ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी पांगलोंग सम्मेलन का दूसरा सत्र एक दिन के विस्तार के बाद 29 मई को संपन्न हुआ। पिछले वर्ष अगस्त में दॉ आंग सान सू ची के नेतृत्व में संपन्न हुए सम्मेलन के पहले सत्र में सभी प्रतिद्वंद्वी समूहों को एक साथ वार्ता के लिए मनाने का महत्वाकांक्षी एजेंडा तय किया गया था ताकि सभी पक्षों के बीच राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य विभिन्न दूसरे मुद्दों को सुलझाने के लिए आम सहमति तैयार हो सके। मतभेद दूर करने के लिए छह-छह महीनों के अंतराल पर कई सम्मेलन कराने का निर्णय लिया गया, लेकिन दूसरा सत्र आयोजित करने में छह महीने से बहुत अधिक समय लग गया, जिससे पता चलता है कि शांति प्रक्रिया कितनी जटिल है। पिछली सैन्य सरकार ने आठ जातीय सशस्त्र संगठनों के साथ अक्टूबर, 2015 में राष्ट्रव्यापी संघर्षविराम समझौता (एनसीए) किया था। कई अन्य जातीय सशस्त्र गुटों ने समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। एनसीए पर हस्ताक्षर नहीं करने वालों को भी ‘विशेष अतिथि’ के तौर पर दूसरे सत्र में न्योता दिया गया था। लेकिन वे उसमें पर्यवेक्षक के तौर पर ही रह सके।
यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी (यूडब्ल्यूएसए) के नेतृत्व वाले जातीय सशस्त्र संगठन शांति प्रक्रिया के मामले में सरकार तथा सेना के रवैये पर सवाल उठाते रहे हैं। यूडब्ल्यूएसए, काचीन इंडिपेंडेंस ऑर्गनाइजेशन (केआईओ), नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी (एनडीएए), शान स्टेट प्रोग्रेस पार्टी/शान स्टेट आर्मी - नॉर्थ (एसएसपीपी/एसएसए - एन), ता-आंग नेशनल लिबरेशन आर्मी (टीएनएलए), जातीय कोकांग म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी (एमएनडीएए) और अराकान आर्मी (एए) ने अपने दृष्टिकोण में तालमेल लाने के लिए अप्रैल के मध्य में अपना सम्मेलन आयोजित किया। यही वह समूह है, जिसने राष्ट्रव्यापी शांतिविराम समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। ये जातीय सशस्त्र समूह मजबूत हैं और वे सार्थक तरीके से पांगलोंग सम्मेलन में शामिल नहीं हुए हैं। उन्हें या तो हथियार डालने में या सशस्त्र संघर्ष बंद करने में संकोच है। ततमादॉ उन्हें शांति एवं सुलह के रास्ते में रोड़ा मानते हैं।
यह जानना भी दिलचस्प है कि विशेष रूप से यूडब्ल्यूएसए को वार्ता के लिए तैयार करने में चीन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। वास्तव में आंग सान सू ची ने बेल्ट एंड रोड फोरम में शामिल होने के लिए मई के मध्य में जब चीन की यात्रा की थी तो राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा था कि “चीन बर्मा की आंतरिक शांति प्रक्रिया के लिए आवश्यक मदद जारी रखने का इच्छुक है।” खबर है कि एशियाई मामलों के लिए चीन के विशेष दूत सुन गुओशियांग ने 23 मई को आंग सान सू ची से मुलाकात की थी। उससे पहले इन गुटों के प्रतिनिधियों ने कुनमिंग, युनान में चीनी दूत से बात की थी। आंग सान सू ची और यूडब्ल्यूएसए नीत गुटों के बीच पांगलोंग - 2 के लिए मुलाकात करने में इन भेंटों का अहम योगदान रहा। हालांकि यह अलग मामला है कि इन गुटों ने इसके बाद मुख्य सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया और मुलाकातों का खास नतीजा नहीं निकला।
यूडब्ल्यूएसए जैसे गुटों पर चीन का बड़ा प्रभाव है, लेकिन शांति प्रक्रिया में उसकी भूमिका अभी तक पारदर्शी नहीं है। वह सीमावर्ती क्षेत्र में स्थायित्व का हिमायती है क्योंकि अराकान तट जाने वाली उसकी गैस तथा तेल पाइपलाइनें इन गुटों के प्रभुत्व वाले अशांतिग्रस्त क्षेत्रों से गुजरती हैं, इसलिए वह यूडब्ल्यूएसए जैसे ताकतवर जातीय सशस्त्र गुटों को हथियार और मदद मुहैया कराता रहा है। चीन ऐसे गुटों को मदद इसलिए भी जारी रखेगा ताकि यदि म्यांमार उसके सामरिक और आर्थिक हितों से मुंह मोड़ना चाहे तो चीन का ही पलड़ा भारी रहे। यूएसडब्ल्यूए यदि एनसीए पर हस्ताक्षर करता तो यूएसडब्ल्यूए के हितों ही नहीं बल्कि चीन के हितों पर भी नकारात्मक प्रभाव होता।
ज्हां तक बातचीत की प्रक्रिया के नाजुक मुद्दों का सवाल है तो संघवाद और उसकी जो प्रकृति तथा रूपरेखा तैयार होनी है, वह सरकार, ततमादॉ और जातीय सशस्त्र गुटों के बीच विवाद की जड़ बना हुआ है। अलग नहीं होने को वर्तमान शांति प्रक्रिया का बाध्यकारी सिद्धांत अथवा दिशानिर्देश बनाने के प्रश्न पर जमकर बहस हुई हैं और सभी का ध्यान गया है। सरकार और सेना इसे शामिल करने के पक्ष में हैं, लेकिन जातीय सशस्त्र गुटों को लगता है कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि वर्तमान प्रक्रिया में यह पहले ही मौजूद है। एनसीए पर हस्ताक्षर करने वाले कुछ गुट यह दलील भी देते रहे हें कि एनसीए के मसौदे पर हस्ताक्षर कर हस्ताक्षर करने वाले गुटों ने सरकार के - पूर्ववर्ती सैन्य शासन के - तीन मुख्य राष्ट्रीय हितों में भरोसा दिखाया है। ये हित हैं: “संघ की अखंडता, राष्ट्रीय एकता की अखंडता और संप्रभुता बरकरार रखना।” किंतु यदि ‘अलग नहीं होने’ की शर्त को समझौते में विशेष रूप से शामिल नहीं किया जाता है तो सरकारी हलकों को उतना भरोसा नहीं होता है क्योंकि इस शब्द का ऐतिहासिक अर्थ है और वह है इसका पांगलोंग के 1947 के समझौते में भी शामिल होना। चूंकि सशस्त्र गुट ‘अलग नहीं होने’ की बात को शामिल करने के खिलाफ थे, इसीलिाए सरकारी अधिकारियों के अनुसार अपने संविधान तैयार करने अथवा स्वनिर्णय करने के प्रश्नों पर कोई समझौता नहीं हुआ।
किंतु म्यांमार सरकार का दावा है कि चर्चा के 45 में से 37 बिंदुओं पर सहमति हो चुकी है, लेकिन इसका ब्योरा स्पष्ट नहीं है। सहमति वाले इन बिंदुओं में लोकतंत्र और संघवाद पर आधारित संघ के राजनीतिक पहलुओं का ध्यान रखा गया है, जिसके पास स्व-निर्णय का अधिकार होगा; किसी जातीय समूह को विशेषाधिकार नहीं होंगे; और राज्यों तथा क्षेत्रों को 2008 के संविधान के अनुरूप अपने संविधान तथा नियम बनाने का अधिकार होगा। जिन बिंदुओं पर सहमति नहीं हो सकी है, उन्हें सम्मेलन के अगले सत्र के लिए छोड़ दिया गया है। लेकिन वास्तव में 2008 के सैन्य प्रभुत्व वाले संविधान को संशोधित किए जाने की आवश्यकता है। आंग सान सू ची चाहती हैं कि 2020 के अंत में होने वाले चुनावों के अगले चरण से पहले शांति प्रक्रिया पूरी हो जाए या कम से कम उस दिशा में बड़ा कदम उठा लिया जाए। वह संविधान में संशोधन की प्रबल समर्थक हैं, लेकिन सेना ऐसे संशोधन का विरोध करती आ रही है क्योंकि वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था में उसके पास अकूत शक्ति है, जो संशोधन होने पर खत्म हो जाएगी।
भारत की बात करें तो मणिपुर से लेकर म्यांमार के सागैंग डिविजन तक फैले एनएससीएन (खापलांग) ने म्यांमार सरकार के साथ द्विपक्षीय संघर्ष विराम समझौता तो किया है, लेकिन एनसीए पर उसने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इससे एनएससीएन (के) को मणिपुर में भारतीय सुरक्षा बल पर अचानक हमला बोलने के लिए अपने सदस्यों को भर्ती करने, प्रशिक्षण देने और हथियार प्रदान करने का मौका मिल जाता है। एनएससीएन (के) का मूलभूत सिद्धांत एनसीए पर हस्ताक्षर के विरुद्ध जाता है, इसलिए इस गुट का सफाया करना है तो भारत और म्यांमार सरकारों को एक साथ आना होगा। इसके अलावा म्यांमार की संसद एवं राज्य विधानसभाओं के सदस्यों का एक बहुदलीय समूह कुछ महीने पहले भारत पहुंचा था, जिसका मकसद केंद्र सरकार एवं राज्यों के बीच अधिकारों के वितरण में भारत के अनुभव से सीखना था। उन्होंने उग्रवादी समूहों के संबंध में भारत के अनुभव विशेषकर मिजो उग्रवादी समूहों के साथ भारत सरकार की संधि के बारे में समझने में भी दिलचस्पी दिखाई। भारत का अनुभव शांति एवं सुलह के लिए जारी बातचीत में रास्ता दिखा सकता है।
इस बीच एनसीए के महत्वपूर्ण गुटों जैसे नार्दर्न अलायंस के शांति प्रक्रिया से बाहर रहते हुए शांति का निर्माण करना बहुत दुष्कर होगा। शांति प्रक्रिया समावेशी होती तो अधिक उचित होता। हालांकि बातचीत के जरिये होने वाली शांति प्रक्रिया का नतीजा सभी को संतुष्ट शायद नहीं कर सकेगा, लेकिन उसे अधिक से अधिक पक्षों की आवश्यकता के अनुरूप तो होना ही चाहिए। जातीय सशस्त्र गुटों को भी समझना होगा कि देश में केवल एक सेना हो सकती है, हर राज्य या प्रांत की सेनाएं नहीं हो सकतीं, जिनकी मांग उनमें से कुछ गुट स्वायत्तता की आड़ में कर रहे हैं। यदि सरकार छह महीने में होने वाली अगले चरण की वार्ता का सार्थक नतीजा चाहती है तो उसे पांगलोंग - 21 के अगले सत्र की तैयारी के लिए ढेर सारा काम करना होगा।
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