गत 24 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिला में एक नक्सली हमले को अंजाम दिया गया, जिसमे एक सीआरपीएफ के 24 जवान शहीद हो गए। छत्तीसगढ़ का यह सुकमा जिला नक्सल प्रभावित रहा है और यहां पहले भी कईबार नक्सलियों द्वारा हमले किये जाते रहे हैं। गौरतलब है कि पहले भी सन 2010 में हुए नक्सली हमले में 74 जवान शहीद हुए थे। वर्ष 2013 में हुए हमले में कई बड़े नेता मारे गये थे। वर्ष 2015 के अप्रैल महीने में भी सुकमा में नक्सलवादी हमला हुआ था, जिसमे हमारी सेना के एक कमांडर सहित 8 जवान शहीद हुए थे। अभी इसी वर्ष पिछले मार्च महीने की 11 तारीख को भी सुकमा जिले में एक नक्सली हमले को अंजाम दिया गया, जिसमें 12 जवानों की शहादत हुई थी। छत्तीसगढ़ का सुकमा जिला देश के उन 35 जिलों में आता है जो नक्सलवाद के प्रभाव के लिहाज से अतिसंवेदनशील माने जाते हैं। सुकमा में जवानों पर हुए इन हमलों ने इस बात की तस्दीक की है कि बेशक नक्सलियों पर नकेल की बात की जा रही हो लेकिन अभी भी नक्सली आतंकी इन क्षेत्रों में सक्रिय हैं। वर्ष 2014 में भाजपा-नीत सरकार के गठन के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सल समस्या पर कहा था कि ‘हमारी सरकार ‘जीरो-टोलरेंस’ नीति पर काम करेगी।; हालांकि वर्ष 2013 के बाद नक्सली मूमेंट में कुछ हद तक कमी जरुर दिखी थी, मगर पिछले कुछ महीनों में सुकमा में हुए हमलों से यह साफ़ हुआ है कि सरकारी सख्ती से नक्सली लड़ाके सुस्त जरुर हुए हैं, लेकिन यह समस्या पूरी तरह से समाप्त नही हुई है। सुकमा में हुए इस हमले के बाद देश की आन्तरिक सुरक्षा को चुनौती दे रहे नक्सलवाद को लेकर एकबार फिर कई सवाल खड़े होने लगे हैं। सबसे बड़ा सवाल ये है कि पांच दशक से देश में पाँव पसार रहे नक्सलवाद पर लगाम लगाने में आखिर हमारा तंत्र पूरी तरह कामयाब क्यों नहीं हो पा रहा है ? वहीँ दूसरा सवाल ये है कि आखिर नीतिगत स्तर पर नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए किस ढंग के प्रयास किये जाने चाहिए ?
इन तमाम सवालों को समझने के लिए नक्सलवाद के संक्षिप्त इतिहास एवं इसके राजनीतिकरण की वजहों को समझना जरुरी होगा। इसमें कोई शक नही कि साठ के दशक में चारु मजुमदार के नेतृत्व में हक़ और हकूक की लड़ाई के नाम पर पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से नक्सल आन्दोलन शुरू हुआ था। शुरूआती दौर में इसे एक राजनीतिक आन्दोलन बताया गया था। मगर समय के साथ-साथ यह आन्दोलन अपने मूल चरित्र के साथ सामने आता गया और आज इसका असली चरित्र सबके सामने है। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ वह तथाकथित आंदोलन आज आंदोलन भी कहा जाना चाहिए कि नहीं यह बात आज संदिग्ध बहस के घेरे में है। हक और हकूक की लड़ाई कब और किस तरह आंदोलन से भटककर आतंकवाद का रूप पकड़ लेती इसका प्रमाण पिछले कुछ सालों में हुई नक्सली वारदातों से मिलता रहा है। हालांकि इस हिंसा की प्रवृति को जनताना आन्दोलन का नाम देकर बौद्धिक पोषण देने का काम भी होता रहा है। लेकिन हिंसा की शर्तों पर एक लोकतांत्रिक राज्य को चुनौती देना किसी भी नजरिये से न तो लोकतांत्रिक कहा जा सकता है न ही मानविक ही कहा जा सकता है। नक्सल प्रभावित राज्यों में हुए पिछले तमाम चुनावों ने यह साबित किया है कि वहां की स्थानीय जनता, जिनकी आड़ लेकर नक्सलवादी इस हिंसाचार को अंजाम दे रहे हैं, ने नक्सलवाद को पूरी तरह से खारिज किया है। यह प्रमाणित तथ्य है कि नक्सलियों के विरोध और आह्वान के बावजूद छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में लगभग 70 फीसद तक मतदान हुआ था। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि स्थानीय जनता नक्सलियों के साथ बिलकुल भी नहीं है। यह समय नक्सली समर्थन के विचारधारा वाले कथित बुद्धिजीवियों के आत्ममंथन का भी है कि आखिर ऐसी क्या वजह है कि जिस आंदोलन को वो जनताना सरकार की मांग की हिंसक शर्तों पर चलाते रहे हैं उसी कथित हिंसक एवं तथाकथित जनताना आंदोलन के खिलाफ उसी के गढ़ में 68% आम जनता का बहुमत हमेशा से खड़ा रहा है। वर्तमान लोकतान्त्रिक स्वरुप के पक्ष में खड़ी जनता का बहुमत क्या यह सोचने पर मजबूर नहीं कर रहा कि आंदोलन के इस हिंसात्मक ढंग को देश की जनता नकार चुकी है और अब नक्सली नेताओं को भी हिंसा का रास्ता छोड़कर लोकतंत्र में जगह बनाकर अपनी लड़ाई लड़नी चाहिए ?
यह नक्सलवाद के समर्थक बुद्धिजीवियों के लिए भी आत्ममंथन का विषय है। नक्सलवाद का समर्थन करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों का जिक्र इसलिए जरुरी है क्योंकि अब यह महज संदेह तक सीमित बात नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय से एक प्रोफ़ेसर को वर्ष 2014 में नक्सलियों से संबंध होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और अभी हाल में ही गढ़चिरौली की अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाई है। जब दिल्ली के एक विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर का तार नक्सलियों से जुड़ता है तो इस संदेह को पुख्ता करता है कि बस्तर के जंगलों में नक्सलवाद की जो फसल लहलहा रही है, उसकी बौद्धिक खुराक इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों से मिलती है। कहीं न कहीं अलगाववाद, बहुराष्ट्रवाद एवं सर्वहारा की तानाशाही सहित वर्गशत्रु की अवधारणा को वैचारिकी का जामा पहनाकर देश में अस्थिरिता की स्थिति पैदा करने की कोशिश कुछ मोर्चों पर की जा रही है, जिसका परिणाम है कि आज भी नक्सलवाद की हिंसक गतिविधियाँ जहाँ-तहाँ सक्रीय हैं।
अब अगर इस समस्या की मूल वजह एवं इसके निराकरण पर बात करें तो यह कई बार कहा जा चुका है कि भारत में वामपंथी आन्दोलन का यह नक्सली स्वरुप भारत के अहित में जुटे बाहरी देशों द्वारा प्रायोजित है। चूँकि यह अपने आप में विरोधभास पैदा करने वाली बात है कि जो रोटी की लड़ाई लड़ रहे हों, उनके हाथ में महंगे मशीनगन जैसे खतरनाक हथियार कौन दे रहा है ? दरअसल भारत में आंतरिक अस्थिरता का माहौल कायम रहे, इसलिए सीमापार नक्सलवादियों को मदद मिलती रही है। ऎसी ख़बरें अकसर ही सुनने और पढने को मिलती हैं कि नेपाल के रास्ते नक्सलियों की मदद की तमाम कोशिशों को अंजाम दिया जाता रहा है। लिहाजा भारत को नेपाल से सटी लम्बी सीमा की सुरक्षा नीति की भी पड़ताल करनी होगी। जंगल,जमीन के नाम पर हथियार के बूते राज्य और संविधान के अस्तित्व को नकार रहे नक्सलादी संगठनों की ताकत के स्रोतों पर निगरानी कसने की दिशा में ठोस पहल करने की जरुरत है। सरकार को सबसे ज्यादा ध्यान इस मोर्चे पर देना चाहिए कि आखिर नक्सलियों को हथियार और पैसा कहाँ से मुहैया हो रहा है! अगर इस स्त्रोत को बंद कराने में हमारा तंत्र कामयाब हो गया तो नक्सली अपने-आप पस्त पड़ जायेंगे। हालांकि इस दिशा में वर्तमान की सरकार ने कुछ कदम जरुर उठाए हैं लेकिन अभी भी वो पर्याप्त नहीं साबित हो रहे। भारत एक संप्रभुतासंपन्न लोकतांत्रिक राज्य है एवं एक राज्य के तौर पर इसकी अपनी भौगोलिक सीमाएं हैं। बतौर राज्य यहाँ की सरकारों का दायित्व है कि वो इस राज्य-क्षेत्र के आंतरिक एवं वाह्य सुरक्षा का ख्याल करे। ऐसी स्थिति में एक हिंसात्मक विचारधारा का संगठन लगभग चालीस सालों से देश को अस्थिर करने जैसी देशद्रोही मुहीम को अंजाम दे रहा है, तो यह चिंताजनक है। नक्सलवाद के प्रति दबी हुई सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवियों का एक तर्क सुनने को मिलता है कि जबतक आदिवासी क्षेत्रों के लोगों को मुख्यधारा में लाने का काम नहीं होगा तबतक यह संघर्ष चलता रहेगा। सबसे पहली बात तो यह है कि नक्सलवाद कोई सामजिक आन्दोलन अथवा संघर्ष नहीं बल्कि एक किस्म की आतंकवादी गतिविधि है। विकास आएगा तो नक्सलवाद जाएगा, इस सैद्धांतिक फार्मूले की बजाय हमें इसतरह से भी सोचने की जरूरत है कि जब नक्सलवाद जाएगा तो विकास स्वत: आएगा। हमें समझने की जरूरत है कि नक्सलवाद विकास में बाधक है न कि विकास की मांग के फलस्वरूप यह सबकुछ हो रहा है। यहाँ समझना होगा कि ऐसे मसलों दो नीतियों की राह पर चलकर सुलझाने का प्रयत्न करना भी घातक होगा। नक्सलवाद के रहते कहीं न कहीं आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से भारत भी एक संकटग्रस्त देश बनता जा रहा है। देश के तमाम जिलों में नक्सलवाद की वाह्य पोषित जंग चल रही है ऐसे में सरकार को सख्त नीति अपनाते हुए राज्यद्रोही विद्रोहियों के खिलाफ सख्ती की नीति पर चलना होगा। आम जनता ने चुनावों के माध्यम से संसदीय लोकतंत्र में अपनी आस्था को समय-समय पर प्रदर्शित किया है, लिहाजा ऐसा मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि वहां के स्थानीय सामान्य लोगों की भावना लोकतंत्र के साथ है। देश लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत राजनीतिक शासकीय व्यवस्था होने के नाते इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों से समाजिक तौर पर जुड़ने और समाज से राजनीतिक संवाद के माध्यम से जुड़ाव पैदा करने की पहल भी होती रहनी चाहिए। ऐसे मामले में बिना किसी लाग-लपेट के ‘जीरो-टोलरेंस’ नीति ही देश में पनप रहीं इन समस्याओं से निजात के लिए कारगर हो सकती है। सुकमा में जो वारदात हुई है, उससे सबक लेते हुए हमारी सरकार को नक्सलियों के खिलाफ कई मोर्चों पर घेरेबंदी करने की जरूरत है। मसलन, स्थानीय सुरक्षा के अत्याधुनिक इंतजाम, नक्सलियों के ताकत के स्रोतों पर नकेल की कवायदों, भारत-नेपाल सीमा पर चौकसी। इन तमाम उपायों को अमल में लाये बिना नक्सलवाद के इस नासूर से देश को छुटकारा दिलाना सम्भव नहीं दिख रहा है। फिलहाल तो इन नक्सलियों को आन्दोलनकारी कहने की बजाय उग्रवादी कहा जाना ज्यादा प्रासंगिक नजर आता है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के एडिटर हैं)
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