ब्रिक्स और बिम्सटेक शिखर बैठकों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान को आतंकवाद के साथ उसके संबंधों के मसले पर जिस तरह आड़े हाथों लिया, वह भारत में कई लोगों को अतिवादी लगा। आलोचना के विभिन्न बिंदुओं का सार यही है कि इन बहुपक्षीय आयोजनों में पाकिस्तान पर इतना ज्यादा ध्यान देकर हमने अपना कूटनीतिक दायरा छोटा कर लिया, खुद को एक बार फिर पाकिस्तान से जोड़ लिया और इस तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने बढ़ते कद को बौना कर लिया। भारत को छोटे देशों की जमात में नहीं आना चाहिए, जो बहुपक्षीय मंचों पर भी केवल एक मुद्दे के पीछे पड़े रहते हैं। दलील दी जाती है कि ऐसे मंच किसी भी मुद्दे पर प्रतिभागियों का रुख अलग-अलग होने के बावजूद साझा आधार तलाशने तथा सर्वसम्मति विकसित करने के लिए होते हैं। उन्हें हिस्सा नहीं लेने वाले किसी तीसरे देश के खिलाफ कूटनीतिक बढ़त बनाने के मैदान के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। आलोचकों के अनुसार चीन ने आतंकवाद पर पाकिस्तान के खिलाफ भारत की धार को कुंद कर दिया और यह सुनिश्चित किया कि ब्रिक्स सम्मेलन के दस्तावेज में ऐसा कुछ न हो, जिसमें पाकिस्तान के बारे में भारत की चिंताएं परिलक्षित हो रही हों। उसके बजाय राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपने बयान में आतंकवाद की जड़ का जिक्र किया और परोक्ष रूप से यह जताया कि आतंकवाद के सिलसिले में भारत की समस्या के कुछ ऐसे कारण हैं, जिन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। पाकिस्तान पर जब भारत में आतंकवाद फैलाने का आरोप लगता है तो वह भी यही दलील देता है कि समस्या की जड़ कश्मीर का अनसुलझा विवाद है। सम्मेलन में दिए गए बयान में राष्ट्रपति पुतिन द्वारा आतंकवाद का जिक्र नहीं किया जाना भी भारत की कूटनीतिक पराजय मानी जा रही है। आलोचकों का कहना है कि आतंकवाद के अहम मसले पर भारत ब्रिक्स सम्मेलन के दस्तावेज पर अपनी छाप नहीं छोड़ सका, जबकि यह आम तौर पर मेजबान देशों का विशेषाधिकार होता है। यह दलील भी दी जा रही है कि भारत के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं, मसलन चीन की आक्रामक छवि होना, हमारे क्षेत्र पर वन बेल्ट वन रीजन परियोजना का प्रभाव, रूस और चीन के बीच सामरिक निकटता, पाकिस्तान की ओर रूस का झुकाव आदि। इसीलिए क्षेत्रीय तथा वैश्विक घटनाक्रम को आतंकवाद के संकरे चश्मे से देखना गलती होगी।
पाकिस्तान करीब ढाई दशक से आतंकवाद को भारत के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। उसके साथ अपने रिश्तों में इसे मुख्य मुद्दा मानने की अब तक हम आधी-अधूरी कोशिश करते रहे हैं। हमने चुपचाप आतंकी हमले झेले हैं, मुंबई हमले की क्रूरता तक झेली है और टकराव के बजाय बातचीत को तरजीह दी है। अगर हमें यह उम्मीद थी कि बातचीत के दरवाजे खुले रखकर भारत पाकिस्तान को अपने खिलाफ आतंकवाद का इस्तेमाल धीरे-धीरे बंद कर देने का मौका दे रहा है क्योंकि ऐसे गुटों को शह देना काफी महंगा भी हो गया है तो वह उम्मीद टूट चुकी है। अपनी ओर से टकराव टालकर पाकिस्तान की नीति में वास्तविक बदलाव की संभावना तलाशना दो दशक पुरानी बात हो चुकी है। लेकिन संयम बरतने और आतंकवाद के साथ पाकिस्तान की गलबहियों पर “आवश्यकता से अधिक” ध्यान नहीं देने की नीति कारगर साबित नहीं हुई है, जैसा हाल की घटनाओं से पता भी चला है। इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि ब्रिक्स और बिम्सटेक जैसे मंचों पर पाकिस्तान को इस मसले पर धूल चटाना भविष्य के लिए सभी विकल्प बंद किए जाने और गलती करने जैसा कैसे माना जा सकता है।
इसके उलट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुकूल घटनाक्रम को देखते हुए यह तो पाकिस्तान पर अधिक से अधिक दबाव डालने का एकदम सही वक्त होता। अमेरिकी राजनीतिक खेमों में आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान के दोगलेपन का जिक्र इतने खुले तौर पर किया जा रहा है कि वहां की संसद में पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने का प्रस्ताव ही आ गया, चाहे वह सांकेतिक ही है और पारित होने के लिए नहीं आएगा। अमेरिका ने पाकिस्तानी धरती से अफगानिस्तान में काम कर रहे आतंकी संगठनों की नकेल कसने में नाकामी के लिए पाकिस्तान को डपटा भी है। पाकिस्तान में आतंकी निशानों पर अमेरिकी ड्रोन हमले, पाकिस्तानी धरती पर तालिबान नेता मुल्ला मंसूर की हत्या और दूसरी घटनाओं से दुनिया भर को पता चल गया है कि पाकिस्तान आतंकवादियों के लिए सुरक्षित गढ़ है। पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ आतंकवाद को प्रायोजिक किए जाने की हमारी शिकायत को खाड़ी देश पहले से ज्यादा सुनने लगे हैं और अपनी जमीन से हो रही ऐसी गतिविधियों पर अंकुश लगाने तथा ऐसी हरकतें करने वालों को हमारे हाथों में सौंपने के इच्छुक तक हैं। इस्लामिक स्टेट के उभार ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान इस ओर खींचा है कि आतंकी खतरा सभी के लिए कितना गंभीर है।
आतंकवाद के साथ पाकिस्तान के सर्वविदित रिश्तों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने से हम उस देश के साथ जुड़ कैसे जाएंगे? हम न तो आतंकवादियों को पनाह देते हैं और न ही जिहादी गुट हमारी जमीन से काम करते हैं। अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के साथ हमारा कोई रिश्ता नहीं है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने घोषित अंतरराष्ट्रीय संगठनों की जो सूची बनाई है, उनमें से कोई भी भारत की जमीन से काम नहीं करता है। पाकिस्तान के भीतर विशेषकर बलूचिस्तान में हो रही आतंकी गतिविधियों में हमारा हाथ होने के पाकिस्तान के दुष्प्रचार को किसी ने भाव नहीं दिया है। आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ हमारे आक्रामक रुख को दूसरे देशों से समर्थन मिलने की अपेक्षा हमें नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान महत्वहीन देश नहीं है; वह परमाणु क्षमता से संपन्न है; वह बड़ा इस्लामी राज्य है; वह पश्चिम का साथी रहा है; चीन के साथ उसके बेहद मजबूत रिश्ते हैं; अफगानिस्तान में उसकी भूमिका को वहां सक्रिय ताकतें नजरअंदाज नहीं कर सकतीं; पाकिस्तान में लगातार बढ़ते चरमपंथ ने उसे खुद हालात और बुरे होने से रोकने पर मजबूर कर दिया है। लेकिन अधिकतर देश पाकिस्तान की असलियत से अनभिज्ञ नहीं हैं। उन्हें संबंध बनाने लायक महत्वपूर्ण देश पाकिस्तान और चरमपंथ तथा आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान के बीच संतुलन बिठाना है। हमें आतंकवाद के साथ पाकिस्तान के रिश्तों का खुलासा बहुपक्षीय मंचों पर करने से केवल इसीलिए नहीं रुक जाना चाहिए क्योंकि हमें मनचाहा समर्थन शायद नहीं मिल सकेगा। यह मुश्किल काम है, जिसमें धैर्य की जरूरत होती है। अपना रुख जोरदार ढंग से सामने रखने में ही हमारा हित है।
पाकिस्तान के चीन जैसे दोस्त उसकी हिफाजत की कोशिश करेंगे, लेकिन भारत के साथ अपने संबंधों के मामले में उन्हें कूटनीतिक दाम चुकाना पड़ रहा है। चीन के लिए यह “चित भी मेरी, पट भी मेरी” वाला मामला नहीं है। राष्ट्रपति शी ने अपने बयान में “असली कारणों” पर चिंता जताई है। लेकिन उइगर बहुल पूर्वी तुर्किस्तान में चीन की रानीतिक, धार्मिक और जनांकिक नीतियों और वहां लोगों के अधिकारों के दमन, जिसका प्रतिरोध भी हो रहा है, का जिक्र कर उन्हें आइना दिखाया जा सकता है। यदि चीन ने ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान गोवा में हमें आतंकवाद के मसले पर संतुष्ट नहीं होने दिया तो उन्हें भी दक्षिण चीन सागर और ओबीओआर के मसले पर कोई संतुष्टि नहीं मिल पाई। वास्तव में चीन में होने वाले अगले ब्रिक्स सम्मेलन में हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दक्षिण चीन के मसले पर चीन जो भी प्रस्ताव रखेगा, उसकी भाषा ऐसी हो कि वह पूरी तरह व्यापक रहे, उसमें अनक्लोस का जिक्र हो और इसमें चीन के रुख को किसी भी तरह से, परोक्ष रूप से भी, मान्यता नहीं दी जाए। इसी तरह हमें ओबीओआर का कोई भी जिक्र हटाने पर भी जोर देना चाहिए।
पाकिस्तान से आ रहे आतंकवाद पर हमारा जोर चीन को यह सशक्त संदेश देता है कि यदि पाकिस्तान आतंकवादी हमलों में मदद जारी रखता है और भारत जवाब देने के लिए मजबूर होता है तो पाकिस्तान में उसकी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए स्थिति अनुकूल नहीं रहेगी। इससे चीन को पाकिस्तान पर लगाम कसने का संदेश मिलता है। यह रूस के लिए भी संदेश है कि उसे भारत की चिंताओं के प्रति अधिक सतर्क रहना होगा। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर कल हमें पाकिस्तानी उकसावों का और भी अधिक बल के साथ जवाब देना पड़ता है तो हम पाकिस्तान की हरकतों के बारे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जोर-जोर से बोलकर कूटनीतिक तरीके से उसका आधार पहले ही तैयार कर चुके होंगे। हमें परेशान कर रहे आतंकवाद पर पाकिस्तान की असली मंशा बेहद आक्रामकता के साथ जताने से अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस बात की अग्रिम चेतावनी भी मिल गई है कि अगर पाकिस्तान ने भारत को निशाना बना रहे जिहादी संगठनों पर अंकुश नहीं लगाया और हमारे खिलाफ परोक्ष युद्ध जारी रखने के लिए इससे आंख मूंदने तथा खुद को आतंकवाद का शिकार दिखाने की पुरानी नीति पर चलता रहा तो कौन से खतरे पैदा हो सकते हैं।
इस तर्क में भी दम नहीं है कि आतंकवाद पर हमारे जोर देने से उन चुनौतियों की ओर से ध्यान हट रहा है, जो हमें चीन के बढ़ते आक्रामक रवैये, ओबीओआर, रूस-चीन के रणनीतिक मेलजोल और रूस-पाकिस्तान के अधिक संपर्क से झेलनी पड़ सकती हैं क्योंकि पाकिस्तान से हमें होने वाले आतंकी खतरे पर ही ध्यान केंद्रित रखने का फायदा यह है कि इससे चुनौतियों का सामने से सामना करने का हमारा मकसद पूरा होता है और रणनीतिक परियोजनाओं को आगे बढ़ाने तथा रणनीतिक हितों को हमारे खिलाफ इस्तेमाल करना आसान नहीं होता।
हमें आतंकवाद के बजाय दूसरी जगह ध्यान केंद्रित रखना चाहिए, इस तर्क को दूसरी ताकतों की कसौटी पर कसना होगा कि उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को कितनी अहमियत दी है, तब भी जब वह आतंकवाद स्वार्थी सैन्य प्रतिष्ठान की सत्ता वाले चिर वैमनस्य से भरे किसी पड़ोसी देश से नहीं बल्कि बहुत दूर से आ रहा था। अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक जंग का बिगुल बजाया, उसने सद्दाम हुसैन के आतंकी संबंधों का बहाना बनाकर इराक को नेस्तनाबूद कर दिया, उसने 11 सितंबर के हमलों के जवाब में अफगानिस्तान के खिलाफ जंग छेड़ दी, यह हिज्बुल्ला के साथ रिश्तों की वजह से ईरान पर आतंकवाद का आरोप लगाता है और परमाणु समझौते के बावजूद उस पर आतंकवाद से जुड़े कुछ प्रतिबंध उसने लगा रखे हैं और इतना ही नहीं सीरिया में विपक्ष से लड़ने के लिए आतंकी तरीकों का इस्तेमाल करने वाली असद सरकार को भी उसने निशाना बनाया है। इस्लामिक स्टेट के उभार और उसकी आतंकी बर्बरता के साथ ही अब पश्चिम एशिया में आतंकवाद के खिलाफ नई लड़ाई लड़ी जा रही है। यूरोप अपने घर में ही इस्लामी तत्वों के अभूतपूर्व आतंकी हमलों का सामना कर रहा है, जिससे समाज में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है और दक्षिणपंथी पार्टियों के मजबूत होने तथा जनता में इस्लाम-विरोधी भावना घर करने से वहां की घरेलू राजनीति पर असर पड़ रहा है। आतंकवाद के खतरे के कारण यूरोप के उदार लोकतंत्र परेशान हैं। छिटपुट आतंकी हमले अमेरिका में भी हुए हैं, जिनसे वहां भी इस्लाम-विरोधी भावनाएं भड़क रही हैं, जो चुनावी राजनीति में नजर भी आईं। रूस अपनी सुरक्षा के प्रति आतंकी खतरे को लेकर बहुत सतर्क है, हतना सतर्क कि सीरिया में अपने हस्तक्षेप को वह यह कहकर सही ठहराता है कि इस्लामिक स्टेट और उससे जुड़े चरमपंथी गुटों को क्षेत्र में पैठ बनाने तथा उसे रूस धमकाने के लिए इस्तेमाल करने से रोकने के लिए उसने रक्षात्मक कदम उठाया है। राष्ट्रपति पुतिन ने कहा है कि सीरिया दक्षिण रूस से केवल हजार किलोमीटर दूर है। रूस अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा से चरमपंथी तत्वों के मध्य एशिया में पहुंचने और वहां से रूस में घुसने के मसले पर भी बहुत चिंतित है। चीनियों के सामने भी पाकिस्तान के सुरक्षित स्थानों से और इस्लामिक स्टेट के कब्जे वाले क्षेत्रों से पूर्वी तुर्किस्तान में आने वाले कथित उइगर आतंकवाद का खतरा है। “आयरन ब्रदर” पाकिस्तान में अपनी परियोजनाओं के लिए उसे अब भी सुरक्षा की जरूरत है। आतंकवाद के साथ लड़ाई में पूरी कठोरता बरतने के बाद भी इन देशों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर न तो सफलता मिली है और न ही उनकी समझ बनी है। इसलिए हमें आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान के खिलाफ अपनी खुली लड़ाई बिना हिचक के लड़ते रहना चाहिए।
अंत में हमने ब्रिक्स में अपनी प्रतिभागिता को आतंकवाद के मुद्दे तक सीमित नहीं रखा। गोवा में ब्रिक्स घोषणापत्र में 109 अनुच्छेद थे, जबकि फोर्टालेजा और उफा में 75 से भी कम थे और उनमें केवल दो अनुच्छेद आतंकवाद के बारे में थे। इसके साथ ही भारत ने ब्रिक्स की गतिविधियों के तहत 112 कार्यक्रम आयोजित किए, जिनमें 24 प्रमुख कार्यक्रम थे और ब्राजील तथा रूस की तुलना में यह संख्या बहुत ज्यादा है। इस तरह जिस ब्रिक्स सम्मेलन की अध्यक्षता हमने की, उसका एजेंडा हमारे और दूसरों के लिए केवल आतंकवाद तक सीमित नहीं था, बहुत बड़ा था।
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[2] https://www.vifindia.org/author/shri-kanwal-sibal
[3] http://www.vifindia.org/article/2016/october/28/terrorism-was-a-bonafide-agenda
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