प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह विचार कि राजनीतिक चंदे के मसले पर चर्चा का समय आ गया है, भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ हाल ही में आरंभ किए गए उनके बड़े अभियान की तार्किक परिणति है और भारत का निर्वाचन आयोग इस प्रयास में उनका मजबूत साथी है।
निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन पर नियमन के लिए अधिक कठोर कानून बनाने की बात करता रहा है और हाल ही में उसने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधनों का भी सुझाव दिया है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री नसीम जैदी ने राजनीतिक दलों को मिलने वाले अज्ञात चंदों से संबंधित कानून में आमूल-चूल परिवर्तन का आह्वान किया है। अभी कोई भी राजनीतिक दल 20,000 रुपये से कम दान देने वाले व्यक्तियों के नाम का खुलासा करने के लिए बाध्य नहीं है। इस प्रावधान का लगभग सभी राजनीतिक दल जमकर दुरुपयोग करते रहे हैं। वे अपने बैंक खातों में भारी नकदी जमा करते हैं और उन्हें 20,000 रुपये से कम के चंदों की शक्ल में दिखाते हैं। स्थिति यह है कि राजनीतिक दलों के खातों में 80 प्रतिशत से अधिक धन इसी श्रेणी में आता है। यह आम तौर पर “काला धन” होता है और पारंपरिक धनी समर्थकों से लेकर उन लोगों तक के पास से दल के खजाने में आता है, जो किसी सहायता के बदले दल का आभार व्यक्त करना चाहते हैं। यह नियम वास्तव में राजनीतिक भ्रष्टाचार का उद्गम है और इसे एकदम बदल देने की आवश्यकता है। आयोग ने सुझाव दिया है कि अज्ञात चंदों के लिए अधिकतम सीमा घटाकर 2,000 रुपये कर देनी चाहिए। हालांकि इससे भी दलों को बच निकलने का रास्ता मिल जाएगा। श्री जैदी राजनीतिक दलों द्वारा खातों का हिसाब रखे जाने और उनका ऑडिट किए जाने के मामले में भी अधिक कठोर नियम चाहते हैं।
भारत में राजनीतिक दलों की बहुतायत भी एक दिक्कत है। देश में 1900 से भी अधिक राजनीतिक दल होने का अनुमान है। कुकुरमुत्तों की तरह राजनीतिक दलों के जन्म लेने की वजह आयकर अधिनियम के वे प्रावधान भी हैं, जिनके मुताबिक उन्हें स्वैच्छिक दान पर कर नहीं चुकाना पड़ता। चूंकि 20,000 रुपये से कम के चंदों के स्रोत का खुलासा नहीं करना पड़ता, इसीलिए काले धन को ठिकाने लगाने के लिए राजनीतिक दल बना लिए जाते हैं। इस पर जल्द से जल्द ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
इसके बाद चुनावों में व्यक्तिगत प्रत्याशी द्वारा खर्च भी बड़ी समस्या है। पहले चुनाव अभियान चार सप्ताह तक चलते थे और प्रत्याशी साइकल जुलूस, पोस्टरों, दीवारों पर प्रचार आदि पर धन खर्च करते हैं। कुछ दशक पहले राज्य विधानसभा चुनाव में गंभीर प्रत्याशी कुछ लाख रुपये ही खर्च करता था। लोकसभा प्रत्याशी कुछ ज्यादा खर्च करता था। समय गुजरने के साथ ही अब चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि आसमान पर पहुंच गई है। हालांकि निर्वाचन आयोग ने चुनाव में खर्च की सीमा तय कर दी है और प्रचार की अवधि भी घटाकर 15 दिन कर दी है, लेकिन ज्यादातर प्रत्याशी इन सीमाओं का उल्लंघन कर लेते हैं और अंत में अपने चुनावी खर्च के बारे में झूठे हलफनामे भरते हैं। दबी जुबान से यह कहा जाता है कई राज्यों - उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार - में लोकसभा चुनाव जीतने वाले प्रत्याशी चुनाव में 10 करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च करते हैं। किसी सीट पर जब दो या अधिक गंभीर दावेदार होते हैं तो चुनाव क्षेत्र में कुल खर्च 30 करोड़ रुपये से भी अधिक हो सकता है और लोकसभा में हम 543 सीटों पर चुनाव करते हैं!
दशकांे से यह गंभीर समस्या रही है और यदि सरकार चुनावों में काले धन के प्रभाव को समाप्त करने अथवा कम करने के लिए गंभीर है तो इससे निपटना होगा। निर्वाचन आयोग ने चुनावी खर्च की सीमा का उल्लंघन करने वालों अथवा चुनाव खर्च के बारे में झूठा हलफनामा दाखिल करने वालों की सजा में वृद्धि करने की अपील भी की है।
31 दिसंबर के अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने कहा कि भ्रष्टाचार और काले धन पर किसी भी बहस में राजनीतिक दलों, राजनेताओं और चुनावी चंदे के आंकड़ों को खास जगह मिलती है। उन्होंने कहा कि राजनेताओं और दलों को ईमानदार नागरिकों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए और उनके आक्रोश को समझना चाहिए। राजनीतिक दलों को “श्रेष्ठता का भाव” छोड़ना होगा और पादर्शिता को प्राथमिकता बनाने के लिए एक साथ आना होगा तथा राजनीति को काले धन एवं भ्रष्टाचार से छुटकारा दिलाने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।
प्रधानमंत्री ने काले धन तथा राजनीति पर बड़ा प्रभाव डालने वाले जिस दूसरे मुद्दे की बात की, वह है चुनावों का कभी समाप्त नहीं होने वाला चक्र खत्म करने तथा लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की आवश्यकता। उन्होंने कहा कि इससे “चुनावों का अनंत चक्र” बंद होगा, चुनावों में दलों तथा प्रत्याशियों द्वारा होने वाले चुनावी खर्च पर लगाम लगेगी एवं प्रशासनिक तंत्र पर दबाव भी कम होगा।
भारत में 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। 1960 के दशक के अंत में कार्यकाल पूरा होने से पहले ही कुछ गठबंधन सरकारों का पतन हो जाने से यह क्रम भंग हो गया, लेकिन इस प्रक्रिया में बाधा पड़ने का अधिक दोष प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने 1971 में तय समय से एक वर्ष पहले ही लोकसभा चुनाव करा दिए। उसके बाद से कोई भी संसदीय एवं विधानसभा चुनाव एक साथ नहीं करा पाया है। इसके अलावा समय बीतने के साथ ही चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि भी कई गुना हो गई है। हालांकि निर्वाचन आयोग ने चुनावी खर्च की सीमा तय की है, लेकिन अधिकतर प्रत्याशी इन सीमाओं से आगे निकल जाते हैं और अंत में अपने चुनाव खर्च के बारे में झूठा हलफनामा दाखिल करते हैं। चुनाव एक साथ होते हैं तो विशेष रूप से प्रमुख राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय दलों के खर्च में कमी निश्चित रूप से आएगी क्योंकि वित्तीय बोझ लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं के प्रत्याशियों में बंट जाएगा। कार्मिक, लोकसेवा, विधि एवं न्याय पर संसद की विभाग संबंधित स्थायी समति ने इस मुद्दे का विस्तार से अध्ययन किया है और उसने एक साथ चुनाव की प्रणाली पर लौटने का पुरजोर समर्थन किया है। उसने कहा, “बार-बार चुनाव होने से अक्सर नीतियां ठप पड़ जाती हैं और प्रशासन में खामी आती हैं।” इससे सामान्य जीवन एवं आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में भी बाधा पड़ती है। इस समिति के सुझावों पर सभी राजनीतिक दलों को बेहद गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए और सभी प्रमुख चुनाव पांच वर्ष में एक बार एक ही साथ कराने का कोई रास्ता निकालना चाहिए।
चूंकि श्री मोदी ने राजनीति में धन की व्यवस्था को स्वच्छ बनाने का बीड़ा सीधे अपने हाथ में लेने का फैसला किया है तो निर्वाचन आयोग के प्रस्तावों पर काम किया जाना चाहिए। सरकार को इस संबंध में प्रस्तावों को मुख्य राजनीतिक दलों के पास भेजना चाहिए। इसके बगैर स्वच्छ भारत हो ही नहीं सकता! जो इसका विरोध करेंगे, उनकी असलियत सामने आ जाएगी।
(लेखक वीआईएफ के विशिष्ट फेलो और प्रसार भारती के चेयरमैन हैं)
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