उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली जबरदस्त जीत ने वह शर्मिंदगी लगभग मिटा दी है, जो पार्टी को दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में मिली थी। दोनों राज्यों में तीन-चौथाई बहुमत मिलने के साथ ही मणिपुर में भी भाजपा ने धमाकेदार शुरुआत की। 60 सदस्यों वाली विधानसभा में अभी तक भाजपा का कोई भी प्रतिनिधि नहीं था, लेकिन सीधे 21 सदस्यों के साथ उसने पूर्वोत्तर में अपनी पकड़ बढ़ाने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम उठाया है। कुछ महीने पहले ही इसने असम को कांग्रेस के हाथ से छीन लिया था और अरुणाचल प्रदेश में उसने मुख्यमंत्री और उनकी टीम को अपने पाले में कर लिया, जिससे पूर्वोत्तर के दूसरे राज्य में औपचारिक रूप से भाजपा की सरकार बन गई। मणिपुर में क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन हासिल कर भाजपा ने वहां भी अपनी पैठ बना ली है।
बहरहाल भाजपा को अवसर और चुनौती उत्तर प्रदेश से ही मिली है। मतदाताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी और 403 सदस्यों वाली विधानसभा में पार्टी को 300 से ज्यादा सीटें दे डालीं। आंकड़े चौंकाने वाले हैं और यह तथ्य भी अद्भुत है कि राज्य विधानसभा में किसी पार्टी ने 37 वर्ष बाद 300 का आंकड़ा पार किया है। इसके बाद भी असली बात कुछ और है। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों की कहानी दोहराते हुए उत्तर प्रदेश की दो सबसे प्रभावशाली क्षेत्रीय पार्टियों - समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) - का लगभग सफाया ही कर दिया है। चूंकि सपा और बसपा दोनों की बुनियाद जातिवाद में है, इसीलिए यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि मतदाताओं ने इन दोनों पार्टियों की जाति आधारित अपील खारिज कर दी है और विकास के साथ खड़े हो गए हैं, जिसका वायदा नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा ने किया है। इससे पता चलता है कि ‘जाति के आधार पर वोट देने’ का अभी तक का चलन खत्म हो गया और यह आश्चर्यजनक तथा स्वागतयोग्य है। इससे दोनों पार्टियों को भी संदेश मिल गया है कि अपनी चुनावी प्राथमिकताएं बदलें या भविष्य में भी ऐसा ही अपमान झेलें।
दूसरी बात यह है कि सपा और बसपा ने राज्य में अल्पसंख्यक (यानी मुस्लिम) समुदाय को इस तरह लुभाया था मानो उन्होंने उसे कर्ज दे रहा था। फिर भी 20 प्रतिशत या अधिक मुस्लिम आबादी वाले 100 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा के उम्मीदवार ही जीते। इससे पता चलता है कि थोड़ी संख्या में ही सही, लेकिन अल्पसंख्यक मतदाता अब धर्म के आधार पर ही नहीं सोचते।
ये रोचक बातें हैं और उत्तर प्रदेश के जातिवादी समाज में उभरते मतदान के नए चलन की ओर संकेत करती हैं। अगर यही चलन बरकरार रहा तो देश भर में चुनावी राजनीति में इसी प्रकार का बदलाव हो सकता है। लेकिन नया चलन बरकरार रहेगा या नहीं, यह उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ हुई भाजपा नीत सरकार के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा। नई सरकार को बहके बगैर समावेशी विकास के रास्ते पर चलना होगा और सभी समुदायों एवं जातियों को साथ लेना होगा। उसके पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में “नए भारत” की राजनीति करने का स्वर्णिम अवसर है।
गोवा में भी मणिपुर की ही तरह हुआ, जहां भाजपा कांग्रेस के बाद दूसरे स्थान पर रही थी, लेकिन गठबंधन बनाने में आगे रही। पार्टी इतनी फुर्तीली निकली कि चुनाव परिणाम आने के 24 घंटे के भीतर उसने मुख्यमंत्री का फैसला कर लिया (मनोहर पर्रिकर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाल लिया और मुख्यमंत्री के तौर पर भेज दिया) और क्षेत्रीय पार्टियों का समर्थन हासिल कर लिया। दोनों ही मामलों में कांग्रेस सोती रही। उसे केवल पंजाब में खुश होने का मौका मिला। शिरोमणि अकाली दल - भाजपा गठबंधन को पटखनी देते हुए और दिल्ली से बाहर पांव पसारने की आम आदमी पार्टी (आप) की उम्मीदें धूल में मिलाते हुए पार्टी ने जोरदार जीत हासिल की। लेकिन इस जीत का जश्न मनाते समय कांग्रेस को याद रखना चाहिए कि पंजाब का नतीजा भाजपा की हार नहीं था क्योंकि उसे अकाली दल के खिलाफ जनादेश माना जा रहा है, जो राज्य में बड़ी पार्टी है। इसके उलट उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस को जो करारी हार मिली है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि मतदाताओं ने पार्टी के तथाकथित केंद्रीय नेतृत्व को खारिज कर दिया है।
कांग्रेस के लिए अब स्थिति खतरनाक है और भाजपा के लिए मनोबल बढ़ाने वाली। कांग्रेस पूर्वोत्तर, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण या दूसरे शब्दों में कहें तो पूरे देश में सिमट रही है। असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश हाथ से निकलने के बाद अब उसके पास केवल मेघालय और मिजोरम बचे हैं। अगले वर्ष नगालैंड और त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए कांग्रेस के लिए मुश्किल भरा समय है। उदाहरण के लिए मेघालय में भाजपा के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे सहयोगी हैं और मिजोरम में वह मिजो नेशनल फ्रंट के साथ जाएगी। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस का वर्चस्व खतरे में है और वाम मोर्चे की सरकार वाले त्रिपुरा में भाजपा उसे दूसरे स्थान से भी धकेल रही है। लगभग एक वर्ष पहले भाजपा ने नगर निकाय के चुनावों में अपने प्रदर्शन से प्रतिद्वंद्वियों को चौंका दिया था। पहली बार उसने चार वार्ड जीते थे और ज्यादातर नगरपालिकाओं में कांग्रेस से आगे रही थी।
पूर्वोत्तर की राजनीति पर भाजपा का ध्यान विशेष गठबंधन पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठबंधन (नेडा) का नतीजा है। यह पूर्वोत्तर क्षेत्र में मौजूद विभिन्न गैर कांग्रेस पार्टियों का सामूहिक संगठन है, जो लगभग एक वर्ष पहले अस्तित्व में आया। इसके पीछे दो कारण थेः पहला, कांग्रेस के प्रभावी विकल्प के रूप में एक भाजपा-हितैषी गठबंधन प्रस्तुत करना और दूसरा, पूर्वोत्तर की आकांक्षाओं तथा अनूठी पहचान को बढ़ावा देना। यह चतुराई भरा सामाजिक-राजनीतिक दांव था और इसके नतीजे दिखने लगे हैं। असम के वरिष्ठ राजनेता हिमंत बिस्व सरमा नेडा के राष्ट्रीय संयोजक हैं। भाजपा नीत गठबंधन की अगुआई करते हुए वह पूर्वोत्तर का दौरा करते रहे हैं। राहुल गांधी के नेतृत्व से उकताकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी और असम में चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए थे। उसके बाद उन्होंने राज्य में नई पार्टी की जीत की पटकथा लिखने में अहम भूमिका निभाई; आखिरी दिनों में वह मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनवाने के प्रयास में बहुत सक्रिय रहे थे। नगा पीपुल्स फ्रंट और नेशनल पीपुल्स पार्टी का समर्थन हासिल करने में उनके प्रयासों की भूमिका बहुत अहम रही।
भाजपा का अगला बड़ा मुकाबला तो बेशक गुजरात विधानसभा चुनावों में है, जो वर्ष के अंत में होंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य में पार्टी 19 वर्ष से सत्ता में है, जिस दौरान 12 वर्ष तक स्वयं मोदी मुख्यमंत्री रहे। लेकिन गुजरात अन्य कारणों से भी महत्वपूर्ण है। भाजपा को सदैव से कांग्रेस से सीधे मुकाबला करना पड़ा है और आगामी चुनाव में भी इसमें बदलाव आने की संभावना नहीं है। कांग्रेस को हार्दिक पटेल के कारण भाजपा की संभावनाओं को धक्का पहुंचने की उम्मीद रहेगी। हार्दिक पटेल को शिव सेना का समर्थन हासिल है, जो अपनी सहयोगी को केंद्र तथा महाराष्ट्र दोनों स्थानों पर शर्मिंदा करने में कोई असर नहीं छोड़ रही। हालांकि अभी तक जो भी दिख रहा है, उससे नहीं लगता कि स्वयंभू पटेल नेता वोट खींच पाएगा, लेकिन भाजपा को पटरी से उतारने की बेचैनी में कांग्रेस उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर सकती है।
इसके अलावा कांग्रेस हाल ही में राज्य पंचायत चुनावों में भाजपा को लगे झटके का भी फायदा मिलने की उम्मीद कर रही है। 2010 में महज एक जिला पंचायत वाली कांग्रेस ने 2015 के स्थानीय निकाय चुनावों में 24 पंचायतों में जीत दर्ज की। दूसरी ओर 31 में से 30 पंचायतों पर आसीन भाजपा केवल छह में सिमट गई। यह कहना पड़ेगा कि पार्टी ने इस झटके का तेजी से जवाब दिया और मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के स्थान पर नया नेता चुन लिया। सही हो या गलत, लेकिन यह धारणा जरूर बन गई थी कि आनंदीबेन पटेल पार्टी को प्रेरित करने में और नौसिखिये हार्दिक पटेल की चुनौती का सामना करने में नाकाम रहीं।
हालांकि हार्दिक पटेल की बात को राज्य चुनावों में बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जा सकता है, लेकिन इससे पेचीदा स्थिति में उसी तरह नया पेच जुड़ जाएगा, जैसा आप की मौजूदगी से होगा। आप ने गुजरात विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है। उसके पास न तो कोई नामवर स्थानीय नेता है और न ही कार्यकर्ता, लेकिन जहां भी अरविंद केजरीवाल जाते हैं, वहां उत्पात मचाना ही उसका मकसद होता है। अगर वह गंभीरता से चुनाव लड़ती है तो क्या पता कि वह भाजपा को चोट पहुंचाएगी या कांग्रेस के वोट खाएगी। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो राज्य में उसका संगठन मजबूत है, लेकिन उसके नेतृत्व को यह पता ही नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता का मुकाबला कैसे किया जाए। इसके अलावा लगभग दो दशक तक सत्ता से दूर रहने के बाद अब पार्टी की राज्य इकाई चरमराने लगी है।
दिल्ली की सफलता के बाद आप को लगा कि राष्ट्रीय पार्टी बनने का मौका उसके पास है। उसके नेता केजरीवाल ने वाराणसी से मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ा और बुरी तरह से हार गए। इस पटखनी के बाद पार्टी ने उत्तर प्रदेश में इस बार विधानसभा चुनाव लड़ने का नाम तक नहीं लिया। उसके बजाय उसने अपनी ऊर्जा और उम्मीदें पंजाब और गोवा में लगाईं। उसे पंजाब से बहुत उम्मीद थी क्योंकि लोकसभा में उसके चारों उम्मीदवार यहीं से चुने गए थे। केजरीवाल से लेकर नीचे तक के सभी वरिष्ठ पार्टी नेताओं ने राज्य में जोर-शोर से प्रचार किया, अकाली दल-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस दोनों को जमकर कोसा, सोशल मीडिया और अन्य स्थानों पर दोनों के खिलाफ बहुत कुछ बोला। लेकिन आप को उस समय समझ जाना चाहिए था, जब वह नवजोत सिंह सिद्धू को अपने पाले में नहीं ला पाई (सार्वजनिक तौर पर एक-दूसरे को भला-बुरा कहा), जब उसके नेता सिखों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली विवादित गतिविधियों में लिप्त रहे और जब वह विश्वसनीय स्थायी नेतृत्व पेश नहीं कर पाई। बादल को बदनाम करने के उत्साह में आप नेता भूल गए कि बादल पहले ही सत्ता-विरोधी लहर और कुछ विशेष धारणाओं से जूझ रहे हैं और असली चुनौती दोबारा मजबूत हो रही कांग्रेस से है। नतीजा यही हुआ कि मतदाताओं ने आप और अकाली दल के साथ एक जैसा व्यवहार किया - आप को अकाली दल - भाजपा गठबंधन से थोड़ी ज्यादा और कांग्रेस से बहुत कम सीटें मिलीं।
आप की समस्या है उसका अति-आत्मविश्वास और यह गलतफहमी कि देश भर में तमाम राज्य बांहें खोले उसका स्वागत करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब उसे लगा कि पर्रिकर की अनुपस्थिति से भाजपा कमजोर हुई है तो वह गोवा पहुंच गई। उसे लगता था कि वह कुछ और चाहे न कर पाए, कांग्रेस को दूसरे स्थान से तो धकेल ही देगी। पाटी के केंद्रीय नेतृत्व ने आरंभ में ही अभियान बिगाड़ लिया था क्योंकि न तो उसके पास भरोसेमंद प्रत्याशी थे और न ही उसने सांगठनिक ढांचा खड़ा किया था। इस तरह त्रिशंकु विधानसभा में भी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई और मतदाताओं ने उसके बजाय क्षेत्रीय पार्टियों को तरजीह दी। सबसे शर्मनाक बात यह रही कि आप ने जो प्रत्याशी खड़े किए थे, उनमें से एक को छोड़कर सभी की जमानत जब्त हो गई!
आप तो समय से पहले ही बहुत कुछ पाने की कोशिश कर रही है, लेकिन असली और बड़ी लड़ाइयां कांग्रेस और भाजपा को लड़नी हैं। जैसा कि पहले ही बताया गया है, कांग्रेस बड़ी मुश्किल में है। उसके एक और गढ़ - हिमाचल प्रदेश - पर हमला हो रहा है। नई विधानसभा के लिए चुनाव इस वर्ष के अंत तक हो जाने चाहिए और राष्ट्रीय राजनीति के मामले में कम महत्व वाला छोटा राज्य होने के बावजूद दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के लिए इसकी मनोवैज्ञानिक अहमियत है। भाजपा अगर हिमाचल प्रदेश में जीत जाती है तो कांग्रेस-मुक्त भारत (एक के बाद एक राज्य से कांग्रेस की सरकार हटाना) का उसका लक्ष्य और निकट आ जाएगा। कांग्रेस के लिए कोई भी जीत राहत देने वाली ही होगी, चाहे वह कितनी भी छोटी क्यों न हो।
भाजपा इंतजार करने में यकीन नहीं करती। इसीलिए वह उन लड़ाइयों के लिए भी तैयार हो रही है, जो अगले वर्ष होनी हैं - उदाहरण के लिए कर्नाटक चुनाव। किसी तरह की ढिलाई नहीं चाहती। वह जीत के वर्तमान क्रम और उत्साह को बरकरार रखना चाहती है। चुनाव परिणाम आने के बाद दिल्ली में अपने मुख्यालय पर पार्टी द्वारा आयोजित भव्य समारोह इसी योजना का हिस्सा है, जिसे वरिष्ठ पार्टी पदाधिकारियों और मंत्रियों की उपस्थिति में प्रधानमंत्री और अमित शाह आदि ने संबोधित किया। कर्नाटक इकलौता दक्षिण भारतीय राज्य है, जिसमें भाजपा की सरकार रही है। कांग्रेस ने 2013 में उसे सत्ता से बेदखल किया था और 2013 में सिद्धरमैया सरकार बनी थी। राज्य में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं पर भ्रष्टाचार के ढेरों आरोप लगे थे, पार्टी टूटी और कई नेता उसे छोड़कर चले गए। लेकिन यह अतीत की बात है। वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा भाजपा में लौट आए हैं और पार्टी को उम्मीद है कि आने वाले महीनों में वह स्थिति ठीक कर लेगी। अंदरखाना असंतोष तो अभी है, लेकिन प्रतिद्वंद्वी गुट एक और हार के डर से संभवतः एक साथ आ जाएंगे। इसके अलावा उत्तर प्रदेश की जीत से ताकत पाकर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व समस्या खड़ी करने वाले तत्वों को पार्टी में लेने के लिए शायद ही तैयार हो। कुछ अन्य बातें भी हैं, जो भाजपा के पक्ष में जा सकती हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंदीय मंत्री एसएम कृष्णा पिछले दिनों भाजपा में शामिल हो गए। हालांकि अब वह जननेता नहीं रह गए हैं, लेकिन वह ताकतवर वोक्कालिगा समुदाय से हैं और मांड्या क्षेत्र से आते हैं, जहां भाजपा हमेशा से कमजोर रही है।
कर्नाटक में जातीय गणित उतना ही मायने रखता है, जितना उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में। एक राष्ट्रीय दैनिक द्वारा हाल ही में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक प्रतिभागियों ने कहा कि चुनावी होड़ में मौजूद प्रत्याशियों के कामकाज से अधिक महत्वपूर्ण उनकी जाति है। शिक्षा से इस मानसिकता में न के बराबर बदलाव आया है। स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त कर चुके 47 प्रतिशत प्रतिभागियों ने सर्वेक्षण में स्वीकार किया कि वह जाति देखकर वोट देते हैं। इसी प्रकार कम आय (25,000 से 50,000 रुपये वार्षिक) वालों की तुलना में उच्च आय वर्ग (1 लाख से 10 लाख रुपये वार्षिक) वाले लोग जाति के आधार पर वोट देना अधिक पसंद करते हैं। इसे देखते हुए वोक्कालिगा (और लिंगायत) महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कांग्रेस के सामने चुनौती है क्योंकि उसे इन दोनों में से किसी भी समुदाय का और दलितों का भी पूरा समर्थन नहीं प्राप्त नहीं है।
इससे भाजपा का काम आसान हो जाना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं है। एक और महत्वपूर्ण पहलू है और वह है जनता दल - सेक्युलर (जद-एस), जिसकी कमान पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के हाथ में है। 17 वर्ष पहले गठित हुआ यह दल भाजपा और कांग्रेस दोनों के साथ रहा है तथा राज्य में इसकी अच्छी खासी पैठ है। 2013 में 222 विधानसभा सीटों में से जद-एस ने 40 जीती थीं। उसके नेता एचडी कुमारस्वामी 2006 और 2007 के बीच करीब 20 महीने तक मुख्यमंत्री भी रहे। अन्य पिछड़ा वर्ग के बीच इसका बड़ा आधार है। इसलिए भाजपा को कांग्रेस के साथ जद-एस से भी लड़ना होगा और यह ध्यान रखना होगा कि मौका पड़ने पर यह संभावना अधिक है कि जद-एस कांग्रेस को समर्थन देगी। भाजपा के पक्ष में यह बात है कि लोगों में सिद्धरमैया सरकार के खिलाफ बहुत असंतोष है। इसके अलावा देश भर में भाजपा का उभार कर्नाटक के मतदाताओं को भी प्रभावित कर सकता है।
यदि मोदी-अमित शाह की जोड़ी कर्नाटक को भाजपा की झोली में वापस डाल देती है तो उसे दक्षिण भारत में और भी बड़े सपने देखने का साहस मिल जाएगा। तमिलनाडु इसका उदाहरण है। जे जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक की हालत खराब है। पार्टी वीके शशिकाला और ओ पनीरसेल्वम धड़ों के बीच बंट गई है। शायद इतना काफी नहीं है, इसीलिए जयललिता के परिवार में से ही उनकी राजनीतिक विरासत पर दावा भी किया जा रहा है। यदि अन्नाद्रमुक टूटती है अथवा कुछ चुनावों में हार जाती है तो विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास स्वयं को द्रमुक की विश्वसनीय विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने का मौका होगा। भाजपा वहां कल ही सरकार बनाने की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं कर सकती, लेकिन निकट भविष्य के लिए जमीनी काम तो शुरू किया ही जा सकता है। अच्छी शुरुआत करने के लिए उसे चंद बड़े नामों को अपने खेमे में लाने भर की जरूरत है। सभी मोर्चों पर काम तेजी से हो रहा है।
केरल एक और राज्य है, जहां भाजपा गंभीरता के साथ काम कर रही है। आजादी के बाद से ही राज्य वाम मोर्चे या कांग्रेस के पास रहा है, वहां अभी तक की प्रगति से उसे उत्साहित होना ही चाहिए। 2011 में विधानसभा चुनावों में पार्टी को केवल 6 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन 2016 में आंकड़ा बढ़कर 15 प्रतिशत के पार पहुंच गया। इसके उलट 2011 में 26.4 प्रतिशत वोट पाने वाली कांग्रेस को 2016 में 23.7 प्रतिशत वोट ही हासिल हो पाए। राज्य के हिंदू क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से वोट एकजुट होते दिख रहे हैं और भाजपा के उभार का अहसास वाम नीत गठबंधन के बजाय कांग्रेस नीत गठबंधन को ज्यादा हो रहा है। वाम धड़े का वोट प्रतिशत 2014 के लोकसभा चुनावों की अपेक्षा 2016 में बढ़ गया, लेकिन कांग्रेस के वोट 31 प्रतिशत से एकदम घटकर 24 प्रतिशत ही रह गए।
कांग्रेस के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। वरिष्ठ पार्टी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री एके एंटनी ने अपने राज्य के नेताओं को चेतावनी दी थी कि अल्पसंख्यक और ‘धर्मनिरपेक्ष’ वोटों के फेर में बहुसंख्यक समुदाय की अनदेखी नहीं की जाए। उनकी चेतावनी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया; कई हिंदू बहुल क्षेत्रों में बहुसंख्यक समुदाय ने भाजपा को वोट दिया और कांग्रेस का प्रत्याशी हार गया। भाजपा ने बेशक एक ही सीट जीती है, लेकिन उसने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया है। मतदाता इस बात से भी नाराज थे कि जब भाजपा के कार्यकर्ताओं और संघ परिवार के स्वयंसेवकों को वाम धड़ा अपनी हिंसा का शिकार बना रहा था, उस समय कांग्रेस खामोश रही और बहुसंख्यक समुदाय के पीड़ितों के समर्थन में उसने एक भी शब्द नहीं बोला।
कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में मिली जीत से देश की राजनीति में और भी बड़े बदलाव आ सकते हैं और सबसे पहले इसका प्रभाव 2019 के लोकसभा चुनावों पर पड़ सकता है। कुछ विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने तो यह कहते हुए हार मान भी ली है कि गैर-भाजपाई विपक्ष को 2019 भूल जाना चाहिए और 2024 की तैयारी करनी चाहिए!
(लेखक द पायोनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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