क्लॉजेवित्स की ‘ऑन वॉर’ में ‘डिफेंस’ नाम के उबाऊ शीर्षक वाली छठी पुस्तक के पहले अध्याय में उनके सामरिक ज्ञान की एक और झलक दी गई हैः ‘रोजमर्रा की जिंदगी में और खास तौर पर मुकदमेबाजी में (जो जंग से काफी मिलते-जुलते होते हैं) लैटिन कहावत ‘Beati Sunt Possidentes’ (हिंदी में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’) ही सही साबित होती है। एक और लाभ है, जो पूरी तरह युद्ध की प्रकृति से ही मिलता है और वह इस पर निर्भर करता है कि पलड़ा किसका भारी है और अक्सर रक्षा पक्ष का ही पलड़ा भारी होता है।’1 क्लॉजेवित्स बुद्धिमान तो थे, लेकिन वह भविष्यदर्शी नहीं थे। शासन कला हमेशा इस बात को समझती है कि युद्ध और शांति आपस में कितने गुंथे होते हैं। हमारे समय का चीन शासन कला में अपने कौशल का जमकर प्रदर्शन कर रहा है। भारतीय सामरिक समुदाय तथा मीडिया ने दक्षिण चीन सागर को करीब से देखा है, लेकिन वास्तविक वैश्विक एवं स्वाभाविक रूप से भारतीय चिंता उस व्यापक परिदृश्य पर टिकी होनी चाहिए, जिसमें चीन हमारे चारों ओर और दुनिया के कई अन्य भागों में अपना दबदबा कायम करना चाहता है। लैटिन अथवा संस्कृत उसी पुरानी कहावत को दोहराती हैं, जिसे हिंदी में “जिसकी लाठी उसकी भैंस” कहा गया है।
“अखंड” चीन?
वास्तव में चीन ने कभी किसी महत्वपूर्ण क्षेत्र पर दावा करने का मौका नहीं गंवाया है, उनमें से कुछ प्राचीन और कुछ मध्यकाल से संबंधित हैं। वह “अपमान” सहता रहा है। उसने अपना समय आने का इंतजार किया है, उस समय की अपनी सीमाएं पहचानीं और कई समझौतों में दूसरों की मांगें मानी हैं। कई क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं पर उसने कूटनीतिक मुलम्मा चढ़ा दिया है। हालांकि ज्यादातर संधियां असमान प्रकृति की हैं, लेकिन चीन में तकरीबन एक शताब्दी से देसी मामलों और कूटनीति में “असमान अथवा विषम संधि” शब्द का प्रयोग जमकर किया जा रहा है। इस शब्द का व्यापक प्रयोग उस समय से ही हो रहा है, जब ताकत से चलने वाली अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की दुनिया में चीन की कोई बिसात भी नहीं थी। फिर भी स्वयं को पीड़ित बताने और राष्ट्रीय उद्देश्य हासिल करने के मामले में यह ऑक्सीजन चाहे न रहा हो, ईंधन तो रहा ही था। इससे एक के बाद एक सरकारों को सामरिक दृष्टि तैयार करने में मदद मिली। एक बात तो महत्वपूर्ण भी है और ईर्ष्या के लायक भी - वह है “अखंड” चीन के प्रति अटल संकल्प, जो सत्ता और नेतृत्व में परिवर्तन के बावजूद जस का तस बना रहा है। आकार के लिहाज से आज के चीन से बड़ा “मध्य साम्राज्य” और वैश्विक प्रभाव, जो ब्रिटिश साम्राज्य के चरमोत्कर्ष काल के प्रभाव अथवा 1990 के दशक के अमेरिका के प्रभाव से भी संभवतः अधिक है, ही वे मुकाम हैं, जिनकी ओर चीनी शासन का जहाज बढ़ता जा रहा है। इस यात्रा के दौरान कुछ दावे ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं, लेकिन राष्ट्रहित के मामले में कोई कोताही नहीं बरती गई। इसलिए यदि आज से कुछ वर्ष अथवा कुछ दशक बाद चीन 1858 की ऐगुन संधि की “असमानताओं” को सामने लाता है और 1689 की संधि नेर्चिंक संधि में जिन क्षेत्रों का जिक्र है, उनकी याद दिलाते हुए रूस से कुछ क्षेत्र मांगता है तो अचरज नहीं होना चाहिए।
दृढ़ता, धैर्य और अवहेलना
जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत को अच्छी तरह समझ लें तो पुराने नक्शों, पुराने दस्तावेजों और दक्षिण चीन सागर में पुराने अधिकारों को ताक पर रखे जाने से भी अचरज नहीं होना चाहिए। महाशक्तियां जिन घरेलू अभियानों को आगे बढ़ाने का सपना देखती हैं, उनके लिए इतिहास को अपने तरीके से गढ़ा गया है और बदला भी गया है। औपनिवेशिक काल की जटिलताओं, दावों-प्रतिदावों और दावे छोड़ने के सिलसिले के बीच इसने द्वीप अथवा संसाधनों अथवा नौवहन के अपने अधिकारों के दावे कभी नहीं छोड़े। वियतनाम युद्ध के अंतिम दिनों में चीन ने लगातार, चोरी-छिपे और सैन्य तरीकों से जिस तरह पारासेल (शिशा) और स्पार्टली (नान्शा) द्वीपों के कुछ भाग पर कब्जा किया, वह ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के सिद्धांत में उसके यकीन को ही दर्शाता है।
इस लिहाज से असली मालिक अथवा कागजी सबूतों मसलन जुलाई, 2016 के स्थायी मध्यस्थता अदालत के फैसले को नकारने के उसके स्वभाव से अचंभा नहीं होना चाहिए। वास्तव में अचंभा तो इस बात पर था कि किस तरह कुछ विश्लेषक इस फैसले को न्याय की जीत मान रहे थे, अति-उत्साहित हो रहे थे और पासा पलटने वाला मान रहे थे।2 बेहद प्रभावशाली पूर्व राजनयिक दाई बिंगुओ की उस बात को अधिक गंभीरता से लिया जाना चाहिए था, जो उन्होंने दक्षिण चीन सागर पर फैसला आने के लभग एक सप्ताह पहले वॉशिंगटन में कही थी। उन्होंने कहा, “अगले कुछ दिनों में आने वाला मध्यस्थता का अंतिम निर्णय कागज के पुर्जे से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।” उन्होंने फिलीपींस ही नहीं बल्कि अन्य सभी पक्षों को भी साफ धमकी देते हुए कहा था कि “चीन हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठेगा।”3
मौजूदा संपत्तियों का विस्तार, बेहद जटिलता भरे कृत्रिम द्वीपसमूह की रचना और दूसरों के दावों को खत्म करना, ये सभी रणनीतियां चीन के काम आती हैं। चीन की “लाठी” बेशक और भी घातक हो गई है और वे नरमी से बोलने में भी आम तौर पर यकीन नहीं करते।
हिमालय पर डाका!
पड़ोस में स्थिति और गंभीर है, जहां हिमालय में भारतीय भूमि पर कब्जा हुआ है; अरुणाचल प्रदेश पर लगातार दावे हो रहे हैं; कराकोरम में पाकिस्तान ने चीन को भारतीय भूमि पर संप्रभुता प्रदान कर दी है। हमारा इसे विश्वासघात मानना एकदम ठीक है, लेकिन पाकिस्तान ने बहुत चतुराई के साथ 1963 में उस महत्वपूर्ण क्षेत्र को चीन की मिल्कियत बना दिया ताकि उसे भविष्य में कई तरह के लाभ मिल सकें। वास्तव में दलाई लामा को अथवा बेहद कमजोर हो चुके तिब्बत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक कायाकल्प को कमतर बताने और उसकी बदनामी करने से चीन कभी पीछे नहीं हटा है। दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा का वर्तमान विरोध अथवा भूमि की अदलाबदली के संबंध में नए सिरे से होने वाली बातचीत (जो भारत के लिए घाटे का सौदा होगी) का अनौपचारिक संकेत इस बात के सबूत हैं कि चीन ने अपनी शासन कला में तब्दीली नहीं की है और वह रणनीतिक रूप से कितना मुस्तैद रहता है। भारत में विभिन्न अलगाववादी समूहों को इसका स्पष्ट और खामोशी भरा समर्थन तब जगजाहिर हो जाता है, जब यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा)-(आई) सरीखे प्रतिबंधित संगठन के नेता परेश बरुआ जैसे लोग चीन के भीतर अपने विचार रखते हैं या वहां अपनी गतिविधियों में लिप्त रहते हैं।
यही देखते हुए हमें तवांग तथा दलाई लामा के मसले पर दाई बिंगुओ जैसे लोगों के बयानों पर गंभीरता से निगाह रखनी चाहिए। कम से कम मजबूत प्रतिरोधी उपाय और तैयारी की तो बहुत अधिक आवश्यकता है। हमारी विधायी, राजनीतिक एवं राजनयिक प्रक्रियाओं में लंबे अरसे से हम बहुत अधिक “जिम्मेदार” बने रहे हैं। हम बहुत नरमी के साथ बात करते हैं और सख्ती दिखाने से बचते हैं। अब बदलाव देखा जा सकता है, लेकिन इस बदलाव को हवा देने की जरूरत है और जो क्षेत्र हमने गंवा दिए हैं, उन्हें भारत का अखंड भाग बताने से कन्नी काटने की आदत को बदल दिया जाना चाहिए। हमारा पड़ोसी अगर “घुड़की“ देता है तो “मूल स्वामित्व” पर जोर देते रहने का कोई मतलब नहीं है। इसके अलावा भारत के अतिथि के रूप में 1959 से ही दलाई लामा की उपस्थिति के सांकेतिक महत्व से अधिक अहम तिब्बत का मसला और दलाई के बाद के काल में उसका लाभ उठाना है।
खत्म होगा ओबीओआर का सबसे अहम हिस्सा?
वन बेल्ट वन रोड (ओबीओआर) को भी इन “संपत्तियों” के संदर्भ में देखा जा सकता है। चीन की ओबीओआर के उन हिस्सों पर खास तौर पर नजर डालते हैं, जिन पर चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) का नकाब चढ़ा दिया गया है और जिसे दो वर्ष पहले “ओबीओर का ध्वजवाहक” कहा गया था।4 1963 में कराकोरम का क्षेत्र सौंपे जाने के बाद चीन ने “रेशम मार्ग” आने से बहुत पहले ही उसे तिब्बत के साथ अपना आंतरिक क्षेत्र बना लिया था। ग्वादर के बारे में चीन की योजनाएं, अफगानिस्तान में संसाधनों पर कब्जा करना, ईरान के साथ गलबहियां करना; ये सब ओबीओआर के विराट रणनीतिक सपने को साकार करने से बहुत पहले की घटनाएं हैं। किंतु पुनरावलोकन करें तो पता चलता है कि यह सब कुछ संभवतः रणनीतिक योजना के तहत किया गया था। ऐसी बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ जो भौतिक, राजनीतिक एवं वित्तीय जोखिम जुड़े हुए हैं, उन्हें देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि चीन सरकार नए बंदरगाहों, सड़कों, संसाधनों, बाजारों पर अधिकार करने तथा प्रभाव बनाने के प्रयास में व्याप्त जोखिम को कम करने के लिए क्या कर रही है।5 ऐसा उन्होंने व्यापक वित्तीय हथियारों के जरिये किया है, जिससे मजबूत लेकिन अप्रिय बोझ भी तैयार हो गए हैं। उदाहरण के लिए पाकिस्तान और संभवतः श्रीलंका के आंतरिक राजकोषीय प्रबंधन को चीन सरकार के फरमान के मुताबिक चलना होगा। बेशक यह काम गुपचुप तरीके से किया जाए और इसके लिए एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) जैसे वित्तीय उपकरणों का इस्तेमाल होगा।
किंतु राजनीतिक उथल-पुथल और सत्ता की नजरों से उतर जाने के खतरों को समझते हुए चीन जोखिम दूर करने के लिए सैन्य ताकत का इस्तेमाल भी कर रहा है। बलूचिस्तान और बाद में गिलगित-बल्टिस्तान के अनिश्चितता भरे राजनीतिक-भौतिक वातावरण में चीनियों की सैन्य ताकत की जरूरत पहले ही महसूस की जा रही है। सैन्य अभियान की क्षमता, सैन्य एवं नौसैनिक प्रतिष्ठानों की क्षमता बढ़ाने, पाकिस्तान के साथ सैन्य एवं परमाणु सहयोग घनिष्ठ करने जैसी सभी गतिविधियां उनकी दूरदर्शिता को दर्शाती हैं। कई मायनों में यह जोखिम प्रबंधन की उसी प्रणाली का दोहराव है, जो औपनिवेशिक शक्तियों ने अपने “रेशम मार्गों” का लाभ उठाने के लिए अपनाई थी।
यह उदाहरण है, जिसमें “जिसकी लाठी उसकी भैंस” से पाकिस्तान को भी फायदा मिल सकता है। गिलगित-बल्टिस्तान का बदला हुआ दर्जा इसका उदाहरण है। ग्वादर में चीनी कंपनियों और एजेंसियों को दिए गए अधिकार दूसरा उदाहरण हैं। सिंधु के अधिक जल पर “अधिकार” की बात का नए सिरे से जोर पकड़ना एक और उदाहरण है। वे संसद में बिल्कुल अप्रसांगिक हो चुके प्रस्ताव को नजरअंदाज भी कर सकते हैं। (इस प्रस्ताव संख्या 1107 पर केवल एक सदस्य का हस्ताक्षर था!)66 अपनी महत्वाकांक्षी रणनीति को चीन की रणनीति से लगातार जोड़ने के बाद दोनों का जोखिम कम करने के लिए पाकिस्तान को कई मामलों में झुकना होगा। दिलचस्प है कि पाकिस्तान की राजनीति संभवतः हमेशा ही क्षेत्रीय संप्रभुता से समझौता करने वाली रही है। आखिरी परिणाम जो भी रहा हो, उन्होंने विदेशी आतंकी संगठनों को अपनी धरती से काम करने दिया है। विदेशी सैनिक युद्ध के लिए भी दूसरे क्षेत्रों में जाने के लिए भी उनके प्रांतों में आ जाते हैं। नाखुशी और आंतरिक राजनीतिक जटिलताओं के बावजूद वहां की सरकार विदेशी हथियारों को अपनी भूमि पर गिरने देती है। वास्तव में वे 1971 में लगभग आधा देश गंवा देने की बात अब पचा चुके हैं। चीनी निवेश की रक्षा के लिए चीनी सैनिकों/अर्द्धसैनिक बलों को अपने यहां रहने देना पाकिस्तान सरकार के लिए बहुत बड़ा कदम नहीं होगा। वास्तव में ऐसा लगेगा कि पाकिस्तान को भी मुल्क के भीतर चीन के इतने नियंत्रण का फायदा मिल सकता है। यह भारत के लिए अच्छी हो सकती है कि पाकिस्तान आग से खेल रहा है, लेकिन सीपीईसी का बेड़ा गर्क होने के लिए शायद इतना काफी नहीं होगा। इसके लिए हमें जबरदस्त कल्पनाशीलता और सक्रियता दिखानी होगी।
चीन का जोखिम प्रबंधन
चाहे चतुराई बरतने का खमियाजा भुगतना पड़े, चीन सरकार घाघ ही बनी रहती है। विभिन्न देशों में बातचीत के मामले में चीन का पलड़ा भारी होने से राजनीतिक अस्थिरता का भी इलाज हो जाता है। श्रीलंका इसका उदाहरण है। मौजूदा सरकार की चुनावी जीत में चीन के निवेश तथा उससे जुड़े भ्रष्टाचार के मसलों का भी हाथ रहा है। अब वह चीनी धन के चक्कर में पड़ी हुई है और कर्ज के भंवर में फंसती जा रही है। विडंबना है कि चीन को भू-आर्थिक-राजनीतिक स्थान देने वाली पिछली सरकार अब श्रीलंका में चीन की घुसपैठ के कुछ हिस्से का विरोध कर चुनाव में फायदा उठाना चाह रही है। चीन के नजरिये से स्थिति कुल मिलाकर अच्छी है; मौके बने रहेंगे और जोखिम सभी सरकारों में आपस में बंटकर कम हो जाएगा। फिलीपींस में वर्तमान सरकार के साथ चीन का बर्ताव अथवा म्यांमार में आंग सान की व्यवस्था पर उसका प्रभाव बताता है कि उनकी शासन कला कितनी चतुराई भरी है।
कागजी अधिकारों से ताकत की ओर बढा जाए?
भारत और जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत का क्या? अगर हमें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और अक्साईचिन के मामले में “भारत का अखंड भाग...” सरीखा दशकों पुराना राग छोड़ना है तो हमें अधिक मजबूती भरी विराट रणनीतिक योजना की आवश्यकता होगी। हाल के महीनों में हमने कुछ अच्छे युक्तिसंगत कदम उठाए हैं और उम्मीद है कि हम आंतरिक रणनीतिक योजना के अनुरूप लगातार ऐसा करते रहेंगे।
नीति बनाने वाले प्रत्येक व्यक्ति और नीति को क्रियान्वित करने वाले व्यक्ति को चतुराई भरी रणनीतिक योजना के जरिये यह बात आत्मसात करनी होगी कि कूटनीति, सैन्य शक्ति, आर्थिक क्षमता शासन कला के साधन हैं, उसके लक्ष्य नहीं। ओबीओआर तथा सीपीईसी से दूर रहना ही उचित और आवश्यक है और सुशांत सरीन ने इसको बहुत तार्किक तरीके से समझाया है।7
जिम्मेदार देश: इस तमगे को हटाना जरूरी
अपने संसाधनों और विशेषताओं का लाभ उठाने की बात करें तो यह विडंबना ही है कि नदी का स्रोत हमारे यहां होने के बाद भी हम दूसरों से “जिम्मेदार” देश का बिल्कुल निरर्थक और बेकार तमगा हासिल करने की खुशी मनाते आए हैं। पानी हमारा है, लेकिन ज्यादा फायदा पाकिस्तान उठाता है। नदी के स्रोत के तौर पर चीन इस मामले में अलग सोचता है और हम उसकी “गैरजिम्मेदारी” पर नाराज भी नहीं होते। अपने क्षेत्रीय अधिकारों के लिए अगर हम लगातार राजनीतिक-कूटनीतिक अभियान चलाएं तो उसका वैसा ही परिणाम हो सकता है, जैसा दक्षिण एवं पूर्व चीन सागरों में चीन के अभियान का हुआ है। यह भी आश्चर्यजनक ही है कि भारत के भीतर टिप्पणीकारों के कुछ खास वर्ग के लिए “जिम्मेदार देश” शब्द का अर्थ दूसरे देशों से सराहना पाना भर है। गंभीर उकसावे की स्थिति में संयम बरतने अथवा पहले प्रयोग नहीं करने की अपनी नीति पर पुनर्विचार कर परमाणु निवारण पर जोर देने के मामले में भी यही बात लागू होती है। इस बात का ठोस तरीके से भान हुए अभी बहुत समय नहीं बीता है कि देश अथवा सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी यह है कि वह महत्वाकांक्षी रणनीतिक योजना को अपने नागरिकों के लिए लागू करे, कूटनीतिक सराहना हासिल करने के लिए नहीं और व्यापक तथा समग्र राष्ट्रशक्ति भी उन्हीं के लिए तैयार करे।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अथवा परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह की सदस्यता के लिए चीन के समर्थन की झूठी आशा में कई वर्ष यूं ही निकल गए हैं। बदले में हम हर किसी से अच्छा बर्ताव करते आए हैं, लेकिन हमें फायदा मामूली ही हुआ है। शासन की कला में कमजोरी, सुशीलता और सौम्यता से कुछ नहीं मिलता। किसी भी देश को न्योता देकर कभी ऊंचे स्थान पर नहीं बिठाया जाता; वह मुकाम छीनना पड़ता है।
अंत में कागजों या असली अधिकार के मामले में कितनी भी मजबूती दिखाई जाए, ताकत हासिल करने की दिशा में केवल इतना ही किया जा सकता है। ताकत अथवा असली संसाधनों पर चीन और पाकिस्तान बैठे हैं, जो उन्होंने युद्ध में अपनी बढ़त के जरिये हासिल किए हैं। जब तक हम संपत्तियों की रक्षा करने की उनकी क्षमता पर खतरे नहीं बढ़ाते हैं तब तक गंवाए हुए क्षेत्र फिर हासिल करने की संभावना बहुत कम ही है। संभवतः हमें इस बात पर गहन विचार करना होगा कि महाशक्ति बनने के लिए ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ को अपना सिद्धांत कैसे बनाया जाए।
संदर्भ
1 क्लॉजेवित्स, कार्ल वॉन, ऑन वॉर, माइकल हॉवर्ड एवं पीटर पैरेट द्वारा संपादित तथा अनूदित, प्रिंसटन (1984), पृष्ठ 358, क्लॉजेवित्स दूरदर्शी नहंी थे, यह बात केवल इस बात पर जोर देने के लिए है कि भू-राजनीतिक लाभ हासिल करने की कोशिश में ताकत जरूरी है। इस वाक्य का प्रयोग सबसे पहले संभवतः प्राचीन यूनानी नाटक यूरिपिडीज में हुआ था।
2 इसका उदाहरण 27 जुलाई, 2016 को द डिप्लोमैट में प्रकाशित अलेक्जेंडर एल वुविंग का लेख “व्हाई द एससीएस रूलिंग इज अ गेम चेंजर” है। इसमें आशावादिता के कई कारण हैं। उनमें से दो में पहला यह है कि फैसले से न तो चीन को वास्तव में धक्का लगा है और न ही फिलीपींस अपने पक्ष में वास्तविक समाधान पर अड़ियल रवैया अपना रहा है। चीनी शासन का आकलन यह है कि फैसले के बाद ड्यूटर्टे प्रशासन नरम ही पड़ा है, उसने सख्त रुख नहीं अपनाया है! वास्तव में इस दक्षिण चीन सागर में कुछ तटवर्ती पक्षकार देश अभी अधिक खामोश दिख रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि लाठी अर्थात् अधिकार कितने जरूरी हैं।
3 अनुवाद rdcy-sf.ruc.edu.cn पर उपलब्ध है, जिसे 21 फरवरी, 2017 को डाउनलोड किया गया। अनुवाद उस बयान से कुछ अलग है, जो पिछले नोट में अलेक्जेंडर वुविंग ने दाई बिंगुओ के हवाले से बताया था।
4 http://www.fmprc.gov.cn/mfa_eng/topics_665678/ytjhzzdrsrcldrfzshyjxghd/t [3]... http://www.fmprc.gov.cn/mfa_eng/topics_665678/ytjhzzdrsrcldrfzshyjxghd/t [3]... 5 अप्रैल, 2017 को डाउनलोड किया गया।
5 ओबीओआर के बारे में समझ बनाने में लेखक को यूएसआई, नई दिल्ली में भारतीय नौसेना के साथी एम. एच. राजेश द्वारा किए गए श्रमसाध्य शोध से बहुत सहायता मिली है। इसके अलावा चीन तथा चीन के इतिहास से भी बहुत व्यापक समझ विकसित हुई है।
6 ब्रिटिश संसद का प्रस्ताव https://www.parliament.uk/edm/2016-17/1107 [4] 4 अप्रैल, 2017 को डाउनलोड किया गया। भारतीय मीडिया तथा टिप्पणीकारों ने इसे बहुत महत्व दिया, जबकि यह अर्ली डे मोशन (1107) था, जिस पर केवल एक ही सदस्य ने हस्ताक्षर किया था!
7 सुशांत सरीन, न्यू लॉण्ड्री में 3 अप्रैल, 2017 को प्रकाशित लेख https://www.newslaundry.com/2017/04/03/obor-and-chinas-attempts-at-bring [5]... 4 अप्रैल, 2017 को डाउनलोड किया गया।
Links:
[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/may/02/jiski-lathi-uski-bhans-chini-shasankala-ka-raag
[2] https://www.vifindia.org/author/rear-admiral-sudarshan-shrikhande
[3] http://www.fmprc.gov.cn/mfa_eng/topics_665678/ytjhzzdrsrcldrfzshyjxghd/t
[4] https://www.parliament.uk/edm/2016-17/1107
[5] https://www.newslaundry.com/2017/04/03/obor-and-chinas-attempts-at-bring
[6] http://www.vifindia.org/article/2017/april/10/beati-sunt-possidentes-blessed-are-those-in-possession
[7] http://pakchinanews.pk
[8] http://www.facebook.com/sharer.php?title=जिसकी लाठी उसकी भैंस: चीनी (और पाकिस्तानी) शासनकला का राग&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/China-to-extend-assistance-at-1.6-percent-interest-rate-3-Sep-1_0.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/may/02/jiski-lathi-uski-bhans-chini-shasankala-ka-raag
[9] http://twitter.com/share?text=जिसकी लाठी उसकी भैंस: चीनी (और पाकिस्तानी) शासनकला का राग&url=https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/may/02/jiski-lathi-uski-bhans-chini-shasankala-ka-raag&via=Azure Power
[10] whatsapp://send?text=https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/may/02/jiski-lathi-uski-bhans-chini-shasankala-ka-raag
[11] https://telegram.me/share/url?text=जिसकी लाठी उसकी भैंस: चीनी (और पाकिस्तानी) शासनकला का राग&url=https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/may/02/jiski-lathi-uski-bhans-chini-shasankala-ka-raag