केंद्र सरकार के नोटबंदी अभियान का एक अच्छा नतीजा
यह है कि राजनीतिक दलों को चंदे की प्रक्रिया में सुधारों की मांग एक बार फिर जोर पकड़ गई है। चूंकि नोटबंदी को काले धन पर अंकुश लगाने वाला माना जा रहा है और राजनीति में काले धन की भूमिका को कौन नहीं जानता, इसीलिए सक्रियता से काम कर रही सरकार का ध्यान देर-सबेर अपने आसपास मंडरा रही इस बुराई पर जाना स्वाभाविक ही है। इस समस्या से निपटने के दो तरीके हैं। पहला, दलों को आंशिक रूप से या पूरी तरह से सरकार से ही धन दिलाना, जिसमें दलों और चुनावों के लिए सरकारी खजाने से रकम मिलेगी, जिसे “चुनावी कोष” कहा जा सकता है। इस विषय पर इस लेखक ने अपने लेख “चुनावों और राजनीतिक दलों के लिए सरकारी मददः क्या भारत इसके लिए तैयार है?” (22 नवंबर, 2016) में विस्तार से चर्चा की थी। चूंकि धन सरकार के पास से आएगा, इसलिए उसका पूरा लेखा-जोखा होगा और उसे खर्च करने के तरीकों पर भी पैनी नजर रखी जाएगी। ऐसी रकम हासिल करने के लिए योग्यता निश्चित करने के दिशानिर्देश भी रखे जाएंगे। सरकार से आर्थिक मदद बहस का विषय रहा है और कुछ समय तक ऐसा ही रहेगा क्योंकि इस बारे में सभी राजनीतिक दलों की सहमति इतनी जल्दी नहीं बनेगी। राजनीतिक चंदे में सुधार का दूसरा तरीका है दलों को अभी मिलने वाली निजी सहायता में पूरी तरह पारदर्शिता लाना तथा तकनीकी उपाय अपनाकर जवाबदेही को बढ़ाना।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जानते हैं कि अगर वह राजनीतिक व्यवस्था को साफ करने के लिए कदम बढ़ाते हैं तो नोटबंदी के उनके अभियान की विश्वसनीयता और बढ़ जाएगी। उन्होंने पहले भी सरकारी चंदे पर दलों के साथ विचार-विमर्श करने का प्रयास किया था और अब उन्होंने दलों को मिलने वाले निजी चंदे में पारदर्शिता की बात मजबूती से कही है। नोटबंदी के फैसले के एक सप्ताह बाद और संसद के शीतकालीन सत्र की पूर्वसंध्या पर प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में प्रस्ताव रखा कि दलों को मिलने वाली और चुनाव में प्रयोग होने वाली रकम के संदर्भ में चुनाव सुधारों पर अब सभी को साथ मिलकर चर्चा करनी चाहिए। इसी 7 जनवरी को उन्होंने अपने दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कहा कि “जनता को यह जानने का अधिकार है कि हमारे पास धन कहां से आ रहा है।”
प्रधानमंत्री की टिप्पणी सामयिक है और उनके शब्द रोचक हैं। “... हमारे पास धन कहां से आ रहा है” वाक्य का प्रयोग कर उन्होंने आगे बढ़कर उदाहरण पेश करने का जिम्मा अपनी भारतीय जनता पार्टी पर डाल दिया है। इससे पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी को इस बात पर बिल्कुल भी आपत्ति नहीं है कि 20,000 रुपये तक के जिस चंदे को वर्तमान कानून के अनुसार नकद दिया जा सकता है कि और दानकर्ता का नाम नहीं बताना पड़ता है, उसे भी सार्वजनिक कर दिया जाए। दूसरे शब्दों में कहें तो दल को चंदा देने वाले का नाम सार्वजनिक करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह महत्वपूर्ण संकेत है क्योंकि अभी तक राजनीतिक दल ऐसे चंदों के बारे में पारदर्शिता से बचने के लिए लिए कानून का हवाला देते रहे हैं। यदि भाजपा स्वेच्छा से कदम आगे बढ़ाती है तो पारदर्शिता को बल मिलेगा, पार्टी नैतिक रूप से बहुत ऊंचाई पर खड़ी हो जाएगी और दूसरे दलों पर भी ऐसा ही करने का दबाव पड़ेगा।
प्रधानमंत्री ने उसके बाद आम राजनीतिक वर्ग से भी अपील कर डाली। उन्होंने कहा, “देश में पारदर्शिता की संस्कृति पनप रही है और राजनेताओं को पारदर्शिता लाने के लिए अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए।” किसी भी राजनीतिक दल के लिए - यहां तक कि उनके कट्टरतम प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी - इसमें कमी तलाशना या इसका विरोध करना कठिन होगा। वास्तव में कुछ विपक्षी दल उनके विचार जैसा ही सोचते हैं और राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे सुधार की बात करते रहे हैं। उनमें से कुछ नेताओं ने खुलेआम समर्थन किया है। जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता पवन वर्मा ने 7 जनवरी को प्रकाशित टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा, “समय आ गया है कि हमारे राजनेता दूसरों पर अंगुली उठाना बंद करें और अपने घर की गंदगी पर नजर डालें।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील भी अलग नहीं रही है सिवाय इसके कि वह दूसरों के साथ उस राजनीतिक व्यवस्था पर भी अंगुली उठाते रहे हैं, जिससे वह खुद आते हैं। दिलचस्प है कि वर्मा के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रधानमंत्री की घोषणा वाले दिन से ही नोटबंदी अभियान के मुखर समर्थक रहे हैं। इससे उनके सहयोगी दल राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस खासे नाराज हो गए हैं, लेकिन वह अपने रुख पर कायम रहे हैं।
किसी भी राजनीतिक दल के चंदे का बड़ा हिस्सा आम तौर पर अज्ञात स्रोतों से ही आता है, जो दल को 20,000 रुपये से कम दान देते हैं। पारदर्शिता को ठेंगा दिखाने के लिए इस कानूनी खामी का भरपूर दुरुपयोग किया जाता है। चुनाव आयोग की सिफारिश थी कि सरकार कानून में बदलाव लाए ताकि कोई भी व्यक्ति 2,000 रुपये से कम का ही अज्ञात चंदा दे सके। इस मामले के दो पहलू हैं। पहला, इस बात की आशंका है कि राजनीतिक दल किसी एक व्यक्ति से बड़ी रकम ले लेते हैं और उसके बाद उसे 20,000 रुपये से कम की राशि में बांट देते हैं तथा कई दानकर्ताओं (असली या नकली) द्वारा दिया बताते हैं। चूंकि पहचान बताने की आवश्यकता नहीं होती इसलिए पकड़े जाने का डर भी नहीं होता। दूसरा पहलू यह है कि दानकर्ताओं के असली होने पर भी दान की कुल राशि बहुत अधिक होती है, लेकिन उसकी जांच नहीं की जाती। जन व्यवस्था में अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता लाने के लिए काम कर रहे संगठन एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार राजनीतिक दलों की कुल आय का 80 प्रतिशत से अधिक अज्ञात स्रोतों से आता है। इन अज्ञात स्रोतों से हुई आय का जिक्र तो दल अपने आयकर रिटर्न में करते हैं, लेकिन स्रोत को छिपा लिया जाता है, जिससे आय की वैधता पर प्रश्न खड़ा हो जाता है। अपारदर्शी आय दानकर्ताओं के से मिले चंदे तक ही सीमित नहीं है बल्कि राहत कोष और धन जुटाने के लिए कूपनों की बिक्री आदि भी इस में शामिल हैं।
एडीआर ने 2015 की अपनी रिपोर्ट में कहा कि 2013-14 में राष्ट्रीय दलों को मिले कुल चंदे में 20,000 रुपये से अधिक के स्वैच्छिक दान की हिस्सेदारी केवल 41 प्रतिशत थी। साथ ही रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2013-14 में राष्ट्रीय दलों को मिले कुल चंदे का लगभग 60 प्रतिशत उन दानकर्ताओं से आया, जिनका विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया था। जवाबदेही से बचने और अपनी आय को छिपाकर रखने के लिए राजनीतिक दल कई वर्षों से किस तरह कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं, यह समझने के लिए याद करना होगा कि कैसे उन्होंने व्यावसायिक गतिविधियों में लिप्त नहीं होने का बहाना बनाकर आयकर तक से बचने की कोशिश की थी। आयकर अधिनियम, 1961 में धारा 13ए जोड़ी गई, जो राजनीतिक दलों को आयकर चुकाने से छूट देती है। दलों को केवल कर रिटर्न भरना होता है, जिससे चूकने पर छूट वापस ले ली जाएगी। यह प्रावधान कराधान कानून (संशोधन) अधिनियम, 1978 के द्वारा जोड़ा गया और अप्रैल, 1979 में प्रभावी हो गया। दलों को बाकायदा बहीखाता रखना होता था, 20,000 रुपये से अधिक का दान देने वालों का ब्योरा रखना होता था और खातों को ऑडिट भी कराना होता था। लेकिन इस रियायत के बावजूद दलों ने कानून का पालन नहीं किया और उनमें से कई ने रिटर्न दाखिल नहीं किया मगर छूट का फायदा उठाते रहे। इससे आयकर विभाग की निष्ठा पर भी प्रश्न खड़ा होता है, जिसने कानून के उल्लंघन को रोकने के लिए न के बराबर प्रयास किए, लेकिन वह अलग मामला है। अंत में एक गैर सरकारी संगठन द्वारा इस मामले में जनहित याचिका दाखिल किए जाने पर 1996 में उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप किया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि जिन राजनीतिक दलों ने कर रिटर्न दाखिल नहीं किया है, उन्हें छूट नहीं मिलेगी अर्थात् उन्हें कर भरना पड़ेगा।
तब दल सीधे रास्ते पर चलने के लिए विवश हुए। लेकिन उन्होंने आपरदर्शी तौर-तरीके जारी रखे। 2006 में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून लागू होने के बाद एडीआर ने विभाग से विभिन्न राजनीतिक दलों के आयकर रिटर्न का ब्योरा मांगा। लेकिन कर अधिकारियों ने यह कहकर इनकार कर दिया कि मांगी गई सूचना आरटीआई के दायरे में नहीं आती है। एडीआर मामले को केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के पास ले गया, जिसने फैसला दिया कि राजनीतिक दल इस मामले में विशेष लाभ का दावा नहीं कर सकते। अप्रैल, 2008 के अपने आदेश में तो सीआईसी ने यह कह दिया कि छह राष्ट्रीय दलों को सार्वजनिक संगठन माना जाता है और उन्हें आरटीआई के तहत प्रश्नों का उत्तर देना ही होगा। इससे सब बौखला गए और कहा जाता है कि मनमोहन सिंह सरकार ने सीआईसी के आदेश को रद्द करने के लिए अध्यादेश लाने पर भी विचार किया था। लेकिन उसके बाद सत्ता उनके हाथ से चली गई। इसी बीच मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया और अभी वहीं है। प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणियां आशा जगाती हैं कि पुरानी मानसिकता आखिरकार बदल जाएगी।
राजनीतिक जमात को अंतरराष्ट्रीय अलाभकारी संगठन ग्लोबल इंटेग्रिटी के निष्कर्षों से चिंता होनी चाहिए। 2011 की अपनी रिपोर्ट में उसने राजनीतिक दलों तथा प्रत्याशियों को मिलने वाले धन का सार्वजनिक खुलासा करने और इस व्यवस्था को लागू करने के मामले में भारत को 100 अंकों में से शून्य दिया था। राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे के नियमन पर भी भारत को शून्य मिला था। कानूनों की मौजूदगी के मोर्चे पर 100 में से 67 अंक मिलना यह दर्शाता है कि कानून तो हैं, लेकिन दलों द्वारा उल्लंघन के लिए। प्रत्याशियों को व्यक्तिगत तौर पर मिले चंदे के मामले में भारत को केवल 28 अंक मिले। रिपोर्ट आने के पांच वर्ष बाद भी स्थिति में अधिक सुधार नहीं हुआ है और तब तक नहीं होगा, जब तक राजनीतिक वर्ग प्रधानमंत्री अपील स्वीकार नहीं कर लेता और वांछनीय तथा क्रियान्वयन योग्य बदलाव लाने में सरकार की सहायता नहीं करता। संसद के शीतकालीन सत्र में इस मसले पर गंभीर चर्चा आरंभ करने का अच्छा अवसर था और प्रधानमंत्री ने भी इसी बात की अपील की थी। दुर्भागय से प्रमुखी विपक्षी दलों ने कुछ और ही सोच रखा था; उन्होंने संसद की कार्यवाही बाधित की और कोई काम नहीं होने दिया। न तो नोटबंदी और न ही चुनाव सुधारों के मसले पर चर्चा हो सकी। विडंबना है कि सर्वदलीय बैठक में जिस तृणमूल कांग्रेस ने चुनाव सुधारों पर चर्चा कराने के प्रधानमंत्री के सुझाव का समर्थन किया था, वह भी नोटबंदी के बहाने संसद के दोनों सदनों में उत्पात मचाने वालों में शामिल हो गई।
अज्ञात स्रोतों से चंदे को 2,000 रुपये तक सीमिति करने के सुझाव के अलावा चुनाव आयोग ने चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों से चेक द्वारा भुगतान के लिए अलग खाते खोलने के लिए भी कहा। चुनाव से जुड़े सभी खर्च उसी बैंक खाते से करने होंगे। प्रत्याशी को वाहनों के किराये तथा ईंधन के लिए रकम भी इसी चुनावी खाते से खर्च करनी होगी। चुनाव आयोग के निर्देश स्वागत योग्य हैं और खातों में धांधली करने के आदी प्रत्याशियों के चुनावी खर्च पर अधिक प्रभावी निगरानी रखने के लिए हैं, लेकिन ये नए नहीं हैं। 2013 में चंडीगढ़ में चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों से ऐसा ही करने के लिए कहा था और पिछले वर्ष गुवाहाटी में एक जिला चुनाव अधिकारी ने प्रत्याशियों से चुनाव संबंधी खर्चों के लिए अलग बैंक खाते खोलने का अनुरोध किया था। उन्होंने कहा कि प्रत्याशी के नामांकन भरने से एक दिन पहले तक खाता खोला जा सकता है और खाता प्रत्याशी के नाम पर अथवा उसके और उसके चुनाव एजेंट के नाम पर संयुक्त रूप से हो सकता है। इस बार अंतर यह है कि चुनाव आयोग भारी मात्रा में नकदी की आवाजाही पर अधिक नजर रखेगा और नोटबंदी के कारण तथा भारत की काली अर्थव्यवस्था को चलाने वाले पुराने बड़े नोटों के बंद होने के कारण बड़ी मात्रा में नकदी उपलब्ध नहीं होगी। कुछ विपक्षी दल नोटबंदी के खिलाफ इतना अधिक इसीलिए बोल रहे हैं क्योंकि अघोषित धन अचानक उनके हाथ से निकल गया है या बहुत कम हो गया है और ऐसा चुनाव के दिनों में हुआ है।
कम नकद और अधिक डिजिटल लेनदेन पर सरकार के जोर को देखते हुए इस बात की कोई वजह ही नजर नहीं आती कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले छोटे चंदों में इसे बढ़ावा क्यों नहीं दिया जा सकता। चूंकि प्रधानमंत्री ने अपने समर्थकों और अपने दल से परिवर्तन की इच्छा दिखाने का आह्वान किया है, इसीलिए 20,000 रुपये से कम चंदा देने वालों को डिजिटल तरीके अथवा चेक के जरिये ऐसा करने के प्रोत्साहित कर संभवतः भाजपा ही इसकी शुरुआत कर सकती है। दूसरे राजनीतिक दलों को भी निश्चित रूप से ऐसा करना चाहिए किंतु ऐसा तभी होगा, जब दल इस बात के लिए राजी हो जाएंगे कि छोटे दानकर्ताओं का नाम नहीं छिपाना चाहिए और पूरी तरह पारदर्शिता बरती जानी चाहिए।
ऑडिट का मामला भी चंदे में अधिक पारदर्शिता से जुड़ा हुआ है। अभी राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग से यह प्रमाणपत्र लेना होता है कि उन्होंने किसी भी वर्ष के अपने ऑडिट किए गए खाते पेश कर दिए हैं। किंतु ऑडिट स्वयं विवाद का विषय है। भारतीय सनदी लेखाकार संस्थान (आईसीएआई) ने 2012 की अपनी रिपोर्ट में कहा कि “भारत में राजनीतिक दल लेखा परीक्षण तथा वित्तीय सूचना की जो प्रणाली अभी अपनाते हैं, वह हितधारकों की जवाबदेही संबंधी चिंताओं का पूरी तरह समाधान नहीं करती।” चुनाव आयोग की इच्छा के अनुरूप आईसीएआई ने उसके बाद कई सिफारिशें कीं, जिन्हें रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया। दुर्भाग्य से उन सिफारिशों को लागू करने के मोर्चे पर बहुत कम काम किया गया है। दिलचस्प है कि प्रत्याशियों को तो अपनी संपत्तियों तथा देनदारियों की घोषणा करनी पड़ती है, लेकिन राजनीतिक दलों को ऐसा नहीं करना पड़ता। हम पहले ही देख चुके हैं कि जो कर रिटर्न का जो ब्योरा वे आयकर विभाग के सामने पेश करते हैं, उसे सार्वजनिक करने से विभाग इनकार कर चुका है।
दल जिन बदलावों पर विचार कर सकते हैं, उनमें एक है राजनीतिक दलों के बहीखाते भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा नियुक्त ऑडिटरों के सामने पेश करना। यह संवेदनशील मामला है और अधिक दल ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होंगे। एक पत्रकार द्वारा मार्च 2015 में में हैदराबाद उच्च न्यायालय में दाखिल एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान यह अपील की गई थी। याची का तर्क था कि सीएजी से मंजूरी वाले ऑडिटरों द्वारा किया गया ऑडिट अधिक कठोर, विश्वसनीय एवं भरोसेमंद होगा। वास्तव में हैदराबाद न्यायालय को सलाह देने के लिए नियुक्त भारतीय विधि आयोग ने केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय के समक्ष प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में यही सिफारिश की थी। 3 फरवरी, 2011 को बिजनेस लाइन में एक लेख में टिप्पणीकार मोहन आर लावी ने लिखाः “छवि के मामले में बहुत पिछड़े हुए देश तंजानिया ने भी अपने राजनीतिक दल अधिनियम, 1992 में संशोधन कर लिया और अपने सीएजी को चुनाव से पहले राजनीतिक दल के खातों की जांच करने का अधिकार दे दिया। दलों को अपनी आय के सभी स्रोतों का खुलासा करने पर विवश होना पड़ा, चाहे स्रोत और दानदाता कोई भी हो।” लेखक ने स्वीकार किया कि ऑडिट की प्रक्रिया “पूरी तरह सफल” नहीं रही किंतु उससे “राजनीतिक दलों की लेखा प्रक्रिया तथा खुलासे के तरीकों में सुधार का अच्छा संकेत” जरूर मिला। संभवतः भारत तंजानिया के प्रयोग से कुछ सीख सकता है।
कुल मिलाकर राजनीतिक दलों की आय और चंदे में व्यापक सुधारों की आवश्यकता को न तो टाला जा सकता है और न ही टाला जाना चाहिए। नोटबंदी की प्रक्रिया ने इस विषय में नई रुचि जगाई है और इसे गंवाना नहीं चाहिए। मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि मोदी सरकार संसद में आगामी बजट सत्र के दौरान इस संबंध में विधेयक ला सकती है। वह स्वागत योग्य होगा।
(लेखक द पायोनियर में ओपिनियन एडिटर, वरिष्ठ राजनीतिक टिप्पणीकार और लोक मामलों के विश्लेषक हैं)
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