और 2019 के चुनाव निकट आने तक इसका सकारात्मक प्रभाव दिखने लगेगा। इस तरह सफलता का पूर्वानुमान कर मोदी प्रशासन ने इसे आरंभ करने में कोई कसर नहीं छोड़ने का फैसला किया। नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक में हुए तजुर्बों ने भरोसा और बढ़ा दिया। मोदी सरकार इस भव्य आरंभ को ऐसा मजबूत दांव मान रही है, जिसके राजनीतिक परिणाम आने वाले महीनों में सामने आएंगे। नोटबंदी के मामले में सरकार ने लोगों को यकीन दिला दिया कि वह फैसला काला धन इकट्ठा करने वाले और कर चोरी करने वालों पर अंकुश लगाने के लिए था। जीएसटी को ऐसी कर व्यवस्था के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जहां विनिर्माता या विक्रेता अनियमितता नहीं कर सकता, जहां कर संग्रह बढ़ेगा और जिसके कारण सरकारी खजाने में आया अतिरिक्त धन सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में लगाया जाएगा। और नोटबंदी की ही तरह सरकार जोर देकर बताएगी कि जिनके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, उन्हें जीएसटी से डरने की जरूरत भी नहीं है। इसके अलावा नई कर व्यवस्था कुछ शुरुआती दिक्कतों के बाद कर अदायगी को सरल बना देगी, जो आम तौर पर भाजपा का समर्थन करने वाले देश के वि़शाल व्यापारी समुदाय के लिए वरदान से कम नहीं होगा। सामान्य गणित का प्रयोग कर सरकार बता़एगी कि कुछ वस्तुओं और सेवाओं की कीमत मामूली बढ़ सकती़ है, लेकिन अन्य वस्तुओं और सेवाओं के लिए उसे जीएसटी से पहले की तुलना में कम कीमत चु़कानी होगी।
‘मोदी फैक्टर’ का लाभ उठाने का सरकार का फैसला ही भव्य कार्यक्रम का चौथा कारण था। इस मामले में गलती मत कीजिएः जीएसटी की विश्वसनीयता का आधार प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता ही है। शाय यही कारण है कि संसद के मध्यरात्रि के इस सत्र में केंद्र बिंदु मोदी थे, देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली नहीं, जिन्होंने स्वतंत्र भारत में अब तक का सबसे बड़ा कर सुधार कही जा रही इस नई कर व्यवस्था को तमाम उतार-चढ़ावों से और इस योजना की बारीकियां तय करने के लिए बनाई गई जीएसटी परिषद की 18 अहम बैठकों से गुजरते हुए अंजाम तक पहुंचाया। यहां एक बार फिर नोटबंदी से तुलना की ही जाएगी। प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष 8 नवंबर को जब राष्ट्र के नाम अपने संदेश में बड़े नोट बंद किए जाने की घोषणा की, तब से लेकर तीन महीने तक जनता ने बैंकों में जबरदस्त मुश्किलों का सामना किया, लेकिन इसका परिणाम अच्छा रहने के प्रधानमंत्री के वायदे के बल पर वह सब कुछ झेल गई। जब उन्होंने कहा कि स्थिति जल्द ही सामान्य हो जाएगी और यह असुविधा देश में काले धन की रीढ़ तोड़ने के लिए उठानी पड़ रही है तो आम जनता ने उन पर भरोसा किया। और इसीलिए कानूनी तरीके से कमाया अपना धन निकालने के लिए भी घंटों तक बैंकों के बाहर लंबी कतारों में लोगों ने मोदी के वायदे पर यकीन किया और अपनी परेशानी को ज्यादा तूल नहीं दिया। विपक्षी दलों ने इस भरोसे को हिलाने के लिए भरसक प्रयास किया - लोगों को नोटबंदी के खिलाफ भड़काने के लिए निंदा भरे बयान दिए और लोगों को सड़कों पर उतारने के लिए इसे चुनावी मुद्दा तक बना दिया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ और भाजपा ने अहम राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज कीं।
इस बार भी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और वामपंथी दल जीएसटी के क्रियान्वयन की निंदा करते आ रहे हैं। उनका विरोध इसके क्रियान्वयन के समय से लेकर उसे आरंभ करने के तरीके तक पर है और जीएसटी की उन खामियों पर भी है, जिन्हें उनके दावे के मुताबिक सुधारा नहीं गया है। अपने विरोध को बढ़ाचढ़ाकर दिखाने के फेर में इन दलों ने संसद के विशेष सत्र का बहिष्कार तक कर दिया। लेकिन प्रधानमंत्री ने उन्हें करारी पटखनी दी, जब उन्होंने जीएसटी को साकार करने में मदद करने वाले सभी दलों और नेताओं की भूमिका सराही। विपक्ष ने अब भी हार नहीं मानी है और इसके प्रभावी क्रियान्वयन की राह में बाधा उत्पन्न करने में वह कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। सबसे पहले तो कांग्रेस के शासन वाले राज्यों - हालांकि उनकी संख्या बहुत कम है और अगले कुछ महीनों में और भी कम हो सकती है - ने जीएसटी को साकार करने में सुस्ती बरती और इस कुटिलता के जरिये उन्होंने नई कर व्यवस्था को ‘नाकाम’ दिखाने का प्रयास किया।
किंतु विपक्ष की इस चाल पर जनता शायद ही भरोसा करे। पहली बात, जीएसटी का विचार ही कांग्रेस के शासनकाल में आया था और इसीलिए पार्टी इसके विरोध का नैतिक अधिकार खो चुकी है। दूसरी बात, कर स्लैब, दर और आरंभ करने की तारीख (1 जुलाई) समेत तमाम प्रावधानों पर उस जीएसटी परिषद ने विचार किया था और निर्णय लिया था, जिसमें सभी राज्यों और विभिन्न दलों के प्रतिनिधि शामिल हैं और जिनकी सहमति जरूरी थी। यह सच है कि कुछ प्रावधानों पर कुछ मतभेद थे, लेकिन उन पर सहमति बना ली गई थी। जहां सर्वसम्मति बनती नहीं दिखी, वहां प्रावधानों में संशोधन कर दिया गया। दोनों ही मामलों में आज विपक्ष के पास आपत्ति करने का ठोस आधार नहीं है। जीएसटी को दोषपूर्ण बताने का कांग्रेस का दावा हो या ‘इंस्पेक्टर राज’ की वापसी का तृणमूल का आरोप या आम आदमी का खयाल नहीं रखे जाने का वाम दलों का दावा, सभी गलत हैं और बाद में गढ़े गए हैं। ऐसे रोने-धोने पर तब और भी हंसी आती है, जब याद आता है कि तृणमूल कांग्रेस ने कभी जीएसटी लाने वाले संविधान संशोधन का संसद में मुखर समर्थन किया था और प्रावधानों को अंतिम रूप देने वाली जीएसटी परिषद का नेतृत्व कभी एक वामपंथी नेता ने किया था।
असली बात यह है कि जीएसटी पर आपत्ति उसी तरह खांटी राजनीतिक है, जिस तरह नोटबंदी का और हाल ही में भाजपा नीत राजग के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का राजनीतिक विरोध किया गया था। उन दोनों की ही तरह जीएसटी भी कांग्रेस के लिए विपक्ष की एकता दिखाने का साधन बन गया। लेकिन कांग्रेस वहां भी मात खा गई। चार बड़े विपक्षी दलों के अलावा किसी ने भी आधी रात के सत्र का बहिष्कार नहीं किया - राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जनता दल (सेक्युलर) और जनता दल (यूनाइटेड) ने भी नहीं, जो भाजपा विरोधी कांग्रेस नीत खेमे में शामिल माने जाते हैं। संयोग ही है कि न तो नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जनता दल (यूनाइटेड) और न ही शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने नोटबंदी के निर्णय की निंदा की थी; बल्कि नीतीश कुमार ने तो अपने सहयोगी दलों से अलग जाकर नोटबंदी का खुला समर्थन किया था। जीएसटी विवाद के बीच जब एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने जीएसटी व्यवस्था का समर्थन करने के नीतीश के फैसले की आलोचना की तो बिहार के मुख्यमंत्री ने तीखा जवाब देते हुए कहा कि वह न तो किसी का हुक्म मानते हैं और न ही किसी खेमे में शामिल हैं। इसलिए विपक्षी एकता साफ तौर पर एक बार फिर बिखर गई।
इस राजनीतिक रस्साकशी में जीत दर्ज करने के बाद केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार को जीएसटी व्यवस्था का प्रभावी और यथासंभव झंझट रहित क्रियान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए। समस्याएं आना तो निश्चित है और विपक्ष बार-बार उन पर जोर भी देगा, लेकिन सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि समस्याओं का निराकरण कितनी जल्दी किया जाता है। राजनीतिक दृष्टिकोण हो या आर्थिक दृष्टिकोण, देश जीएसटी की असफलता सहन नहीं कर सकेगा।
(लेखक द पायनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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