रक्षा मंत्रालय द्वारा “निकायों के साथ कारोबार में जुर्मानों के लिए रक्षा मंत्रालय के दिशानिर्देश” शीर्षक के अंतर्गत 21 नवंबर 2016 को जारी की गई नई ब्लैकलिस्टिंग (काली सूची में डालने की) नीति वास्तव में भविष्योन्मुखी दस्तावेज है, जो वर्तमान स्थितियों से मीलों आगे ले जाती है, लेकिन उसमें कुछ सुधार किए जा सकते हैं। यह लेख उपरोक्त नीति की सही तस्वीर पेश करता है और कुछ अतिरिक्त उपाय सुझाता है। खरीद के कई मामलों में निर्णायक की भूमिका निभा चुके लेखक ने स्वयं ही ब्लैकलिस्टिंग के कई मामले देखे हैं और ऐसे मामलों में इसके विराट तथा अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव भी देखे हैं।
एक समय था, जब विदेशी वास्तविक उपकरण निर्माताओं (ओईएम) को ठोस प्रमाण एवं (अथवा) यकीन के बगैर केवल संदेह के आधार पर ही काली सूची में डाल दिया जाता था। कभी-कभी तो कष्टदायी और धीमी खरीद श्रृंखला में कई वर्ष प्रयास करने के बाद जब मंजिल मिलने ही वाली थी, तभी ब्लैकलिस्टिंग की गाज गिर गई क्योंकि किसी ‘प्रतिद्वंद्वी’ ने शिकायत कर दी, जिसके पर्याप्त प्रमाण भी नहीं थे।
नैतिकता दिखाने तथा आदर्श रवैया अपनाने के फेर में हरेक विभाग में की जाने वाली ऐसी ब्लैकलिस्टिंग वास्तव में आत्मघाती गोल के बराबर होती है क्योंकि इन मामलों में नुकसान हमेशा प्रयोगकर्ता (और राष्ट्र) का ही होता है।
यह नुकसान कई प्रकार से झलकता है। उदाहरण के लिएः आधुनिकीकरण की योजनाओं का अटकना; सशस्त्र बलों को ऐसी हथियार प्रणाली से वंचित रखना, जो कामकाज के लिए आवश्यक है, उपलब्ध है तथा विनिर्माता द्वारा दिया जा रहा है; एकतरफा ब्लैकलिस्टिंग के कारण ओईएम का बाहर हो जाना और केवल एक आपूर्तिकर्ता (वेंडर) का बचना, जिसकी उस समय ‘साफ मनाही’ थी; ‘काली सूची में डाले गए ओईएम’ के पास मौजूद प्रौद्योगिकी पर निर्भर परियोजनाओं का समय तथा लागत बढ़ना आदि। यह जानना भी दिलचस्प है कि भारत सरकार के वित्तीय लेनदेन संबंधी शीर्ष दस्तावेज ‘सामान्य वित्तीय नियम, 2005’ में ब्लैकलिस्टिंग का कोई प्रावधान नहीं है।
किसी विशेष मामले की बात न की जाए तो भी यह पता है कि पिछले कुछ वर्षों में सिंगापुर टेक्नोलॉजीज काइनेटिक्स (एसटीके), इजरायली मिलिटरी इंडस्ट्रीज (आईएमआई), रीनमेटल एयर डिफेंस (आरएडी), डेनेल, फिनमेकेनिका तथा अन्य कई ओईएम को काली सूची में डाले जाने का अपनी परिचालनगत कमियों को खरीद के जरिये पूरा करने की कोशिश में लगे हमारे रक्षा बलों पर कई प्रकार से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है क्योंकि खरीद पूरी होने में वर्षों लग गए। इन कमियों की सूची लंबी हैः 125 मिमी फिन स्टैबिलाइज्ड आर्मर पियर्सिंग डिसकार्डिंग सैबट (एफएसएपीडीएस) के लिए गोलाबारूद, 155 मिमी गन के लिए बाई-मॉड्यूलर चार्ज प्रणाली, टैंक भेदी मिसाइल, सुखाई-30 विमान के लिए 30 मिमी का गोलाबारूद, 23 मिमी एपीआईटी गोलाबारूद, भविष्योन्मुखी एयर डिफेंस गन आदि। इन सभी मामलों में एकतरफा ब्लैकलिस्टिंग के कारण खरीद प्रभावित हुई (वास्तव में ठप हो गई)। संक्षेप में दोषी को दंडित करने के स्थान पर राष्ट्रीय हित को ही झटका लगा।
ऊपर बताई गई अधिकतर खामियां नई नीति के दिशानिर्देशों से दूर हो जाने की संभावना है क्योंकि उसमें एकतरफा ब्लैकलिस्टिंग के बजाय तीन स्पष्ट विकल्प दिए गए हैं - वित्तीय जुर्माना लगाना, कारोबारी सौदे निलंबित करना और उन पर प्रतिबंध लगाना। इन दिशानिर्देशों को नैतिक आयामों के साथ जोड़ा गया है, जैसे रक्षा खरीद नीति (डीपीपी) का अनुपालन करते हुए ईमानदारी, पारदर्शिता एवं स्वामित्व के उच्चतम मानक बरकरार रखने की आवश्यकता एवं कंपनियों, ट्रस्टों, सोसाइटियों तथा व्यक्तियों समेत ‘निकायों’ से लेदने करते समय निष्पक्षता, न्याय, कड़ाई एवं सत्यता का पालन करने की आवश्यकता।
नए दिशानिर्देशों के विभिन्न सशक्त बिंदु इस प्रकार हैं:-
• सबसे पहले दिशनिर्देशों में छह विशिष्ट ‘निषिद्ध’ क्षेत्र दिए गए हैं, जिनमें ब्लैकलिस्टिंग के विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत कार्रवाई हो सकती है। इनमें शामिल हैः-
o यदि प्री कॉण्ट्रैक्ट इंटेग्रिटी पैक्ट (पीसीआईपी) किया है तो उसकी शर्तों का उल्लंघन।
o खरीद प्रक्रिया के किसी भी चरण में भ्रष्टाचार, गलत तरीकों का सहारा लेना अथवा गैर कानूनी गतिविधियों में लिप्त रहना।
o करार में एजेंट/एजेंसी के कमीशन से संबंधित मानक प्रावधान का उल्लंघन
o यदि राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक हो तो।
o करार की शर्तों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं होना अथवा कमतर प्रदर्शन होना।
o जनहित का कोई भी अन्य कारण।
• अतीत की परंपरा से हटकर अभियोजन योग्य गतिविधियां/चरण परिभाषित किए गए हैं, जिनसे निलंबन/प्रतिबंध हो सकता है। यह स्वागतयोग्य है। पहले की तरह किसी के कहने पर अथवा संदेह होने पर कार्रवाई नहीं होगी। उदाहरण के लिए निलंबन तभी होगा, जब किसी निकाय के बारे में शिकायत को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) अथवा किसी अन्य जांच एजेंसी के सुपुर्द किया जाता है अथवा आपराधिक जांच आरंभ की जाती है। इसी प्रकार प्रतिबंधात्मक कार्रवाई तभी होगी, जब (किसी निकाय के बारे में) आरोप सक्षम अदालत, न्यायाधिकरण अथवा प्राधिकरण में सिद्ध हो जाते हैं। माना जाता है कि इतनी स्पष्टता होने पर संदेह अथवा अप्रमाणित आरोपों की स्थिति में एकतरफा प्रतिबंध की समस्या बहुत कम हो जाएगी।
• दिशानिर्देशों का एक और सशक्त बिंदु यह है कि रक्षा मंत्रालय द्वारा किसी ओईएम की किसी विशेष कंपनी के निलंबन अथवा प्रतिबंध का प्रावधान उसी ओईएम की दूसरी सहयोगी अथवा होल्डिंग कंपनियों पर लागू नहीं होगा। उदाहरण के लिए जब वीआईपी चॉपर घोटाले में मैसर्स फिनमेकेनिका की एक सहयोगी अर्थात अगस्ता वेस्टलैंड के खिलाफ जांच चल रही थी तो फिनमेकेनिका की अन्य सहयोगी कंपनियों जैसे सेलेक्स इलेक्ट्रॉनिक्स, ओटो मलेरा, एलेना एयरोमाची आदि के साथ खरीद की वर्तमान बातचीत चलती रह सकती है।
• दिशानिर्देश का एक और अनुकूल बिंदु वह प्रावधान है, जिसके अनुसार रक्षा मंत्रालय द्वारा किसी कंपनी पर लगाया गया निलंबन/प्रतिबंध अन्य मंत्रालयों में स्वतः लागू नहीं होगा और वे अपनी खरीद की प्रक्रिया को जारी रख सकते हैं।
• एक समय था, जब किसी कंपनी पर एकतरफा प्रतिबंध लगाने से प्रयोगकर्ता उस महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी/कलपुर्जों से वंचित रह जाते थे, जिनके लिए वे उस कंपनी पर निर्भर होते थे। ऐसे प्रतिबंध से प्रयोगकर्ता एकाएक अधर में लटक जाते थे। नए दिशानिर्देशों से यह खामी दूर हो जाती है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी ऐसी कंपनी अथवा निकाय के साथ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (टीओटी) अथवा लाइसेंसशुदा उत्पादन (एलपी) की व्यवस्था है, जिस पर अब निलंबन/प्रतिबंध लगा है तो सक्षम प्राधिकरण की मंजूरी के साथ वह उन क्षेत्रों में पुर्जों/प्रमुख/अतिरिक्त वस्तुओं से संबंधित भावी बोलियों में हिस्सा ले सकती है, जिन क्षेत्रों में टीओटी/एलपी लिया गया था।
• नए दिशानिर्देशों में ‘निषिद्ध’ स्थिति का भी समाधान है, जहां आवश्यक वस्तुओं पर किसी का स्वामित्व होता है और आपूर्ति का कोई अन्य स्रोत नहीं होता है। ऐसे मामलों में निलंबन/प्रतिबंध का सामना कर रही जो कंपनी आवश्यक वस्तुओं का मालिकाना अधिकार रखती है, वह सक्षम प्राधिकरणों की अनुमति के साथ कल पुर्जों, उन्नयन तथा रखरखाव आदि के लिए भावी बोलियों में हिस्सा ले सकती है। हालांकि यह प्रावधान बहुत दुर्लभ स्थितियों में ही लागू होगा किंतु यह महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करेगा कि निलंबन अथवा प्रतिबंध के कारण कोई शस्त्र प्रणाली मात्र इसीलिए अनुपयोगी नहीं हो जाए क्योंकि उसके कलपुर्जे/उन्नयन/रखरखाव निलंबन अथवा प्रतिबंध के शिकार हो रहे हैं।
• दिशानिर्देशों का एक और मजबूत पहलू ‘एजेंटों’ के मामले में कुछ भी सहन नहीं करना है। ‘ईमानदारी’ के दो ही प्रकार - 0 अथवा 100 प्रतिशत - बताने वाले कथन पर जाएं तो दिशानिर्देश ठीक ही कहते हैं कि यदि कोई एजेंट अनुचित कार्यों में लिप्त पाया गया है अथवा उस पर ‘आजीवन प्रतिबंध’ लगा है तो निलंबन/प्रतिबंध झेलने वाली कंपनी को बाद में बेशक निर्दोष करार दिया जाए, प्रतिबध जारी रहेगा। यह कठोर तथा समझदारी भरा प्रावधान व्यवस्था की सफाई में बहुत कारगर सिद्ध होगा।
• कुछ विश्लेषकों ने बताया है कि सक्षम प्राधिकरण केवल एक ही व्यक्ति ‘रक्षा मंत्री’ के अधीन कर दिया गया है और इसे किसी संस्था के अंतर्गत होना चाहिए था। खरीद की पूरी व्यवस्था को प्रत्यक्ष देखने का मौका पाने एवं उसमें कार्य करने के कारण लेखक को लगता है कि रक्षा मंत्री को अंतिम अधिकार देना सही निर्णय है। इससे ‘कठोर निर्णयों’ की जिम्मेदारी लेने में स्पष्टता, जवाबदेही एवं पारदर्शिता आएगी। जहां भी संदेह होगा, वहां रक्षा मंत्री को मामले के तथ्यों से ही दिशा एवं सुझाव नहीं मिलेंगे बल्कि उनके दल द्वारा मामले की व्याख्या से भी उन्हें मदद मिलेगी।
• कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि ‘विलंबित अभियोजन व्यवस्था’ अथवा डीपीए का प्रावधान भी रखा जा सकता था। संक्षेप में डीपीए का आशय है कि यदि ओईएम निश्चित आवश्यकताएं पूरी करने के लिए सहमत हो जाए तो बदले में अभयदान दिया जा सकता है। इसका अर्थ जुर्माना करना अथवा कॉर्पोरेट सुधार लागू करना अथवा जांच में सहयोग करना है। लेखक को लगता है कि इन तीन विकल्पों तथा लागू करने में सहायक अन्य प्रावधानों के साथ दिशानिर्देश पर्याप्त एवं अच्छे मसौदे वाले हैं। डीपीए शामिल करने से, जिसका अर्थ है कि दोषी ओईएम को ‘भ्रष्टाचार के जरिये अपना काम निकालने’ देना जरूरी नहीं है।
दिशानिर्देशों में एकतरफा ब्लैकलिस्टिंग की पहले की व्यवस्था की अपेक्षा काफी कुछ अच्छा है, लेकिन कुछ बातों पर नजर डाली जा सकती हैः-
• यदि प्रतिबंध लगाने के अधिकार वाले प्रत्येक प्राधिकरण जैसे सक्षम अदालत/न्यायाधिकरण/प्राधिकरण को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है तो अधिक स्पष्टता आती। किस अदालत को सक्षम माना जाए अथवा प्राधिकरण कौन है, यह स्पष्ट रूप से बताए जाने की आवश्यकता थी।
• दिशानिर्देश में अर्थदंड को ब्लैकलिस्टिंग के मामले में तीन विकल्पों से एक बताया गया है, लेकिन दिशानिर्देशों के विवरण में इसके बारे मे नहीं लिखा गया है। इसके अतिरिक्त अर्थदंड पर विचार के दो स्वरूप हैं। पहले में इसे दंड का व्यावहारिक विकल्प बताया गया है और दूसरे में इसे ‘गलती करने के बाद भी बचकर निकलने’ का विकल्प माना गया है, जैसा पहले बताया गया है। कुछ भी हो, यदि अर्थदंड को विकल्प माना गया है तो उसे कथ्य में स्थान मिलना चाहिए था और वहां उसकी व्याख्या होनी चाहिए थी।
• गलत हरकत के लिए दंड देने की किसी भी प्रणाली में दोतरफा प्रक्रिया होनी चाहिए, जिसमें गाज गिरने से पहले प्रभावित पक्ष को सफाई देने अथवा प्रतिवाद करने का अवसर मिले। इस सिलसिले में अपील करने की कोई भी व्यवस्था दिशानिर्देश में नहीं दी गई है। ध्यान रखना चाहिए कि अपील की प्रणाली हुई तो उसका भी दूसरा पहलू होगा, जिसमें निलंबन/प्रतिबंध की संभावना वाला कोई भी व्यक्ति निश्चित रूप से हायतौबा मचाएगा और उसके खिलाफ अपील करेगा, इस तरह लंबी कानूनी लड़ाई चलेगी, जो खरीद प्रक्रिया की राह में रोड़े अटकाएगी। इसे ध्यान में रखते हुए अपील करने का सीधा रास्ता चाहे न हो, लेकिन दंड के कुछ अन्य तरीके हो सकते हैं। उदाहरण के लिए निर्धारित गुणवत्ता/प्रक्रिया/प्रणाली से हटने की बात पता चलती है तो एक निश्चित अवधि तक ‘अनुपालन की निगरानी’ किए जाने का प्रावधान दिया गया है।
• यह विचारणीय तथ्य है कि दिशानिर्देशों के अंतर्गत ‘स्वतः खुलासे’ पर प्रोत्साहन/पुरस्कार मिल सकता है अथवा नहीं। उस स्थिति में यदि किसी ओईएम को अपने यहां कुछ गलत होने का पता चलता है तो उसके पास सीधे खुलासा करने एवं यह बताने का विकल्प मिल सकता है कि उसने गलती को सुधारने के लिए क्या किया है। ऐसे स्वतः खुलासे के आधार पर अलग-अलग मामले में प्रोत्साहन का प्रावधाना हो सकता है।
• अतीत के अधिकतर घोटालों का खुलासा विदेशी जांच एजेंसियों के जरिये ही हुआ है। 1987 में स्वीडिश रेडियो ने बोफोर्स का भंडाफोड़ किया, इतालवी जांच ने 2013 में अगस्ता वेस्टलैंड का खुलासा किया और अमेरिकी जांच में एम्ब्रेयर घोटाले का पता चला। इस स्थिति में दिशानिर्देशों में ऐसा प्रावधान भी हो सकता है, जिसमें विदेशी जांच एजेंसियों द्वारा की गई जांच अथवा खुलासे के लिए कुछ गुंजाइश रखी जाए। यह बात इस तथ्य को पूरी तरह जानते हुए कही गई है कि विदेशी जांच एजेंसियों को साथ लेने से अंतर-सरकारी समझौतों के बारे में अथवा उनके नहीं होने के बारे में, प्रत्यावर्तन संधियों, अपनी अदालतों में प्रमाणों की स्वीकार्यता के बारे में, विभिन्न जांच एजेंसियों से संपर्क के बारे में और अन्य मसलों में समस्याओं का पिटारा खुल जाएगा, जिनके बारे में विचार करना होगा।
• उपरोक्त बातें किसी ऐसी बात की ओर ध्यान दिलाने के लिए कही गई हैं, जो गायब है और जिसे दिशानिर्देशों में इस प्रकार शामिल करने की आवश्यकता है कि उससे हमारी प्रक्रियाएं बाधित नहीं हों। किसी भी अन्य नीति/दिशानिर्देश के समान इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क हो सकते हैं, लेकिन कुल मिलाकर ये दिशानिर्देश बहुत सकारात्मक प्रयत्न हैं, जो एकतरफा ब्लैकलिस्टिंग तथा आत्मघाती गोल के युग से एकदम अलग जा रहे हैं। इसका मूलमंत्र एक ही है, “हमें दोषी को दंडित करना चाहिए, व्यवस्था को नहीं।”
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2017/march/30/nayi-blacklist-niti-kuch-vichar
[2] https://www.vifindia.org/author/lt-gen-dr-v-k-saxena
[3] http://www.vifindia.org/article/2017/february/03/new-blacklisting-policy-some-thoughts
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