प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में एक बातचीत के दौरान अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से कथित तौर पर कहा कि यह समय सरकार के विभिन्न घोषणाओं को प्रभावी ढंग से लागू करने के प्रयासों को बढ़ा कर दोगुना करने का है। कोई भी सरकार क्यों न हो, खासकर हमारी सरकार जिसे लोगों ने जन आकांक्षाओं की पूर्ति की भारी उम्मीदों के साथ चुना है, को घोषणाओं की संख्या के आधार पर आंका जा सकता है। अंततः समीक्षा सरकार की अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में प्रवीणता के आधार पर की जाएगी। इसके मद्देनजर प्रधानमंत्री, परियोजनाओं की प्रगति की निगरानी में काफी समय लगा रहे हैं और अपने सामने आए बाधाओं को दूर कर उसे सामान्य करने का आदेश देते हैं। सुशासन (एक नारा जिसके दम पर उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाया) की कुंजी ‘उचित कार्यान्वयन’ है। कार्यान्वयन की विफलता, कमरे में उस हाथी की तरह होता है, जिसे न तो छिपाया और न ही नजरअंदाज किया जा सकता है।
मोदी शासन की विभिन्न घोषणाओं में से दो- अगले पांच साल में किसानों की आय दोगुना करने का वादा और स्मार्ट सिटी परियोजना; अपने दायरे और चुनौतियों के लिहाज से साहसिक प्रतीत होती हैं। संयोग देखिए, उनमें से एक ग्रामीण क्षेत्र से संबंधित है, जो सालों से एक के बाद एक संकटों से जूझने के कारण पिछड़ता रहा है, तो दूसरा, शहरी भारत के सुधार से जुड़ा है, जहां लगातार गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन करने के कारण दवाब बढ़ता जा रहा है। ये दोनों राष्ट्रीय प्रगति के एक ही क्षितिज के दो सिरे हैं। प्रधानमंत्री और उनकी टीम के पास आगे एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसमें कई साल खप सकते हैं, जबकि उनके पास असीमित समय नहीं है। लिहाजा, सरकार ने अपने लिए समय सीमा निर्धारित की है, उन्हें पूरा करने में नाकाम रहने पर कुछ महीनों की कवायद, सरकार की कार्यक्षमता को गलत तरीके से प्रतिबिंबित करेगी।
जब केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इस वर्ष फरवरी के अपने बजट भाषण में कहा कि सरकार ने अगले पांच वर्षों में किसानी करने वाले परिवारों की आय दोगुनी करने का संकल्प लिया है, तब शंकाएं बहुत थीं; कुछ लोगों ने इसे कपोल कल्पना बताकर खारिज कर दिया था और इसे चर्चा के लायक भी नहीं माना था।
लोगों को इसपर शंका होने के अपने कारण थे। एक प्रमुख विशेषज्ञ, अशोक गुलाटी, ने राष्ट्रीय दैनिक (इंडियन एक्सप्रेस) में एक लेख लिखा, जिसमें उनका विचार था कि इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए औसत वार्षिक वृद्धि दर 14 फीसदी से अधिक रखना होगा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा हाल ही (2012-13) में कराए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया है कि एक किसान परिवार की औसत आय 77,112 रुपये सालाना है। यह 2002-03 के आंकड़े से तीन गुना था। उन्होंने आगे कहा, जैसा कि कई लोगों का मानना है, लक्ष्य तय करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए था। उन्होंने कहा कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कृषि-मजदूर) को देखते हुए आधार वर्ष 2004-05 में अपस्फीतिकारक के रूप में, एक औसत किसान परिवार की वास्तविक आय 2002-03 और 2012-13 के बीच में 3.5 फीसदी की चक्रवृद्धि वार्षिक दर से बढ़ी है। उन्होंने कहा कि इस दर पर, औसत किसान की घरेलू आय को दोगुनी करने के लिए 20 वर्ष का समय लगेगा।
लेकिन सरकार स्पष्ट रूप से दो दशकों तक इंतजार करने की मनोस्थिति में नहीं है। इसने, उत्पादन आधारित खेती से मूल्य वर्धित खेती में अंतरण हेतु रूपरेखा की सिफारिश करने के लिए एक अंतर-मंत्रालयी पैनल (जो जुलाई या अगस्त की शुरुआत तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा) का गठन किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ यह है कि सरकार ने अन्य चीजों के अलावा बड़े पैमाने पर नकदी फसलों को बढ़ावा देने का प्रस्ताव रखा है। यह एक चुनौती और अवसर दोनों है। एनएसएसओ के आंकड़ों के अनुसार खेती से कृषि आय का 48 फीसदी हिस्सा प्राप्त होता है। यदि सरकार किसानों को पूरी तरह से नहीं तो काफी हद तक मूल्य वर्धित खेती करने और पारंपरिक फसलों की खेती में कमी लाने के लाभ समझाकर और इसमें उनकी रुचि विकसित कर, उन्हें इसके लिए राजी कर लेती है, तो वह किसानों की आय को बढ़ाकर उसमें उल्लेखनीय परिवर्तन ला सकती है। संतुलन में नियंत्रित बदलाव से परंपरागत फसलों का उत्पादन, उस हद तक प्रभावित होने की संभावना नहीं है, जिससे कि देश को खाद्यान्न की कमी का सामना करना पड़े। अंततः हम एक उचित बफर स्टॉक बनाने के लिए पर्याप्त उत्पादन करते हैं और उसके बाद हमारे पास निर्यात के लिए काफी होता है। आंकड़ों की बात करें तो किसी भी स्थिति में, कुल खाद्यान्न उत्पादन तीन फीसदी की दर से, वर्ष 2014-15 में 257 लाख टन तक (जुलाई से जून) कम होने पर भी, निर्यात में कमी वैश्विक प्रतिस्पर्धा के कारण से भी आई थी। गेहूं में 36 फीसदी की रिकॉर्ड कमी दर्ज हुई थी।
इसके दो निहितार्थ हैं- जहां, एक ओर हमें पारंपरिक खाद्यान्न उत्पादन को एक सुविधाजनक स्तर पर बनाकर रखना है, वहीं हमें दूसरे प्रकार की खेती की ओर भी कदम बढ़ाना होगा, जिससे किसानों की आय में मामूली वृद्धि नहीं बल्कि बड़े स्तर पर वृद्धि की जा सके। लेकिन उत्पादन पैटर्न में बदलाव आमदनी बढ़ाने का सिर्फ एक जरिया है। यदि सरकार पांच साल (या कम से कम इसके आपसपास) में आय को बढ़ाकर दोगुनी करने का लक्ष्य पूरा करने का एक यथार्थवादी मौका चाहती है, तो उसे कई उपाय शुरू करने होंगे-और यहीं पर कार्यान्वयन का परीक्षण भी होगा। मवेशी पालन, ग्रामीण गैर-कृषि गतिविधियों और मजदूरी तथा वेतन (या तो खेतीहर मजदूर के रूप में या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम करने से प्राप्त) जिस भी प्रकार की आय हो, में सतत वृद्धि दिखनी चाहिए। वर्ष 2012-13 में मजदूरी और वेतन से आय में 39 फीसदी की कमी आई है जो 2002-03 में 32 फीसदी रही थी, वहीं गैर-कृषि गतिविधियों से आय में 11 फीसदी की कमी आई जो 2002-03 में आठ फीसदी रही थी।
हमने देखा है कि खेती, कृषि आय का सबसे बड़ी स्रोत बनी हुई है। खेती की उपज में मामूली वृद्धि से निश्चित तौर पर कृषि आय में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं होगी, यही वजह है कि सरकार की ओर से किसानों को सफलतापूर्वक ‘स्मार्ट खेती’ के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। हमें स्मरण रखना चाहिए कि स्थिर मूल्यों पर कृषि उत्पादन में 2004-05 से 2011-12 के बीच 34 फीसदी की वृद्धि हुई है, लेकिन इससे किसान की घरेलू आय में कोई बड़ी बढ़ोतरी नहीं हुई है। जबकि, इसके विपरीत एक बेहद समृद्ध ग्रामीण भारत की स्थिति होनी चाहिए थी। विभिन्न स्रोतों से जुटाए गए आंकड़े इस बात के तस्दीक करते हैं कि उसी जमीन पर मूल्य वर्धित फसलों से आय में चार गुना वृद्धि हो सकती है। ऐसी फसलों का उत्पादन अब और अधिक व्यावहारिक बन गया है, क्योंकि सरकार ने खाद्य क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को काफी हद तक बढ़ा दिया है। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न कंपनियां नकदी फसलों को खरीदने के लिए किसानों के साथ सीधे साझेदारी कर सकती हैं और इससे किसानों को आकर्षक मेहनताना मिलेगा।
इस बीच, ई-राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) की शुरुआत के साथ ही किसानों को उनकी पारंपरिक उपज के लिए भी बेहतर मूल्य मिलेंगे। आठ राज्यों से इक्कीस मंडियों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से जोड़ा गया है, जबकि सभी 585 मंडियों को मार्च 2017 तक ई-नेटवर्क के दायरे में लाया जाएगा। एक बार पूर्ण रूप से संचालित हो जाने पर, ई-नाम के जरिये किसानों को अपने उत्पाद के लिए राष्ट्रव्यापी बाजार उपलब्ध होगा, जिससे बिचैलिये बाहर जो जाएंगे और किसानों की आय में वृद्धि होगी।
चूंकि, किसान परिवारों की लगातार सीमित हो रही जोत के बावजूद खेती ही उनकी आय का सबसे बड़ा जरिया है, लिहाजा सरकार को शायद जिस सर्वाधिक जरूरी योजना को लागू करने में अपनी क्षमता का प्रदर्शन करना होगा वह है- सिंचाई तंत्र को फैलाना। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का क्रियान्वयन कितनी अच्छी तरह से हो पाता है, सभी की निगाहें उसी पर टिकी रहेंगी। वर्तमान में, 142 लाख हेक्टेयर के शुद्ध बुवाई क्षेत्र के लगभग आधे हिस्से में सिंचाई की सुविधा नहीं है और वहां मानसून पर निर्भर रहना पड़ता है। मोदी सरकार ने सभी 89 ‘सक्रिय’ सिंचाई परियोजनाओं को फास्ट ट्रैकिंग करने के रूप में कुछ सही कदम उठाया है। सामूहिक रूप से, इन परियोजनाओं से आठ मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचाई के दायरे में लाया जाएगा। परियोजना के लिए 86,500 करोड़ रुपये (सरकार के अपनेे आंकड़े के अनुसार) के वित्तपोषण की आवश्यकता होगी। सरकार, धन और समयबद्ध निष्पादन की चुनौती, दोनों को किस प्रकार से संचालित करती है, उससे इस उद्देश्य में सरकार की गंभीरता का पता लग जाएगा (इन परियोजनाओं में से कुछ चार दशकों से भी अधिक समय से लटकी पड़ी है!)।
अब स्मार्ट खेती से स्मार्ट शहर की तरफ चलते हैं। भारत जैसे देश जहां, इसके सबसे प्रमुख मेट्रो शहरों में, जर्जर परिवहन व्यवस्था है, दमघोटू स्तर की प्रदूषित हवा है, यहां तक कि बुनियादी स्वास्थ्य और स्वच्छता के मुदृदों पर जद्दोजहद है, नियमित रूप से बिजली की कटौती है, और जहां तक नागरिकों विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण का मामला है, यह निरंतर चिंतनीय है, वहां सही अर्थ में कम से कम एक स्मार्ट सिटी बनाना भी चुनौतीपूर्ण कार्य है। लेकिन सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन के तहत 20 स्मार्ट शहरों की स्थापना की महत्वाकांक्षी लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाया है जिसके बाद कम से कम 80 और स्मार्ट सिटी बनाए जाएंगे। इसके दोषपूर्ण कार्यान्वयन परियोजना बीच में ही अटक सकती है। इसके लिए सरकार जिन चुनौतियों का सामना कर रही है, उनमें सबसे प्राथमिक चुनौती परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर धन की उपलब्धता और राज्य सरकारों के साथ प्रभावी समन्वय है। यदि केंद्र सरकार अपने मिशन में सफल होती है, तो इससे शहरी भारत में सुधार की दृष्टि से अभूतपूर्व बदलाव आएगा।
अर्थशास्त्री और लेखक रुचिर शर्मा, अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक, द राइज एंड फॉल ऑफ नेशन में लिखते हैं कि भारत एक अरब से अधिक आबादी वाला केवल एक राष्ट्र है, जिसने 10 लाख से अधिक लोगों की आबादी वाले ‘‘दूसरे शहरों’’ को विकसित करने और उन्हें देश के आर्थिक विकास में एकीकृत करने में नाकाम रही है। वह कहते हैं, ‘‘भारत एक बड़ा लेकिन धीमी गति से चलने वाला लोकतंत्र है, जहां स्थानीय विरोध भूमि विकास को अवरुद्ध कर सकती है और राज्य अभी भी अपने लिए शहरी भूमि के विशाल हिस्से को सुरक्षित रखती है।
वह इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि ‘‘भारत की पुरानी बिल्डिंग कोड शहर में विकास को हतोत्साहित करता है और अपनी कीमत वसूलता है।...’’ जितनी तीव्र गति चीन ने दूसरी श्रेणी के शहरों को विकसित किया है, शर्मा, उससे भारत के विरोधाभास रिकॉर्ड की तुलना करते हैं और उससे यहां की समग्र आर्थिक और सामाजिक समृद्धि को जोड़ते हैं। वह कहते हैं कि, इन सब के बीच, चीन ने शेन्जेन और इसके पड़ोसी शहर डोंग्जुआन में 19 ‘‘बूम शहरों’’ को विकसित किया है।
भारत में इस तरह के शहरी केंद्रों की जरूरत पर अधिक बल नहीं दिया जा सकता है; शहरी भारत में देश की एक तिहाई आबादी के करीब लोग रहते हैं, जिससे यहां अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। जैसा कि शर्मा रेखांकित करते हैं, यदि औद्योगीकरण से शहरीकरण को प्रोत्साहन मिलता है तो भारत को तत्काल शहरी बुनियादी अवसंरचना विकसित करने की जरूरत है, क्योंकि मेक इन इंडिया और इसके समरूप अन्य महत्वकांक्षी कार्यक्रमों के चलते इसमें शहरीकरण में कई गुना बढ़ोतरी होने की उम्मीद है।
‘‘दूसरी श्रेणी के शहर’’, जिसे लेखक ने स्मार्ट शहरों के रूप में संदर्भित किया है, उसे अब केंद्र सरकार बनाने जा रही है। देश के विकास में उसके आर्थिक महत्व के अलावा, स्मार्ट सिटी, हमारे शहरों पर तनाव को कम करेंगे, जीवन स्तर को बढ़ाएंगे और पर्यावरणीय उपायों को बढ़ावा देंगे। परियोजना के निष्पादन से ही रोजगार सृजन में उल्लेखनीय वृद्धि होगी और बुनियादी ढांचे से संबंधित वस्तुओं की मांग में तेजी आएगी।
शर्मा ने विकास के लिए भूमि की अनुपलब्धता और दिनांकित इमारत कानूनों के रूप में कुछ चुनौतियों का उल्लेख किया है। यदि मिशन को सफल बनाना है तो अन्य कारकों के अलावा, अधिकारियों को इन चुनौतियों का हल भी निकालना होगा। परिभाषा के मुताबिक एक स्मार्ट सिटी में पर्याप्त पानी और बिजली की आपूर्ति होनी चाहिए, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन सहित आधुनिक स्वच्छता सुविधाएं होनी चाहिए; कुशल सार्वजनिक परिवहन; तीव्रतम नेट कनेक्टिविटी, डिजिटल रूप से संचालित और पारदर्शी प्रकार की शासन व्यवस्था; गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की सुविधाएं; और नागरिकों विशेष तौर पर महिलाओं और बच्चों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करने वाली अव्वल दर्जे की कानून व्यवस्था की प्रणाली, आदि होनी चाहिए।
केंद्र में भाजपा नीत गठबंधन सरकार के विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में स्मार्ट सिटी को विकसित करने के लिए जरूरी होगा कि राजनीति को किनारे कर केंद्र और राज्य तारतम्य स्थापित कर अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करें। 96,000 करोड़ रुपये की निर्धारित कुल परियोजना लागत राशि में राज्यों से आधी भागीदार की उम्मीद की गई है, जबकि आधी धनराशि केंद्र सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाएगी।
यह एक बड़ी राशि है, और केंद्र व राज्य दोनों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल से पैसे जुटाने होंगे। हालांकि, निवेश तभी आएगा जब निवेशकों के सामने एक स्पष्ट रोडमैप रखा जाएगा और उनसे यह वादा किया जाएगा कि कुख्यात नौकरशाही को बाधाएं खड़ी कर खेल बिगाड़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी। यदि शुरुआती चरण में धन मिलता है तो भविष्य के लिए यह उत्साहवर्द्धक होगा। ऐसा अनुमान है कि 20 साल की अवधि में इस परियोजना की लागत सात लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है-सरकारी अनुमान के मुताबिक 20 साल के लिए प्रति व्यक्ति निवेश 43,386 रुपये होगा।
जब स्मार्ट शहरों की अवधारणा को सरकार ने चर्चित किया था, तब स्मार्ट सिटी काउंसिल ऑफ इंडिया, के संस्थापक-निदेशक प्रताप पडोदे ने एक साल पहले (इकोनॉमिक टाइम्स में) चुनौतियों के बारे में लिखा था। आज जब परियोजना शुरू होने वाली है, तब वह आलेख और अधिक प्रासंगिक हो गया है।
अन्य मुद्दों पर चर्चा करने के अलावा, उन्होंने, ‘‘समय सीमा में मंजूरी प्रदान करने’’, ‘‘शहरी स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिरता’’, ‘‘केंद्र, राज्य सरकार और शहरी स्थानीय निकायों वाली तीन स्तरीय शासन प्रणाली’’, और ‘‘क्षमता निर्माण कार्यक्रम’’ की ओर इंगित किया था, जिसमें गुणवत्तापूर्ण जनशक्ति को शामिल किया जाता है, आंकड़े तैयार करने होते हैं, उपकरण और किट बनाये जाते हैं और निर्णय समर्थन प्रणाली विकसित करनी होती है। वैसे, लगभग ये सभी, हमारे वर्तमान नगर नियोजक और सामान्य तौर पर नीति निर्माताओं के लिए किसी और दुनिया की अवाधारणाएं हैं। अब, एक नई कार्य प्रणाली के सृजन के साथ एक पूर्ण परिवर्तित मानसिकता की जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
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