जब तुर्की का तख्ता पलट का प्रयास, या कहिये की असफल प्रयास हुआ तो मैं अहमदाबाद में था। मुझे एक व्यापारिक समारोह में भारत की राष्ट्रिय सुरक्षा के बारे में बोलना था। किसी कारणवश मेरे मेजबानों ने मुझे पहले तुर्की के बारे में कुछ शब्द बोलने को कहा, क्योंकि ज्यादातर श्रोता ये समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर उस देश में हो क्या रहा है। मैं तत्परता से इसपर बोलने को तैयार हो गया, मेरे जैसे खुद को रणनीतिक टिप्पणीकार कहने वाले लोग इस देश के बारे में ना जानें ऐसा नहीं हो सकता। इसके साथ ही सबको ये ध्यान रखना चाहिए कि तुर्की एक ऐसा देश है जो एक गंभीर रूप से संघर्षरत क्षेत्र है। साथ ही ये कोई परंपरागत युद्धों में रत नहीं है, इसलिए यहाँ की स्थिति को समझने में आम आदमी को परेशानी होती है।
अभिजात्य वर्ग के लोगों को इस्तांबुल शहर पसंद आता है, जो की एक बाल जैसी पतली सी बोस्फोरस से एशियाई और यूरोपियन हिस्सों में बनता हुआ है। बोस्फोरस के किनारे खाना सैलानियों को पसंद है, नीली मस्जिद में घूमना और ग्रैंड बाजार की अनगिनत दुकानों में थकने तक खरीदारी करना भी रोचक होता है। अंकारा, जो की वहां की राजधानी है, बिलकुल कटोरे जैसी जगह में स्थित है, चारों तरफ पहाड़ियों से घिरी हुई। भारत के निलगिरी पहाड़ों में स्थित हिल स्टेशन ऊटी से आप इसकी तुलना कर सकते हैं। इन पहाड़ियों पर आपको बड़े बड़े तुर्की झंडे फहराते दिखेंगे। ये उनके राष्ट्रवाद का प्रतीक है जिसे कमाल अतातुर्क, जिन्हें कमाल पाशा के ज़माने के एक हारे हुए राष्ट्र के राष्ट्रवाद का प्रतीक कहा जा सकता है। कमाल पाशा (मुस्तफा कमाल) बीसवीं सदी के उन चमत्कारी नेताओं में से हैं, जिन्होंने एक हारे हुए राष्ट्र में फिर से विश्वास फूंक दिया था।
एक शैक्षणिक दौरे और सरकारी एवं अन्य प्रतिष्ठानों के उच्च स्तरीय पास के साथ मैंने 2006 में अंकारा, इस्तांबुल, और एड्रिएटिक तट पर स्थित खूबसूरत शहर इज़मिर का दौरा किया था। इस दौरे में मुझे जो दिखा वो एक अनभिज्ञ व्यक्ति को तुर्की से वाकिफ करवाने के लिए प्रयाप्त होगा। कम शब्दों में कहा जाए तो ये जो आज तुर्की में हो रहा है वो इस्लामिक है और ये कोई कल या दो चार साल पहले नहीं बल्कि इतिहास में करीब सौ साल पहले शुरू हो गया था।
ओटोमन साम्राज्य, जिसकी स्थापना 1299 में हुई थी, उसने करीब सात शताब्दियों तक तुर्की पर शासन किया। ये एक अंतर महाद्वीपीय सल्तनत थी और अनातोलिया क्षेत्र में ही इनका मुख्य केंद्र था। ये साम्राज्य कई देशों में था, कई भाषाएँ इसमें चलती थी और दक्षिणपूर्वी यूरोप, पश्चिमी एशिया, काकेशस, उत्तरी अफ्रीका और हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के नाम से जाने जाने वाला क्षेत्र इसका भाग थे। इस्लाम के सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले खलीफाओं ने इस्लामिक द्रिस्तिकों से इस इस्लामिक राज्य की स्थापना की थी। कई शताब्दियों तक ये अंतर महाद्वीपीय वार्ताओं का केंद्र रहा। सब कुछ इस से होकर गुजरता था। ये एशियाई भी था और यूरोपियन भी। गलती से प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इसने जर्मनी से अपनी नजदीकियां बना ली। इसी वजह से मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने मिलकर इन्हें पराजित किया और 1918 में ओटोमन साम्राज्य का अंत हुआ।
सन 1918 से लेकर 1924 तक ओटोमन साम्राज्य को वही सब झेलना पड़ा जो एक हारे हुए साम्राज्य को झेलना पड़ता है। इसका अंत तब हुआ जा तुर्की की आजादी की लड़ाई छिड़ी और कमाल पाशा का उद्भव हुआ। यहाँ गौर करना होगा कि कमाल पाशा ने ही आधुनिक तुर्की की एक राष्ट्र के तौर पर स्थापना की और वहां शांति बहाल की। तुर्की दो महादेशों यानि एशिया और यूरोप में है और फारसी संस्कृति से प्रभावित भी ये चीज़ कमाल पाशा की नजर से छुपी नहीं थी।
उनका नजरिया था कि एक शक्तिशाली राष्ट्र के तौर पर तुर्की की स्थापना के लिए देश को आधुनिकता अपनानी होगी, एक यूरोपियन जैसे बर्ताव और चरित्र के साथ ही वो तरक्की कर सकता है। कबीलाई मानसिकता तो मध्य पूर्व, अरब और फारसी सभ्यताओं में थी वो तुर्की को विनाश की तरफ ले जाती। इस तरह तुर्की कभी मध्य युग की बेड़ियों से मुक्ति नहीं पा सकता था। कमाल पाशा शायद अपने दौर से काफी आगे की सोच रखते थे, जिस तरह से उन्होंने तुर्की को बदला वो इसकी गवाही देता है। उनका विशालकाय मकबरा और नजदीकी अजायबघर ये बताता है कि उन्हें तुर्की में किस नजर से देखा जाता है। क्या उस नजरिये में बदलाव आया है ? अगर इस सवाल का जवाब हां है, तो निस्संदेह वो तुर्की को उस सपने से दूर ले जाता है जो उसके लिए कमाल पाशा ने देखा था।
कमाल पाशा ने 1923 में कुछ कड़े फैसले लिए ताकि तुर्की को अपने पिछड़ेपन की बेड़ियों से आजाद किया जा सके। उनका विश्वास था कि यूरोप और पश्चिमी देशों की तरह सोच रखकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। शायद औद्योगिक क्रांति से यूरोप में आई आधुनिकता ही परिवर्तन का वाहन थी। जो भी चीज़ें फारसी सभ्यता से तुर्की को जोड़ती थी उन सब को बंद कर दिया गया। फारसी रातों रात प्रतिबंधित कर दी गई और लैटिन को राष्ट्र की भाषा बना दिया गया। यहाँ तक की सड़कों के नाम-निशाँ और मुख्यधारा की मीडिया में भी लैटिन का इस्तेमाल होने लगा। हिजाब, नकाब और लम्बे तुर्की टोप फेज़ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। तुर्की का समाज यूरोपियन स्वाद, मूल्य और जीवनशैली की तरफ बढ़ने लगा। ये तुर्की का नवनिर्माण पुराने एशिया से रिश्तों को तलाक देकर यूरोप से सम्बन्ध शुरू करना था।
जो भी परिवर्तन वो लाते उनके पालन के लिए वो सिर्फ सेना पर भरोसा करते थे। वो स्वयं एक कमाल के योद्धा भी थे और साथ ही एक जाने माने विद्वान् भी। जो कमाल पाशा की अवधारणा थी और धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक मूल्य उनके तुर्की के संविधान में थे उनकी जिम्मेदारी और भरोसा सिर्फ सेना पर था।
कमाल पाशा के आदर्शों से शुरू होकर रेसेप तय्यिप एरडोगन के इस्लामिक सिद्धांतों तक पहुँचने में अभी के राष्ट्रपति और उनकी न्याय और विकास पार्टी (AKP) का कई विद्रोहों का सफ़र रहा है। सेना ने वहां राजनीती से बाहर रहने का फैसला किया और जब भी राष्ट्र पिता के आदर्शों की अवहेलना हुई तो फ़ौरन सेना हरकत में आई। छोटे मोटे तख्तापलट के बाद सत्ता फिर से राजनीतिज्ञों को सौंप दी गई। अब जो शिकायत है वो तुर्की के बाकी यूरोप के साथ संबंधों को लेकर है, इसकी वजह से कमाल पाशा द्वारा स्थापित आदर्शों को अब पीछे छोड़ा जा रहा है।
अपनी विशाल सेना के कारण तुर्की का नाटो में स्वागत हुआ था। वॉरसॉ पैक्ट की वजह से यूरोप ऐसे राष्ट्रों से घिरा था जो कभी भी उसपर हमला कर सकते थे। ऐसे में तुर्की की विशाल सेना उनके लिए काम की थी। लेकिन जब यूरोपियन यूनियन (EU) में तुर्की को शामिल करने की बारी आई तो यूरोप लडखडाया। अचानक से उनकी रंग भेद, जाती भेद की भावनाएं उखड़ी और उन्होंने कदम खींच लिए। यूरोप ने वो हर संभव बाधाएँ खड़ी की जिस से तुर्की यूरोपीय संघ का हिस्सा ना बन पाए। अपने अंकारा दौरे के दौरान मैं यूरोपीय संघ के दफ्तर में अधिकारीयों से मिला ताकि तुर्की के यूरोपीय संघ में शामिल होने पर बात चीत की जा सके।इनकी शर्तों में से एक था कि तुर्की साफ़ सफाई और पर्यावरण के वो मानक अपनाये जो यूरोपीय संघ के हैं। इसका खर्च 30 बिलियन यू.एस. डॉलर था, जो किसी भी तरह तुर्की चुका नहीं सकता था। अरब मुल्कों में इस्लामिक उदय और यूरोपियन संघ में तुर्की के प्रवेश की मनाही वो बेईज्ज़ती थी जिसके वजह से तुर्की में असंतोष को बढ़ावा मिला। इस तरह कमाल पाशा की विरासत को छोड़कर तुर्की उस राह पर बढ़ चला जिसे आज एर्ड़ोगनिस्म कहते हैं।
ये लेख सैन्य तख्ता पलट की कोशिशों के बारे में नहीं है। ये उस परिपेक्ष्य पर है जो आम तौर पर लोगों की नजर से चूक जाता है। अभी के समय के इस्लामिक उदय को देखते हुए तुर्की वो देश था जहाँ की बहुसंख्यक आबादी इस्लामीकरण के खिलाफ थी। एर्ड़ोगनिस्म वो धरा थी जो इस्लामीकरण के हित की ओर तुर्की को धकेल रही थी। सैन्य तख्ता पलट की कोशिशों के बारे में आगे और भी लिखा जाएगा, लेकिन ये सिर्फ बीमारी का एक लक्षण था। मानसिकता के इस बदलते समय में ऐसा नहीं लगता कि तुर्की ज्यादा समय तक कमाल पाशा के महान सपनों का बोझ उठा पायेगा।
यहाँ गौर तलब है कि एक नाटो राष्ट्र के लिए जैसी उर्जा की उम्मीद की जाती है, वैसी तत्परता तुर्की ने आई.एस.आई.एस. से लड़ने में कभी नहीं दिखाई। वो कुर्दिश लड़ाकों (KKK) की शक्ति के उदय से ज्यादा चिंतित था, और अपने दक्षिण और पूर्व में कुर्दों की बढती शक्ति और उन्हें मिलती मदद से परेशान रहा। मोसुल की रिफाइनरी से आने वाले तेल की खरीदारी और अपनी सीमाएं आई.एस.आई.एस. के लिए खुली रखने का शक भी उसपर रहा। शरणार्थियों की गिनती बढ़ने के बाद ही ऐसा हुआ कि उसने सच में अपनी सीमायें बंद की।
अंत में तुर्की की स्थिति को ईजिप्ट की स्थिति से तुलना करने का लोभ भी मैं संवरण नहीं कर पा रहा। मुस्लिम ब्रदरहुड की इस्लामिक मानसिकता से वहां भी सिर्फ सेना रोकती थी। जमाल अब्दुल नास्सेर ने एक कट्टरपंथी इस्लामिक सय्यद क़ुतुब को तो फांसी ही दे दी थी।
मोहम्मद मोरसी की अरब समर्थन की सवारी से इजिप्ट में इस्लामिक कट्टरपंथ की घुसपैठ को 2012-13 में सीसी और इजिप्ट की सेना के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। यही वजह है कि आज हम इजिप्ट में सैन्य शासन देखते हैं। गौर करने लायक है कि अमेरिका इजिप्ट में सैन्य शासन का विरोधी रहा है और वो मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन करता रहा। ये सऊदी अरब का अभिशाप ही था कि उसने मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थन किया। कट्टरपंथी और नर्म इस्लामिक ताकतों के बीच ऐसा संघर्ष चलता रहेगा और हम भविष्य में ऐसी और क्रांतियाँ और प्रति-क्रांतियाँ देखेंगे। ये वो बड़ी हलचल है जो की इस्लाम में किसी भी व्यापक सुधार को जरूरी बना देगी। ये एक विद्वानों की राय है, ना कि किन्हीं कठमुल्लों की या अज्ञान में डूबे लोगों की जो लकीर के फ़कीर बने हुए हैं।
Links:
[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2016/july/27/turkey-parda-ka-peche-ka-sach-kya-ha
[2] https://www.vifindia.org/author/s-a-hasnain
[3] http://www.vifindia.org/article/2016/july/21/what-s-the-real-story-in-turkey
[4] http://www.bbc.com
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=तुर्की : पर्दे के पीछे सच क्या है?&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/-पर्दे-के-पीछे-सच-क्या-है.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2016/july/27/turkey-parda-ka-peche-ka-sach-kya-ha
[6] http://twitter.com/share?text=तुर्की : पर्दे के पीछे सच क्या है?&url=https://www.vifindia.org/article/hindi/2016/july/27/turkey-parda-ka-peche-ka-sach-kya-ha&via=Azure Power
[7] whatsapp://send?text=https://www.vifindia.org/article/hindi/2016/july/27/turkey-parda-ka-peche-ka-sach-kya-ha
[8] https://telegram.me/share/url?text=तुर्की : पर्दे के पीछे सच क्या है?&url=https://www.vifindia.org/article/hindi/2016/july/27/turkey-parda-ka-peche-ka-sach-kya-ha