भारत में, परंपरागत रूप से राज्य विधानसभा के लिए उपचुनाव पदस्थ मुख्यमंत्री के उसके पद पर बने रहने के लिए, तकनीकी रूप से एक संवैधानिक वैधता हासिल करना है। आम तौर पर राजनीतिक हित का यह एक बड़ा सौदा नहीं है। आंकड़ों के लिहाज भी देखें तो, भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कुछ ही ऐसे अवसर हुए हैं, जब पदस्थ मुख्यमंत्री इस प्रकार जीत हासिल करने में नाकाम रहे हों। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती दक्षिण कश्मीर में अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र पर 23 जून को हुए उपचुनाव को जीतने में सफल रहीं। यह सीट इस साल जनवरी में उनके पिता के निधन के बाद से खाली हुई थी। अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र मुफ्ती साहब का राजनीतिक गढ़ रहा है, जहां से वे 2014 के अंत में हुए पिछले चुनाव में विजयी रहे थे, हालांकि महबूबा ने इस उपचुनाव में उनसे भी बड़े अंतर से जीत दर्ज की है। करीब 16000 मतों के अंतर से यह जीत इस मायने में जोरदार रहा कि उनके स्वर्गीय पिता की जीत के अंतर से इस जीत का अंतर दोगुना है। मुझे संदेह नहीं, दृढ़ विश्वास है कि यह पूरी तरह से मुफ्ती साहब की पसंदीदा राजनीतिक वारिस के पक्ष में सहानुभूति की लहर मात्र नहीं थी।
यह न ही, पूरी तरह से एक नवोदित पार्टी को महबूबा द्वारा लगभग अकेले ही समर्पित भाव से वर्षों तक राजनीतिक मजबूती देते रहने के परिश्रम का परिणाम था। अपने पिता के मार्गदर्शन में वह शीघ्र ही यह एहसास कर गईं कि घाटी में एक मजबूत राजनीतिक जमीन तैयार हो रही है, जिसे भरने की जरूरत है। तब पारंपरिक ‘शेर - बकरा’ राजनीतिक संस्कृति में कमी हो रही थी।
डॉ. अब्दुल्ला के चतुर नेतृत्व में प्रमुख राजनीतिक दल ‘नेशनल कांफ्रेंस’ पर बढ़ते आतंकवाद के कारण अत्यधिक दबाव पड़ रहा था। कांग्रेस किसी भी प्रकार से एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपांग से परे कोई अन्य भूमिका नहीं निभा पा रही थी। हुर्रियत के बैनर तले अलगाववादी केवल कश्मीर के लोगों के ‘सच्चे प्रतिनिधि’ होने का दंभ भर कर सकते थे, लेकिन चुनावपूर्व की राजनैतिक गतिविधियों के अलावा इसे चुनाव में जांचने का साहस नहीं जुटा सकते थे। वे कभी भी सामने आकर उस उठती हुई राजनीतिक जमीन को नहीं भर सकते थे। जबकि, उस समय कश्मीर मामलों में हो रही बदलाव को जानने वालों का कहना है कि सैयद सल्लाहुद्दीन और मीरवाइज को अवसर की पहचान थी, लेकिन वे इसे भूनाने में असफल रहे। या, उन्हें उनके नियंत्रकों द्वारा ऐसा करने से रोक दिया गया, जैसा कि 2008 के राज्य के चुनाव से पहले व्यापक रूप से अनुमान लगाया गया था। मुफ्ती साहब और महबूबा ने इसे किया और इसे कम सयम में किया। केवल एक दशक में उन्होंने जमीनी स्तर से एक पार्टी खड़ी कर दी और इसे सफलतापूर्वक कश्मीरी राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया। शायद महबूबा की जीत का सबसे उल्लेखनीय पहलू यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने तब के ‘राजनीतिक रूप से अछूत’ भाजपा के साथ पीडीपी को गठबंधन मोड में ला दिया, और उसके छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में अकेले जाने का फैसला किया। और अब अनंतनाग उपचुनाव में ‘सांप्रदायिक ताकतों’ के हाथों बिकने के अनंत आरोपों के बीच, वह दृढ़तापूर्वक भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ीं। दिलचस्प है कि, ‘बिकने’ के आरोप, संसदीय चुनाव के दौरान तुलनात्मक रूप से कम था, लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों के बाद की स्थिति में श्रीनगर में एक गठबंधन सरकार के गठन की जरूरत पड़ने पर जब सहभागी करीब आए, तब यह अभियान पूरे जोर-शोर से चलाया गया। अनंतनाग में एक जबरदस्त जीत से उनके राजनीतिक कौशल को लेकर अब सभी प्रकार की राजनीतिक बहस पर विराम लग जाने की उम्मीद है। कम से कम राजनीतिक तौर पर उन्होंने वास्तव में एक चढ़ाई चढी है।
लेकिन वहां सत्ता संभालने के बाद अब राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री के लिए जरूरी है कि वह कश्मीरी राजनीति और कश्मीरी लोगों को पिछले साल के चुनावों में मिले जनादेश के साथ रहने के लिए तैयार करें; पूरे कश्मीर में न कि टुकड़ों में कश्मीर के लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं को पूरा करें। ये उम्मीदें और आकांक्षाएं तीनों क्षेत्रों में काफी अलग-अलग हैं, जिन्हें पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है। पहले के वर्षों में उनकी उल्लेखनीय पूर्ववर्तियों के समय से भी ये काफी अलग हैं। और दुर्भाग्य से, सभी को स्वीकार्य उपयुक्त हल निकल पाना पहले की तरह ही मुश्किल होगा।
महबूबा जैसी चतुर राजनीतिक आयोजक, नहीं देखा गया है, लेकिन गठबंधन सरकार के प्रमुख की भूमिका में एक प्रभावी मुख्य प्रशासक के तौर पर, शायद सबसे कठिन राज्य का शासन करने की परीक्षा में उनका उत्तीर्ण होना अभी शेष है। राजनीतिक रूप से तटस्थ प्रेक्षकों, विशेष रूप से पीडीपी या भाजपा की तरफ झुकाव नहीं रखने वालों का मानना है कि मुख्यमंत्री के रूप में महबूबा, ने पिछले कुछ महीनों में आश्चर्यजनक रूप से अच्छी तरह प्रशासन किया है। इसमें बड़ी संख्या में घाटी और जम्मू क्षेत्र के लोग शामिल हैं।
हालांकि, कुछ राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि शुरू में वह मुफ्ती साहब के लिए शोक की अवधि के बाद भी गठबंधन नेतृत्व की विरासत को संभालने में झिझकीं, जो कि उनका गलत निर्णय था। वह एक निर्णायक कार्रवाई का क्षण था, जिसमें वह झिझकीं। इससे उनमें आत्म विश्वास या आत्म आश्वासन की कमी की झलक मिली। इसे देरी कहा जा सकता है, इसकी वजह से यहां तक कि उनकी पार्टी के विधायकों के एक वर्ग में भी, पार्टी का मध्यावधि चुनाव में जाने के निर्णय पर गंभीर अटकले शुरू हो गई, जिसे चुनने की स्थिति में महबूबा पार्टी के भीतर ही अलग-थलग पड़ सकती थी। अंत में उन्होंने राजनीतिक रूप से सही चुनाव किया।
फैसला लिए जाने के बाद, शासन के किसी भी क्षेत्र में उनके नेतृत्व पर उंगली उठाना मुश्किल है, फिर चाहे वह एनआईटी श्रीनगर में छात्रों के आंदोलन के साथ शुरू हुई घटना हो, जहां उन्होंने उप मुख्यमंत्री और उनकी टीम को सफलतापूर्वक क्षति को नियंत्रित करने के प्रयासों का नेतृत्व करने दिया। अनभिज्ञ विपक्ष द्वारा अनुचित रूप से दबाए जाने के स्थान पर जटिल और भावनात्मक मुद्दों को हल करने के साथ ही, स्थिति से निपटने के उनके कौशल ने गठबंधन सहयोगियों के बीच अपार विश्वास, उत्पन्न किया है, मुफ्ती के निधन के बाद सरकार के लिए पहली बार इस तरह की परीक्षा की घड़ी आई थी।
लेकिन पिछले महीने श्रीनगर शहर में लक्षित हिंसा के रूप में शीघ्र ही उन्हें असली चुनौती का सामना करना पड़ा, जो संभवतः हिज्ब-उल-मुजाहिदीन के आतंकवादियों से कराया गया था और इसमें चार पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे। इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा की एक-दो मामलों को छोड़कर, श्रीनगर के निचले हिस्से में काफी हद तक महीनों से शांति बनी हुई है। यह भी कहा जा सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में एक समूह के रूप में हिज्ब स्थिर हो गया है। हालांकि, एक वैकल्पिक राजनीतिक इकाई के तौर पर पीडीपी के साथ गठबंधन में नहीं बल्कि उसका मौन समर्थक माना जा रहा है। तो, सवाल यह खड़ा होता है कि हिज्ब, जो निस्संदेह आईएसआई के लिए कार्य करता है, नई मुख्यमंत्री को संदेश भेज रहा था कि वह सुचारू बदलाव और अपनी चुनावी सफलता से दूर न जाएं। ‘निर्धारित मापदंडों के भीतर रहते हुए; हम अभी भी चारों ओर मौजूद हैं और सक्षम हैं’, इन घटनाओं के पीछे इसका संकेत मिलता है। पंपोर, (लगभग श्रीनगर के बाहरी इलाके) में लश्कर के आंतकियों द्वारा सीआरपीएफ के काफिले पर हाल के फिदायीन हमले, एक के बाद एक संदेशों के तीव्र दोहराव के संकेत देते हैं।
अजीब है कि ऐसे समय में पाकिस्तान ने अपने ‘सामरिक परिसंपत्तियों’ के जरिये इन संदेशों को देने का प्रयास किया है, जब वह भारत के साथ ठप पड़ी विदेश सचिव स्तर की सीबीडी वार्ता को फिर से शुरू करने के लिए बेसब्री से प्रयास कर रहा है, वह पूरी तरह से यह भी जानता है कि भारत इस प्रकार के ब्लैकमेल की रणनीति के आगे घुटने नहीं टेकेगा। आज की स्थिति में वह अपने स्वयं के सांसदों सहित किसी को भी अपने एजेंसियों की गैर भागीदारी की बात पर राजी नहीं कर सकता है। अतः वह जो भी पाना चाहता है, उसे तर्क खारिज कर देता है। कोई व्यक्ति माननीय रक्षा मंत्री श्री पार्रिकर के इस आकलन से सहमत हो सकता है कि पाकिस्तान हताश होता आया है और मैं इसमें जोड़ता हूं कि यदि इसके पास कोई संतुलन की भावना थी, तो उसे इसने खो दिया है।
इससे भी अधिक दिलचस्प यह है कि सुश्री महबूबा मुफ्ती ने पाकिस्तानी दहशतगर्दों को दो टूक शब्दों में प्रतिक्रिया दी है; अपराधियों को ठोस, सटीक और कठोर संदेश देते हुए उन्होंने कहा है कि वह किसी भी तरफ से हिंसा को बर्दाश्त नहीं करेंगी और इसके लिए वह कठोर से कठोर कदम लेंगी। यह पहली घटना जो उन्हें एक निर्णायक नेता के रूप में स्थापित करती है। लेकिन वह यहीं नहीं रुकी। सैनिक कॉलोनी और पंडितों की वापसी के मसले पर बहस में भी वह अपने विरोधियों से सीधे तौर पर टकराईं। सदन में पहली बार उन्होंने अलगाववादियों और अन्यों को स्पष्ट संदेश देते हुए उन्हें अपनी सीमा में रहने की नसीहत दी। उसी कड़े लहजे में पंपोर की घटना के बाद भी उन्होंने आतंकवादियों को धर्म के नाम पर लोगों को मारने और रमजान के पवित्र महीने की पवित्रता का सम्मान नहीं करने के लिए फटकार लगाई।
इन बयानों ने कश्मीर में और उससे बाहर लोगों का ध्यान इस ओर खिंचा। जनता की नजर में एक वह एक अलग महबूबा थी। यहां किसी को यह संदेह हो सकता है कि पार्टी के भीतर और बाहर उनके जितने अधिक विरोधी होंगे, वह प्रतिक्रिया देने में उतनी ही आक्रामक होती जाएंगी। उनका रवैया ढुलमुल नहीं होने से कश्मीर पर नजर रखने वालों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
फिर भी, समग्र मूल्यांकन करने पर समझ में आत है कि यह न तो उनके लिए आसान है और न ही सहज होने जा रहा है। उनकी प्रेरक अपील और कठोर चेतावनी का असर नहीं हो रहा है। हम सभी जानते हैं कि सीमा पार से भारी उकसावे का एक एजेंडा जारी है और वह कश्मीरी लोगों या उनके कल्याण की चिंता से पूरी तरह अलग है। इस तरह के उकसावे का न केवल आगे जारी रहने बल्कि इसमें तीव्रता आने के भी आसार हैं। आईएसआई या लश्कर को वास्तव में कितने कश्मीरियों की कब और कहां जान गई है, से कोई लेना-देना नहीं है। वे उस बुनियादी सिद्धांत को नहीं पहचानते हैं, जिसे एक कश्मीरी नेता ने एक दशक पहले रखा था, ‘‘जीवन जीने के अधिकार अन्य सभी अधिकारों से पहले आता है।’
नई नेता से सीमा पार से उत्पन्न गंभीर चुनौतियों के अलावा बाहर से प्रायोजित आतंकवाद से, जल्दी छुटकारा दिलाने और शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में तेज, स्थायी और दिखाई देने वाली विकासात्मक गतिविधियों; प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ निरंतर अभियान; स्वच्छ, कुशल, जवाबदेह और उत्तरदायी प्रशासन प्रदान करने; आतंकवाद और कानून एवं व्यवस्था की चुनौतियों के साथ मजबूती से निपटने; पुलिस बल का मनोबल फिर से उठाने; प्रशासनिक मशीनरी में लोगों का विश्वास बहाल करने, दिल्ली और श्रीनगर के बीच विश्वास की कमी को पाटने जैसी बढ़ती चुनौतियों एवं ऐसे ही कई अन्य चुनौतियों को हल करने की आशा की जाएगी।
सूची लंबी है, लगभग अंतहीन और इसे छोटी सी समयाविध में पूरा करना किसी भी इंसान के लिए लगभग असंभव है। लेकिन प्रयास तो किया ही जाना चाहिए। इसी तरह की स्थिति 1996 के विधानसभा चुनाव के बाद भी उत्पन्न हुई थी। लोगों की भारी उम्मीदों को अनुपयुक्त, अनचाही और बिना तैयार प्रशासनिक मशीनरी से पूरा नहीं किया जा सकता है। महबूबा सरकार को राज्य में प्रत्येक चुनाव के बाद जारी चक्रीय राजनीतिक परिवर्तन से सबक लेना चाहिए। कई वर्ष से राज्य में कोई भी सरकार लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए चुन कर नहीं आई है, जिसका कारण होता है, किए गए वादों को पूरा नहीं कर पाना।
यदि उस दुर्भाग्य को दूर करना है, तो शासन में एक पूरी तरह से नए दृष्टिकोण को चतुराई से स्थापित करना होगा। राज्य सरकार और केंद्र सरकार को एक साझा व सहयोगी दृष्टिकोण अपनाना होगा, जो कि पारंपरिक राजनीतिक मजबूरियों और वोट बैंक की राजनीति के लालच/दबावों से परे हो। राज्य में तथाकथित जातीय-धार्मिक विविधता को अन्य किसी चीज की तुलना में इसे अपनी ताकत में परिवर्तित करने की मांग की जानी चाहिए। ‘हमारे बनाम उनके’ वाले दृष्टिकोण का किसी भी समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। एक आंशिक रूप से सामाजिक और धार्मिक मतभेदों पर फले-फूले दशकों के उग्रवाद ‘कश्मीरियत की विरासत’ के उत्सव का बाधित करता रहा है।
बिना किसी संकोच के कोई भी कह सकता है कि, राज्य द्वारा सामना किए जा रहे चुनौतियों के समाधान में जिम्मेदारी का संतुलन, संघीय सरकार पर भारी होता है। नई दिल्ली को सबसे पहले यह सुनिश्चित करना है कि कि आईबी और नियंत्रण रेखा, आतंकवादियों की घुसपैठ से पूरी तरह सुरक्षित हैं, जिसमें पहले ही काफी देर हो चुकी है। इसे राज्य के सभी भागों में शांति सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय अर्ध सैनिक बलों के प्रभावी और व्यापक तैनाती के लिए पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए। विकासात्मक गतिविधियों और सुशासन के कार्यक्रमों का अनुसरण तभी होता है जब बुनियादी ढांचे के विकास की शुरुआत, शैक्षिक उत्कृष्टता के केंद्रों की स्थापना, विशेष और भली प्रकार से संरक्षित औद्योगिक क्षेत्रों के निर्माण, विश्वसनीय बिजली आपूर्ति के प्रावधान आदि किए जाएं।
इन सभी की शुरुआत प्राथमिकता के आधार पर होनी चाहिए, लेकिन इस गलत धारणा के साथ नहीं कि केवल आर्थिक और विकास के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना ‘वास्तविक सामान्य स्थिति’ बहाल करने के लिए पर्याप्त होगा। अतीत की तरह अब दिल्ली को दर्ज किए गए आतंकी घटनाओं, मारे गए आतंकवादियों की संख्या, मारे जाने का-अनुपात, घुसपैठ आदि के वास्तविक आंकड़ों की भाषा में ‘सामान्य स्थिति’ को मापने के जाल में उलझने नहीं देना चाहिए। सामान्य स्थिति बहाल करने का वास्तविक पैमाना लोगों के दिमाग में उनके ‘दुःख और दर्द’ को दूर करने के उपाय बैठाना, मुख्यधारा में उनका एकीकरण और उनके ‘अलगाव’ की गहराई को कम किया जाना है।
जब भी कश्मीर के लोगों को नई दिल्ली से एक राजनीतिक पैकेज का इंतजार रहता है, दुर्भाग्य से हर बार दिल्ली आर्थिक तौर पर कुछ देकर मामला शांत कर देती है। अपने मार्गदर्शक रणनीतिकार और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजीत डोभाल के साथ मिल कर, केंद्र सरकार को चाहिए कि वह राज्य सरकार को पूर्ण रूप से बोर्ड में रखते हुए सभी तरह के कश्मीरी नेतृत्व के साथ साझेदारी की वसीयत तैयार करे। इसका एक बड़ा सौदा अतीत की तरह ट्रैक द्वितीय के तहत हो सकता है। इसमें किसी भी पुनरावृत्ति की जरूरत नहीं है, क्योंकि रावलपिंडी और इस्लामाबाद के लिए अलगाववादियों के नई दिल्ली से संपर्क साधने से अधिक कुछ भी हतोत्साहित करने वाला नहीं होता है। इसका विस्तारपूर्वक दोहन किया जाना चाहिए, यह जितना जल्दी हो उतना बेहतर है।
मोदी सरकार से कश्मीर के लोगों को जो विशाल उम्मीदें थीं, राज्य में उसके बाद पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार के गठन से इसमें पंख लग गए हैं। अतः अब कार्य करने का समय है और इसे शीघ्रातिशीघ्र पूरा किया जाना चाहए। इस प्रक्रिया में, महबूबा को दिल्ली की प्रमुख सहयोगी होना चाहिए। वह अच्छी शुरुआत करती हुई दिखाई पड़ रही हैं, उनके नेतृत्व में करिश्मा है, उनका कश्मीरी जनता तक पहुंच और उनके साथ संवाद है। अब दिल्ली की बारी है कि वह महबूबा के हाथों को मजबूत करे और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे। और इस प्रयास में पूरा देश उन दोनों का समर्थन करेगा।
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