आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनकी तस्वीरें भारतीय मीडिया में चर्चा के केंद्र में रहीं। कभी मेट्रो की सेल्फी तो कभी अक्षरधाम मंदिर की सीढ़ियों पर बेपरवाह बैठे बात कर रहे दोनों नेताओं की तस्वीरें, खूब सुर्खियाँ बटोरने में कामयाब रही हैं। किसी ने इसे “सेल्फी डिप्लोमेसी’ का नाम दिया तो किसी ने “मेट्रो से मंदिर” के बहाने विदेश नीति को समझने की कोशिश की। खैर, भारत में किसी प्रधानमंत्री की ऐसी तस्वीरें शायद कम देखने को मिलती हैं। इस नाते यह चर्चा ज्यादा हुई है। ऐसी ही नजीर हाल ही में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के भारत दौर पर देखने को मिली जब प्रधानमंत्री मोदी प्रोटोकॉल से इतर खुद उन्हें रीसिव करने एयर पोर्ट पहुँच गए। इन सबके बीच अगर विदेश नीति के मामले में मोदी का मूल्यांकन करें तो मोदी संबंधों की गहराई को मापते और भांपते हुए मजबूती देने की हर औपचारिक एवं अनौपचारिक कोशिश करने वाले नेता के तौर पर स्थापित हुए हैं। शायद वैश्वीकरण के इस दौर जब दुनिया डिजिटल क्रान्ति कर चुकी है, यह डिप्लोमेसी का एक अहम हिस्सा बन चुका है। अगर देखा जाए तो किसी भी राष्ट्र के चतुर्मुखी विकास में बेहतर वैश्विक संबधों की अहम् भूमिका रही है। विश्व के लगभग सभी उदारवादी राज्य यह समझ चुके हैं कि वैश्विक स्तर पर एक-दुसरे से परस्पर सहयोग एवं अलग-अलग स्तरों पर आदान-प्रदान की भावना को विकसित करके ही साझा विकास को गति दी जा सकती है। भौगोलिक एवं राजनयिक स्तर पर देखें तो यह विश्व अलग-अलग राष्ट्रों का एक समूह है, अर्थात विश्व में सामूहिकता का बोध है। सामूहिकता के तमाम सकारात्मक पक्ष होने के साथ-साथ एक सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष ये है कि इसमें ‘जीरो-डिस्प्यूट’ की आदर्श स्थिति को लक्षित करने के बावजूद भी कभी प्राप्त नही किया जा सकता है। ‘जीरो-डिस्प्यूट’ की आदर्श स्थिति का हिमायती होने के बावजूद भारत भी इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका है। अर्थात विवाद एवं समझौतों के बीच विश्व के तमाम विकासशील एवं विकसित देश बीच के रास्तों को अपनाकर परस्पर संबंधों को गति देने को उचित मान चुके हैं। इस संदर्भ में भारत के वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों एवं विदेश नीति का मूल्यांकन किया जाना इस लिहाज से भी बेहद प्रासंगिक है, क्योंकि एशियाई देशों में भारत विश्व के आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र बनकर उभर रहा है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने शुरूआती कार्यकाल में अगर सबसे ज्यादा भारत के वैश्विक संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में प्रयासरत दिखे थे। गौरतलब है कि अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष में ही मोदी लगभग 17 या 18 छोटे-बड़े देशों की यात्राएँ कर चुके हैं। लिहाजा यह प्रश्न प्रासंगिक ही है कि विदेश-नीति अथवा राजनयिक संबंधों के मोर्चे पर आज भारत कहाँ खड़ा है ? भारत की वर्तमान विदेश-नीति एवं राजनयिक संबंधों की वर्तमान स्थिति को तुलनात्मक ढंग से समझने के लिए एवं उसका सही विश्लेषण करने के लिए भारतीय विदेश-नीति एवं राजनयिक संबंधों के इतिहास का रुख करना होगा। हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत का कद, स्तर एवं भारत की विश्व को लेकर राजनय स्तर की नीति कैसी थी और दुनिया भारत की नीति को किस निगाह से देख रही थी। सत्ता के चेहरों को आधार माने तो स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद का दौर ‘नेहरू-एरा’ अर्थात नेहरू का दौर कहा जाता है। जब भारत स्वतंत्र हुआ और देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई तब विश्व दो ध्रुवों में बंटा हुआ था। एक ध्रुव पर संयुक्त राज्य अमेरिका अपने वैश्विक वर्चस्व को साबित करने की धुन में था तो वहीँ दुसरी तरफ सोबियत संघ खुद को दुनिया का नेता-राष्ट्र बताने की जिद पर अड़ा था। उस समय एक प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहरलाल नेहरू की तरफ देश ही नहीं बल्कि विश्व की निगाह थी कि वे भारत को किस पाले में रखते हैं! उस दौर में यह प्रश्न खड़ा हुआ था कि भारत अमेरिका के साथ खड़ा होगा अथवा सोबियत के संघ के साथ जाने में रूचि दिखाएगा? हालांकि ऐसे प्रश्नों का उत्तर नेहरू की तरफ से आजादी से पहले ही दिया जा चुका था। गौर करें तो संभावित भारतीय विदेश नीति को स्पष्ट करते हुए नेहरू ने आजादी की घोषणा से दो वर्ष पहले सन 1945 में कहा था, “स्वतंत्र भारत अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी स्वतंत्र विदेश नीति निर्धारित करेगा तथा अपने आपको उन गुटों से भी अलग रखेगा जो एक दुसरे के विरोध में संलग्न हो चुके हैं। भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे राष्ट्रों का समर्थन भी करेगा।”चूँकि वर्तमान में जनसंघ की विचारधारा को अपनी धरोहर मानने वाली भाजपा की सरकार है लिहाजा तत्कालीन विदेश नीति पर जनसंघ के विचारों को समझना भी जरुरी है। भारतीय जनसंघ के रक्षा एवं वैदेशिक नीति संबंधी प्रस्तावों के संकलन में पृष्ठ संख्या 29 पर वर्णित है, “जनसंघ का मत रहा है कि अमेरिका और रूस दोनों ही महाशक्तियों के गुटों से निरपेक्ष रहना भारत के जाग्रत राष्ट्रीय हितों के लिए अधिकतम पोषक रहेगा (52.09) ।जनसंघ की यह नीति नेहरु की गुटनिरपेक्षता की नीति के समर्थन में प्रतीत होती हैं लेकिन जनसंघ यह भी चाहता है कि विश्व में दो ध्रुवों का अस्तित्व न रहे और भारत खुद को एक स्वतंत्र ध्रुव के रूप में स्थापित करे। उसी पृष्ठ संख्या पर वर्णित है, “विश्व के अनेक ध्रुव वाले उभरते चित्र में भारत को एक स्वतंत्र ध्रुव बनाने का प्रयास करना चाहिए (63:02) ।नेहरु एवं उनके के बाद की कांग्रेसनीत सरकारों ने स्वतंत्र ध्रुव के रूप में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ठोस प्रयास किए हैं, इसको लेकर व्यापक स्तर पर संदेह है।
भारतीय विदेशनीति में शान्ति की हिमायत के तत्व तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही स्थापित दिखते हैं, किन्तु गौर करें तो इसपर प्राचीन भारतीय विदेश नीति का प्रभाव भी स्पष्ट होता है। मौर्यकालीन शासन जिसे भारत की उन्नति के लिहाज से अत्यंत श्रेष्ठ दौर माना जाता है, के शासकों की विदेशनीति भी एक हद तक संवाद, मैत्री और शांति की पक्षधर ही रही थी। इसका प्रमाण उस युग के शासन के स्थापन व संचालन में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले कौटिल्य के इस कथन में स्पष्ट है, “जब शान्ति और युद्ध से समान लाभ की आशा हो तो शान्ति की नीति अधिक लाभप्रद होगी, क्योंकि युद्ध में सदैव ही शक्ति व धन का अपव्यय होता है। इसी प्रकार जब तटस्थता और युद्ध से समान लाभ हो, तटस्थ नीति ही अधिक लाभप्रद व सन्तोषप्रद होगी।“
जनसंघ द्वारा प्रस्तावित वैश्विक नीति एवं राजनय संबंधों का मूल्यांकन करें तो तबसे अबमें काफी समानताएं नजर आती हैं। मोदी सरकार किस ढंग के राजनयिक संबंध स्थापित करने की दिशा में काम कर रही है, इस सवाल पर मूल्यांकन भी शुरू हो चुका है। मोदी सरकार द्वारा पिछले तीन साल में जिस ढंग से राजनयिक स्तर पर सक्रियता दिखाने की कोशिश की गयी है, उससे इतना तो स्पष्ट हो गया है कि वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों को लेकर एक नए प्रयोग की तरह है। राजनयिक संबंधों को लेकर मोदी सरकार की नीति को ‘बहु वैकल्पिक विदेश नीति’ के तौर पर देखा जा सकता है। वर्तमान सरकार संबधों में भी विकल्प की नीति लेकर चल रही है। साथ ही अन्तराष्ट्रीय संबंधों की दिशा में ‘न्यूनतम संभावनाओं’ को भी देशहित में भुनाने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती है। इस संदर्भ में मोदी की तमाम देशों की यात्राएँ एवं उन यात्राओं की उपलब्धियों को अगर देखा जाय तो पिछले एक तीन वर्ष में में मोदी ने सबसे ज्यादा ध्यान लोक कल्याण की योजनाओं और विदेश नीति पर ही दिया है। इन तीन वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी ने लगभग अनेक छोटे-बड़े देशों की यात्राएँ की हैं। परम्परागत धारा को तोड़ते हुए प्रधानमंत्री ने किसी शक्ति-सम्पन्न देश की तरफ केन्द्रित न रहते हुए भारत को वैश्विक मंच के हर पटल पर प्रस्तुत किया है। प्रधानमंत्री मोदी ने भूटान, नेपाल, मारीशस, मंगोलिया, कोरिया, कनाडा जैसे देशों से वैदेशिक संबंधों की दिशा में पहल करते हुए विश्व को यह सन्देश देने का सफल प्रयास किया है कि भारत की नजर किसी एक देश पर नहीं बल्कि विश्व के हर उस देश से रिश्तों पर है, जहाँ सम्भावनाएं हैं। विश्व को यह बताने का साहस वर्तमान सरकार ने अपनी नीतियों के माध्यम से बखूबी किया कि वे किसी एक ताकतवर देश अथवा महाशक्ति पर आश्रित नहीं हैं, बल्कि उनके पास बहुआयामी विकल्प हैं। कहावत है, पूत के पांव पालने में ही दिखने लगते हैं। शुरूआती दिनों से ही मोदी सरकार के साथ कुछ ऐसा दिखने लगा था। गौर करना होगा कि प्रधानमंत्री शपथ ग्रहण के दिन ही दक्षेस देशों के राष्ट्रप्रमुखों को न्योते पर भारत बुलाने के साथ-साथ नेपाल एवं भूटान की यात्रा भी किये। एक तरफ अमेरिका जाकर दुनिया के कई राष्ट्रप्रमुखों से मुलाक़ात करते हैं, तो वहीँ दुसरी तरफ चीन के राष्ट्रप्रमुख शी-जिनपिंग को भारत आमंत्रित कर लेते हैं। एक काल-क्रम में अमेरिका, चीन, जापान, रूस, कनाडा सहित तमाम यूरोपीय देशों के साथ संबंधों को स्थापित करने में सरकार कामयाब होते हैं।
गौरतलब है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस देश से भी सम्बन्ध की बात कर रहे हैं तो उनका प्रथम आशय आर्थिक संबंधों का ही रह रहा है। उनकी विदेश नीति के केंद्र में अर्थनीति ही रह रही है। इसका कारण यह है कि आज विश्व संबंधों की स्थिति ही ऐसी है कि दो देशों के बीच किन्हीं विषयों को लेकर कितनी भी असहमति या विवाद हो, किन्तु उसका असर वे अपने आर्थिक संबंधों पर नहीं पड़ने दे रहे हैं। उदहारण के तौर पर देखें तो चीन और जापान के बीच की तल्खी जगजाहिर है, बावजूद इसके दोनों देशों के बीच आर्थिक साझेदारी बहुत बड़े स्तर पर है। एक आंकड़े के मुताबिक़ सन 2012 में दोनों देशों के बीच तकरीबन 334 बिलियन डॉलर का व्यापर हुआ, जबकि यह वो समय था जब दोनों देशों के बीच दक्षिणी चीन स्थित द्वीप समूह को लेकर बेहद तनातनी मची हुई थी। कुछ ऐसी ही स्थिति चीन-अमेरिका, अमेरिका-रूस के बीच भी है। हालांकि यह भारतीय विदेश नीति की सफलता ही कही जाएगी कि मोदी सरकार के गठन के पश्चात् इन परस्पर विरोधी देशों को एक साथ साधते हुए वह वैश्विक मंच पर अपनी पकड़ बनाते हुए अत्यंत मजबूती के साथ बढ़ रही है। यह प्रधानमंत्री मोदी की भी सफलता है कि वे इन सभी देशों को न केवल बातों में साध रहे हैं, वरन उनसे आर्थिक संबंधों को भी मूर्त रूप देने की दिशा में बढ़ रहे हैं। दो साल पहले जब कोरिया की धरती पर भारतीयों से रूबरू होते हुए जब मोदी ये कहते हैं कि हम ‘लुक ईस्ट’ पर नहीं ‘एक्ट ईस्ट’ पर काम करने वाले हैं, तो इसका सीधा अर्थ यही है कि मोदी सरकार ने अपना इशारा साफ़ कर दिया है कि वे पश्चिम आश्रित नहीं हैं और वे पूर्व में भी उसी तरह के सम्बन्ध बनाने की दिशा में प्रतिबद्ध है। इससे पूर्व परस्पर विरोधी देशों के साथ एक ही काल-क्रम में आगे बढ़ते रहना और यह जताते रहना कि अब दुनिया भारत किसी एक ध्रुवीय विश्व में विशवास नहीं रखता हैं, कहीं न कहीं भारत को वैश्विक मंचों पर स्थापित करने की दिशा में एक सफल पहल है। ऐसा नहीं है कि सरकार की विदेश नीति के तहत सिर्फ एशिया से बाहरी या मजबूत देश ही हैं, वरन अपने पड़ोसियों व कमजोर एशियाई के बीच बड़े भाई की भूमिका के तौर पर भारत को स्थापित करने एवं उनका भरोसा हासिल करने की दिशा में भी इस सरकार ने व्यापक स्तर पर काम किया है। पाकिस्तान को छोड़ दें तो नेपाल, भूटान, मंगोलिया, बांग्लादेश जैसे देशों के साथ लागातार बात-चीत कायम रखना भी एक किस्म की दूरगामी राजनयिक दृष्टिकोण का हिस्सा है। इसका ताजा उदाहरण बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के भारत दौरे पर आने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उनको रिसीव करने प्रोटोकॉल तोड़कर एयरपोर्ट जाना है।कुल मिलाकर उपर्युक्त सभी बातों के आलोक में यह मूल तथ्य स्पष्ट है कि वर्तमान सरकार की विदेश नीति का स्वरूप अब एक या कुछेक राष्ट्रों में केन्द्रित रहने से बदलकर बहु-वैकल्पिक स्वरूप लेने की तरफ अग्रसर है जिसमे कि फिलहाल तो उसे काफी हद तक सफलता भी मिलती दिख रही है।
अंतरार्ष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से वर्तमान सरकार की नीति को वैकल्पिक रास्तों को तलाशने में सफल होती नीति कहने का मूलतया आधार ये है कि प्रधानमंत्री ‘विवादित-मुद्दों’ की वजह से उन मुद्दों की राह में रोड़ा नही अटकाने चाहते जो, सहजता से सम्भव हो सकते हैं। मसलन, अगर चीन के साथ सीमा-विवाद पर तुरंत किसी निर्णायक सहमति की स्थिति नहीं बन पाती है अथवा सीमा पर तनाव की हल्की-फुलकी परिस्थितियां बनी रहती हैं, तो इसको लेकर उन समझौतों को अवरोधित नहीं किया जाय जो चीन के साथ देशहित में सम्भव हैं। इस समय सरकार की प्रथम प्राथमिकता ‘मेक इन इण्डिया’ के लिए निवेशको को आमंत्रित करना है। चूंकि कई मोर्चों पर भारत निर्माता की स्थिति में न होकर आयात पर निर्भर देश है। ऐसे में विश्व के कोने-कोने से निवेशकों को लाना भारत के लिए बेहद जरुरी है। इन स्थितियों के मद्देनज़र यह जरूरी है कि दुनिया के देशों के साथ संबंधों के अन्य पक्षों जिनसे संबंधों में अवरोध उत्पन्न हो रहा हो, को एक किनारे कर आर्थिक संभावनाओं को आगे बढाया जाय। सरकार यह बात समझती है कि यदि एकबार आर्थिक संबंधों ने रफ़्तार पकड़ ली तो अन्य सम्बन्ध चाहें जैसे रहें, आर्थिक सम्बन्ध अक्षुण्ण रूप से चलते रहेंगे। ऐसी स्थिति में कहीं न कहीं आर्थिक सबंधों को गतिमान रखने के लिए अन्य संबंधों को ठीक होना ही होगा। आज भारत स्वतंत्र ध्रुव के रूप में दुनिया के पटल पर अपनी स्थिति कायम करने की दिशा में बढ़ते हुए दुनिया की तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित कर चुका है। इस सफलता का श्रेय मोदी सरकार को अवश्य मिल रहा है।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं।)
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