म्यांमार में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी के राष्ट्रपति तिन जॉ के नेतृत्व वाली नई सरकार, जिसकी कमान असल में आंग सान सू ची के हाथ में है, को सत्ता में आए दो महीने पूरे हो गए। वर्तमान म्यांमार सरकार के सामने देश में और पड़ोसियों तथा अन्य प्रमुख शक्तियों के साथ विकसित होते संबंधों में कई बड़ी चुनौतियां हैं। देश के भीतर म्यांमार के विभिन्न जातीय सशस्त्र समूहों के साथ शांति प्रक्रिया एवं सुलह को तेज करना प्रमुख मुद्दों में से है, जिससे जल्द से जल्द निपटना होगा।
मंत्री बनकर चार मंत्रालय संभाल रहीं आंग सान सू ची ने शांति एवं सुलह करने का जिम्मा अपने हाथ में लिया है और इस तरीके को वह 21वीं सदी का पांगलोंग सम्मेलन कहती हैं। इतिहास में जाएं तो सू ची के पिता और बर्मा के सम्मानित नेता जनरल आंग सान ने 1947 में पांगलोंग सम्मेलन आयोजित किया था। उसका उद्देश्य अंग्रेजों से आजादी प्राप्त करना और बर्मा में शामिल सभी संघीय इकाइयों को एक सीमा तक स्वायत्तता प्रदान कर उसे राज्यों का संघ बनाए रखना था। उसके बाद से ही जातीय अल्पसंख्यक समुदायों के नेता आजादी के फौरन बाद हुए पांगलोंग समझौते के लाभ पाने के लिए संघर्षरत हैं।
दूसरी ओर कमांडर इन चीफ सीनियर जनरल मिन आंग लैंग के नेतृत्व वाली म्यांमार सेना (टपमाटॉ) पांगलोंग समझौते में तय हुए राज्यों के संघ के बजाय एकल सरकार की प्रणाली का समर्थन करती रही है। पिछले छह महीनों में और विशेषकर पिछले एक महीने में काचिन, ताआंग नेशनल लिबरेशन आर्मी टीएनएलएल (टीएनएलए), म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी (एमएनडीएए) और अराकान आर्मी (एए) म्यांमार सशस्त्र बलों के साथ झड़पों में लिप्त रहे हैं। ऐसे सभी गुटों को अक्टूबर 2015 में हुए राष्ट्रीय शांतिविराम समझौते से अलग कर दिया गया। एक विचार यह भी है कि जातीय सशस्त्र गुटों के प्रति वर्तमान सरकार और ततमादॉ का रवैया अलग-अलग है, इसीलिए निकट भविष्य में इस समस्या का समाधान संभव नहीं है। म्यांमार में अधिकारों के बंटवारे को देखते हुए सशस्त्र समूहों के साथ समझौते में सेना के दखल को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
पिछले महीने नेपीडा में जनरल मिन आंग लैंग ने एक बैठक में कहा कि सभी जातीय सशस्त्र गुटों को ‘सेना के शांति सिद्धांतों’ का पालन करना ही होगा और विवादों से बचने के लिए अपने निर्धारित इलाकों में ही रहना होगा ताकि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के जरिये शांति प्राप्त की जा सके।
नई सरकार आंतरिक समस्याओं में उलझी है और प्रमुख शक्तियां म्यांमार में अपने राजनीतिक-सामरिक, आर्थिक एवं सुरक्षा संबंधी हित साधन के लिए नई सरकार की ओर हाथ बढ़ा रहे हैं। सबसे पहले चीन ने हाथ बढ़ाया और नई सरकार के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने के मकसद से अप्रैल के पहले सप्ताह में अपने विदेश मंत्री वांग यी को म्यांमार भेजा। वांग यी ने म्यांमार की विदेश मंत्री सू ची से ही मुलाकात नहीं की बल्कि वह नेपीडा में दूसरे शक्ति केंद्र के प्रमुख यानी जनरल मिन आंग लैंग से भी मिले। चीन पिछले कुछ समय से आंग सान सू ची से घनिष्ठता बढ़ा रहा है। पिछले वर्ष चुनावों से काफी पहले वह चीन सरकार के न्योते पर वहां गई थीं। माइत्सोन हाइड्रोपावर जैसी कुछ चीनी परियोजनाएं ठप होने के बावजूद म्यांमार में चीन का अच्छा खासा प्रभाव है।
म्यांमार में उदारीकरण के बाद पश्चिमी देश ओर भारत वहां निवेश के अवसर खंगाल रहे हैं, लेकिन सू ची अच्छी तरह जानती हैं कि धन और अन्य विभिन्न रूपों में मिलने वाली चीनी मदद सुलह और आर्थिक विकास के लिहाज से म्यांमार के लिए बहुत जरूरी है।
पिछले दो महीनों में अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी, जापान के विदेश मंत्री फुमियो किशीदा, कुछ यूरोपीय देशों के विदेश मंत्रियों जैसी प्रमुख हस्तियों तथा थाईलैंड, वियतनाम एवं सिंगापुर से कुछ लोगों ने म्यांमार की यात्रा की है। इन यात्राओं का उद्देश्य म्यांमार में जारी परिवर्तन तथा नई सरकार के प्रति समर्थन जताना रहा है। उदाहरण के लिए जॉन केरी की यात्रा के दौरान अमेरिका ने म्यांमार पर लगे कुछ प्रतिबंध हटा दिए। किंतु कुछ व्यक्तियों तथा समूहों पर प्रतिबंध जारी रहे। नेपीडा में आंग सान सू ची के साथ संयुक्त सम्मेलन में जॉन केरी ने कहा, ‘‘लोकतंत्र के रास्ते पर चलने के मामले में म्यांमार के भीतर होने वाली वास्तविक प्रगति ही (शेष) प्रतिबंधों को हटाने का जरिया है।’’
फुमियो किशीदा ने कहा कि ‘‘हम ऐसा वातावरण तैयार करने में म्यांमार सरकार के साथ सहयोग करेंगे, जिसमें म्यांमार के लोगों और जापान के कारोबार दोनों का फायदा होगा।’’ उन्होंने रोजगार सृजन में तेजी लाने और म्यांमार के कृषि, शिक्षा, वित्त, स्वास्थ्य सेवा तथा बुनियादी ढांचा क्षेत्रों का विकास बढ़ाने का वायदा किया।
किंतु भारत की ओर से नई सरकार के साथ सक्रिय सहयोग अनुपस्थित रहा है, जबकि नई दिल्ली म्यांमार को अपनी ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण मानती है तथा आसियान समुदाय के लिए रणनीतिक जमीनी पुल भी समझती है। म्यांमार में नई सरकार के सत्तासीन होने के बाद वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्मला सीतारामन ने 18 से 20 मई तक वहां का दौरा किया और ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय मंत्री थीं। इसके बावजूद ऐसा लगता है कि नई व्यवस्था के करीब जाने में कुछ संकोच और ढिलाई हो रही है। उनके साथ भारतीय कंपनी प्रमुखों का 25 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल यांगून में भारत-म्यांमार व्यापार सम्मेलन में गया, जहां उन्होंने म्यांमार के निर्माण मंत्री यू विन खैंग, म्यांमार के वाणिज्य मंत्री थान माइंट और उद्योग मंत्री यू खिन माउंग से चर्चा भी कीं। उनकी यात्रा यांगोन तक ही सीमित रही और उन्होंने नेपीडा में शक्ति की नई केंद्र आंग सान सू ची से मुलाकात भी नहीं की।
भारत-म्यांमार सुरक्षा मोर्चे पर कॉरकॉम, जो मणिपुर तथा म्यांमार में ठिकानों वाले कुछ भारत विरोधी उग्रवादियों का समूह है, के कुछ तत्वों ने 22 मई को असम राइफल के भारतीय जवानों पर घात लगाकर हमला किया और उनमें से छह की हत्या कर दी। जवाब में 25 मई को भारतीय बलों ने म्यांमार की सीमा के दूसरी ओर छिपे इन उग्रवादियों के खिलाफ संयुक्त अभियान चलाया और 8 उग्रवादियों को मार गिराया तथा 18 को पकड़ लिया, जिन्हें बाद में म्यांमार प्रशासन को सौंप दिया गया। इन घटनाक्रमों की खबरें म्यांमार मीडिया में नहीं आईं, हालांकि भारतीय मीडिया में से कुछ ने इसकी थोड़ी-बहुत खबर दी।
पिछले साल ऐसी ही एक घटना में जब भारतीय जवानों ने कुछ जवानों की हत्या कर भारत-म्यांमार सीमा पर शिविरों में छिपे नगा उग्रवादियों के खात्मे के लिए सीमा पार अभियान चलाए थे तो आंग सान सू ची ने कहा था कि ऐसे अभियानों के मामले में ‘पारदर्शिता’ होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में बोलते हुए आंग सान सू ची ने उन्हें ‘‘संकोची व्यक्ति’’ कहा और भारतीय लोकतंत्र से और भी अपेक्षाएं होने की बातें कहीं। संभव है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को उन टिप्पणियों से आपत्ति हो। लेकिन यह सब नवंबर में म्यांमार में होने वाले चुनावों से पहले की बात है और इस बार सीमा पार हुई घटनाओं के बाद ऐसा कुछ नहीं कहा गया। भारत का इतना कुछ दांव पर लगा है कि वह ऐसी छोटी-छोटी बातों पर नाराज नहीं हो सकता। अब प्रधानमंत्री मोदी या कम से कम हमारी विदेश मंत्री को म्यांमार का दौरा करना चाहिए। चूंकि हमारी विदेश नीति में ‘पड़ोस को प्राथमिकता’ देने की बात कही जाती है, इसलिए म्यांमार के साथ सर्वोच्च राजनीतिक स्तर पर संवाद होना चाहिए। इसके अलावा उनके सैन्य नेतृत्व से संपर्क किया जाना चाहिए और हमारे रक्षा मंत्री एवं सैन्य प्रमुखों को भी वहां जाना चाहिए। यदि हमें अपनी ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करना है तो म्यांमार के साथ मजबूत राजनीतिक, आर्थिक एवं सुरक्षा संबंध बहुत आवश्यक हैं।
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[3] http://www.vifindia.org/article/2016/june/13/power-transition-in-myanmar-and-indo-myanmar-relations
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