दुनिया की चौथी बड़ी रेल सेवा के तौर पर ख्यातिलब्ध भारतीय रेलवे में बहुआयामी सुधारों की बहस पुरानी है. आधारभूत संरचना, बुनियादी ढांचागत विकास एवं परिवहन के साथ-साथ सुरक्षित यात्रा की सुनिश्चितता को लेकर भी बहस होती रही है. केंद्र में भाजपा-नीत मोदी सरकार के गठन के बाद से ही रेल सेवा में सुधार को लेकर बहुआयामी बदलाव की दिशा में किए जा रहे प्रयासों को देखा जा सकता है. आमतौर पर पब्लिक सर्विस के नामपर रेलवे को घाटे में भी संचालित करने की मजबूरी सरकारों की रही है. लेकिन इस मजबूरी की स्थिति में युगानुकुल एवं वर्तमान के लिए अनिवार्य सुधारों को अमली जामा पहनाना संभव नहीं नजर आता. मोदी सरकार आने के बाद पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पी.पी.पी मोड से रेलवे में सुधारों की संभावनाओं को तलाशने की कवायदों पर ठोस पहल की गयी. इसका सबसे पहला पहला परिणाम रेलवे स्टेशन की सफाई कार्य में दिखा. सरकार द्वारा रेलवे में सफाई कार्य को निजी क्षेत्रों से आउटसोर्स करने और इन कार्यों को पूर्णतया भारतीय रेल की सरकारी सेवा पर आश्रित न रखने की वजह से व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहा है. पहले रेलवे में सफाई का कार्य पूर्णतया भारतीय रेल के कर्मचारियों पर था. लेकिन अब यह इस काम में सरकारी नियामकों के तहत लेबर लॉ के अनुरूप निजी क्षेत्रों को सहभागी बनाने से न सिर्फ रेलवे का बोझ कम हुआ बल्कि काम के गुणवत्ता और जवाबदेही में वृद्धि भी हुई है. रेल सुधारों की दिशा में एक बड़ा परिवर्तनकारी फैसला हाल के दिनों में लिया गया है. गत फरवरी महीने की आठ तारीख को मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक़ अब रेलवे स्टेशनों का विकास स्टेशन पूनर्वास योजना के तहत पी.पी.पी प्रणाली से निजी कम्पनियों द्वारा निविदा जारी करके किया जाएगा. इसके तहत भारतीय रेल द्वारा देश के ४०० रेलवे स्टेशनों के आधुनिकरण एवं सुविधायुक्त बनाने के लक्ष्य को रखा गया है. इसके तहत स्टेशनों के पुनर्विकास में जिन बिन्दुओं को चिन्हित किया गया है उनमे डिजिटल साइन बोर्ड, एस्केलेटर्स, एलिवेटर्स, इग्जेक्युटिव लाउंज में स्क्रीन आदि की व्यवस्था की बात की गयी है. स्टेशनों पर यात्रियों के लिए हॉलिंग एरिया बनाने की योजना है जहां यात्रियों के लिए फ्री वाई-फाई की सुविधा उपलब्ध रहेगी. एक खबर के मुताबिक़ इसमें पीपीपी मॉडल के तहत 2200 एकड़ की मुख्य भूमि 45 साल के लिए प्राइवेट डिवेलपर को दी जाएगी. रेलवे स्टेशनों के आसपास खाली पड़ी जमीन कर्मशियल एक्टिविटी के लिए इस्तेमाल की जायेगी. यहाँ गौर करने योग्य बात यह है कि तमाम संसाधनों से युक्त भारतीय रेलवे के पास अकूत संपदा होने के बावजूद इसका शुद्ध आकलन नहीं था कि रेलवे की कुल संपदा कितनी है! वर्तमान सरकार ने एसेट पंजीकरण के माध्यम से इस दिशा में भी काम को बढाया है, जिससे रेलवे को उसकी कुल संपदा का लेखा-जोखा ठीक-ठाक मिल सके. पिछले साल किए गए एक समझौते के बाद अब मध्यप्रदेश के हबीबगंज रेलवे स्टेशन को पीपीपी मोड से विकसित करने के समझौते को अंतिम रूप दिया जा चुका है और 45 वर्षों के लिए अब यह स्टेशन बंसल समूह के द्वारा संचालित किया जाएगा.
हालांकि इस करार के बाद इस फैसले की नीतिगत आलोचना भी कुछ लोगों द्वारा की जा रही है. समाजवादी नीतियों के पैरोकारों द्वारा यह आलोचना आपेक्षित भी है. चूँकि समाजवादी और साम्यवादी नीतियों में निजी क्षेत्र को वर्जित मानकर सारा काम सरकारीकरण के माध्यम से करने की बात की जाती है. हालांकि इन नीतियों के माध्यम से किए जाने वाले कार्यों का मूल्यांकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारों पर बेवजह का बोझ डालकर उन्हें जबरन उन कार्यों में भी शामिल किया गया, जो राज्य का काम ही नहीं था. वर्तमान में भाजपानीत की सरकार है और भाजपा वही कर रही है जो उसकी नीति रही है. भारतीय जनसंघ के आर्थिक विचारक पंडित दीन दयाल उपाध्याय भी आधारभूत संरचना के विकास और व्यापार से जुड़े कार्यों में निजी क्षेत्रों की सहभागिता के पक्षधर थे. वे सरकार और राज्य की सीमाओं को लेकर भी बेहद स्पष्ट विचार रखते थे. भारतीय जनसंघ के घोषणापत्र (खंड-१) में यातायात क्षेत्र पर की गयी यह नीतिगत घोषणा गौरतलब है, “जनसंघ यातायात के राष्ट्रीयकरण का विरोधी है. जहाँ राष्ट्रीयकरण हो चुका है वहां निजी मोटरों को सरकारी मोटरों की स्पर्धा में चलने की अनुमति दी जानी चाहिए.” इसके अलावा पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने भी रेलवे, सड़क-परिवहन के रख-रखाव एवं खानपान जैसे विषयों को सरकारीकरण की बजाय निजी सहभागिता से संचालित करने की हिमायत की थी. निजी क्षेत्रों के सहयोग से संचालित किए जाने को लेकर बेशक दुष्प्रचार की कोशिशें विरोधी विचारधारा के लोगों द्वारा की जाती हों लेकिन व्यवहारिक रूप से ज्यादा लाभदायक एवं आम जन के हित में यही नीति नजर आती है. उदाहरण के तौर पर ऊपर सफाई कार्य में निजी क्षेत्रों की सहभागिता का जिक्र आया है. दरअसल निजी क्षेत्रों के साथ कार्य करने पर तय किए लक्ष्यों सफलता की गुंजाइश इस नाते भी ज्यादा होती है क्योंकि निजी क्षेत्र की सहभागिता व्यापारिक दृष्टि पर टिकी होती है. व्यापार की बुनियाद प्रतिस्पर्धा, पारदर्शिता और गुणवत्ता पर आधारित होती है. ऐसे में जवाबदेही का प्रश्न सर्वाधिक उस कंपनी का होता है जो सेवा प्रदान कर रही हो. व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रतिस्पर्धा अपने आप में गुणवत्ता की स्थिति को पैदा करती है. पीपीपी मोड से अगर रेलवे स्टेशनों के पुनर्विकास की योजना को तैयार किया गया है तो इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि रेलवे के आधारभूत विकास को अमली जामा पहनाने में सरकारी खजाने पर बोझ कम होगा और रेल संपदा का सदुपयोग भी होगा. निश्चित तौर पर यदि कोई कंपनी रेलवे संपदा पर पुनर्विकास निर्माण कार्य करेगी तो उसका उद्देश्य धनार्जन का होगा. हमे इस नकारात्मक धारणा के वृत्त से बाहर आकर लोगों को अब यह सोचना होगा कि धनार्जन कोई बुरी आदत नहीं है. वित्त नियामकों के तहत धनार्जन करने की स्वतंत्रता सभी के लिए क़ानून सम्मत है. इसका लाभकारी पक्ष यह है कि यदि कम्पनी निवेश करेगी तो रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे और तमाम लोगों को रोजगार मिलेगा. यानी रेलवे के आधारभूत विकास के साथ-साथ निजी क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में भी बढ़ोतरी होगी. ऐसे में इस कदम को इस लिहाज से भी बेहतर एवं उपयोगी कहा जा सकता है. लोकलुभावन घोषणाओं से भारतीय रेल को महज घाटे का सौदा बनाकर रखने और वित्त की कमी का हवाला देते हुए उसे ज्यों की त्यों छोड़ देने की नीति से न तो रेलवे के विकास होने वाला था और न ही किसी सुधार की संभावना को ही टटोला जा सकता था. वर्तमान सरकार ने निजी क्षेत्र की सहभागिता को बढ़ावा देकर उन संभावनाओं को बल देने का काम किया है, जिनकी बदौलत रेलवे में विकास और बेहतरी के प्रति विश्वास जताया जा सकता है. ऐसी उम्मीद जताई जा सकती है कि यह पहल भारतीय रेल के पुनर्विकास में उपयोगी सिद्ध होगी.
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फैलो हैं एवं नैशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम में संपादक) हैं.
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