यद्यपि अभी तक इस बात की पुष्टि नहीं हुई है, अमेरिकी अधिकारियों ने काफी विश्वास के साथ दावा किया है कि उन्हें पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में किए गए एक ड्रोन हमले में तालिबान के अमीर-उल-मोमीनीन (वफादारों का नेता) को मार गिराने में कामयाबी मिली है। यदि वास्तव में मुल्ला अख्तर मंसूर की मौत हो गई है तो इस गतिविधि के निहितार्थ बहुत महत्वपूर्ण हैं। तथ्यों से परे, यह पहली बार हुआ है कि ड्रोन ने जनजातीय क्षेत्रों की संकीर्ण दायरे में और किस अवसर पर, सीमांत क्षेत्र (खैबर पख्तूनख्वा और फाटा में स्थापित जिलों के बीच में सिथत क्षेत्र), के बाहर किसी लक्ष्य पर हमला किया है। इस घटना का प्रभाव अमेरिका और पाकिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान, तालिबान और पाकिस्तान के बीच के संबंधों पर और निस्संदेह तालिबान के भीतर आंतरिक गतिविधियों पर भी पड़ेगा, जो अफगान-पाक क्षेत्र में भविष्य की घटनाओं की रणनीति के लिए निर्णायक होंगे।
मंसूर कैसे मारा गया, मोटे तौर पर इस बारे में दो संभावनाएं हैं। पहला यह है कि पाकिस्तान को अमेरिका की ओर से, जो पाकिस्तान के दोहरे चरित्र को अब और अधिक झेलने के लिए तैयार नहीं है, भारी दवाब पड़ा है। अमेरिका को मंसूर के बारे में जानकारी मिली और उसने राजनयिक ब्योरा या पाकिस्तानी संवेदनशीलता और परिणामों की परवाह किए बिना उसे मार दिया। दूसरा यह है कि पाकिस्तानी फंदे में थे, और शायद इससे भी ज्यादा डरावना यह है कि उन्होंने ही इस फंदे की व्यवस्था तालिबान के प्रमुख से छुटकारा पाने के लिए की थी। तालिबान प्रमुख से एक बच्चे तक को असुविधा होने लगी थी और उससे भी बुरा था कि वह कुछ ज्यादा ही स्वतंत्र हो गया था। मामला चाहे जो भी हो, मंसूर की मौत निश्चित रूप से कुछ अच्छी शुरुआत होगी, यहां तक कि मनमुटावों जिसका यदि सटीक और प्रभावी ढंग से दोहन किया जाए तो अफगानिस्तान में युद्ध के रुख को अफगान राज्य के पक्ष में और कट्टरपंथियों के खिलाफ किया जा सकता है।
यह मानते हुए कि मंसूर की हत्या में पाकिस्तानियों का ही समर्थन प्राप्त है, इस बात से पाकिस्तान के भौगोलिक और वैचारिक योद्धाओं के रखवालों को गहरी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। इससे पूर्व ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए चलाए गए एबटाबाद ऑपरेशन में भी यही स्थिति उत्पन्न हुई थी। ताजे घटनाक्रम का असर पाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों पर दिखाई पड़ेगा जिसमें अनियंत्रित गिरावट आएगी। इसका मतलब यह होगा कि अफगानिस्तान के लिए पाकिस्तान की भव्य रणनीतिक योजना जिसके लिए उसने इतना कुछ दांव पर लगाया है और इतना बलिदान किया है, उजागर हो जाएगी, जिससे पाकिस्तान की स्थिति बदतर हो ही होगी।
दूसरी संभावना यह है कि मंसूर के मारे जाने में पाकिस्तान का बहुत बड़ा हाथ हो। पाकिस्तानी, जाहिर है, न केवल अंत तक यह कहते रहेंगे कि इस ड्रोन हमले से उनका कोई लेना देना नहीं था, बल्कि यहां तक कि उसकी निंदा भी करेंगे और उपयुक्त कदम उठाने के लिए कड़ा विरोध भी दर्ज कराएंगे। लेकिन इस तरह का कपट, भले ही यह पाकिस्तान के अंदर तालिबान प्रमुख की उपस्थिति की शर्मनाक सच्चाई (आंशिक रूप से मंसूर को वैधता देने के लिए और आंशिक रूप से दुनिया को यह बताने के लिए कि वह उनकी कठपुतली नहीं था, पाकिस्तानी इसका जोरदार खंडन करते आ रहे थे) को उजागर करता है, पाकिस्तानियों के इतिहास को नहीं बदल देता है। पिछले कुछ महीनों में, पाकिस्तान का अमेरिका के साथ संबंध एक बार फिर से ढ़लान की पर है। आर्थिक सहायता में कटौती और आठ एफ-16 लड़ाकू विमानों पर छूट की वापसी संबंधों में आ रही गिरावट का केवल एक प्रमाण था। इस बीच चतुर्भुज सहयोग समूह (क्यूसीजी) की स्थापना के समय लिए संकल्पों से मुकरने पर पाकिस्तान की इस वादाखिलाफी पर अफगान सरकार क्रुद्ध है।
शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने वाली अत्यधिक प्रशंसित क्यूसीजी (जिसमें चीन भी शामिल था) की असफलता का निहितार्थ यह है कि अफगानिस्तान को व्यवस्थित करने के लिए राजनयिक प्रयासों का अंत हो गया, जिसके परिणामस्वरूप हिंसा की गतिविधियों में बढ़ोतरी होगी और इसकी जद में पाकिस्तान भी हो सकता है। पाकिस्तान में बिगड़ती सुरक्षा की स्थिति के साथ, महत्वाकांक्षी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) जिस पर पाकिस्तान का पूरा भविष्य दांव पर लगा है, पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यह विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि अफगानिस्तान में बेहतरी के लिए चीन का भी झुकाव पाकिस्तान की ओर है। कुछ दिनों पहले ही क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिति के साथ ही सीपीईसी परियोजनाओं की सुरक्षा पर बात करने के लिए पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख ने चीन का दौरा किया। भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा चाबहार परियोजना के सिलसिले में विश्वास दिलाने के लिए पहले ईरान का दौरा और फिर अमेरिका का दौरा, पाकिस्तान को अपने अफगानिस्तान नीति पर दोबारा विचार करने के लिए मजबूर करता है।
मंसूर को बाहर लाने में अमेरिकियों की सहायता कर पाकिस्तानियों ने अमेरिकियों को एक बड़ा तोहफा दिया है। इससे उन्हें अफगानियों से संपर्क कर उन्हें यह समझाने में भी मदद मिलेगी कि वे आंख मूंद कर तालिबान का समर्थन करने नहीं जा रहे हैं। लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि, चूंकि मंसूर के खात्मे से तालिबान पर नियंत्रण में कोई अधिक असर पड़ने वाला नहीं था, अतः मंसूर पाकिस्तान के लिए उपभोजित (बहुत उपयोगी नहीं) था। पिछले कुछ महीनों में, पाकिस्तानियों ने केवल तालिबान के भीतर रैंकिंग के मसले पर मंूसर के साथ चुनौतियों को हल कर लिया था, बल्कि सिराजुद्दीन हक्कानी को तालिबान का बेकायदा प्रमुख बनाकर तालिबान की गतिविधियों पर एक ठोस नियंत्रण कर लिया था। मंसूर की मौत के बाद पाकिस्तानियों को अपने भरोसेमंद सिराजुद्दीन को प्रमुख का कार्यभार सौंपने का अवसर मिल जाएगा और शायद यह भी कोशिश करेंगे कि उसे तालिबान के अमीर-उल-मोमीनीन के रूप में स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन यह भी तय है कि कई तालिबानी कमांडर उसे (अमीर) के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। लेकिन हक्कानी के हाथों को मजबूत कर और अफगान सेना व अमेरिका के प्रयासों से इन तत्वों की हरकतों पर लगाम लगाया जा सकता है। और यदि एक बार वे ऐसा करने में सफल हो जाते हैं, पाकिस्तानियों के साथ ‘सुलह’ का नाटक और परदे के पीछे उनकी मांगों (भारत की उपेक्षा सहित) को मानने का छलर्पूण कृत्य फिर से शुरू हो सकता है।
यद्यपि पाकिस्तान ने एक सुनियोजित कदम उठाया हो, हो सके तो बड़ा जोखिम उठाने वाला खेल खेला हो, अफगानिस्तान को भी सुनियोजित और अशांकित योजनाओं में भी अशिष्ट उलटफेर करने की एक बुरी आदत है। अफगानिस्तान में नियंत्रण से बाहर जाने वाली बहुत सी चीजें है, जो कम से कम तालिबान की पकड़ में नहीं है, अनिवार्य रूप से पाकिस्तान में फैल सकती है। यदि तालिबान को एकबारगी सिराजुद्दीन को अपना अधिपति स्वीकारना भी पड़ जाए, तो क्या सिराजुद्दीन पाकिस्तान के साथ आगे सहयोग के लिए तैयार रहेगा और खासकर अमेरकियों और अफगान सरकार के साथ? एक बार उसका तालिबान का प्रमुख बन जाने पर, किस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न होंगी? सिराजुद्दीन हो या मंसूर का कोई अन्य उत्तराधिकारी (भले ही वह मुल्ला उमर का बेटा ही क्यों न हो) उसे वैसा जिहादी साख, जैसा कि मंसूर को अफगानिस्तान में हिंसा की लहर के दम पर कायम करना था, स्थापित नहीं करना पड़ेगा? और यदि ऐसा हुआ, तो निश्चित रूप से चीजें बेहतर होने से पहले और बदतर होंगी। इसका निहितार्थ यह है कि मंसूर की मौत से वास्तव में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बेशक अगर वहां तालिबान के अंदर पद के लिए एक और सत्ता संघर्ष हुआ तो यह अफगान सरकार के लिए कुछ तालिबानियों को लुभाने और कुछ तालिबानियों को मारने और इस प्रकार अंततः इस आंदोलन को कमजोर करने का एक सुअवसर होगा। लेकिन यदि यह सब कुछ हुआ भी तो, इससे आने वाले दिनों में हिंसा में और अधिक बढ़ोतरी होगी।
हालांकि यह मंसूर के लिए अच्छा छुटकारा साबित हुआ है, उसकी मौत से अफगानिस्तान में बेहतरी के लिए कम से कम तत्काल प्रभाव से जमीनी हालात नहीं बदलने जा रहा है। इससे तत्काल अफगानिस्तान में किसी भी राजनीतिक सुलह के लिए मार्ग प्रशस्त नहीं होगा और वास्तव कुछ हद तक लड़ाई की सीमा पहले से अधिक अराजक हो सकती है। इन सबके बावजूद अमेरिका ने अपनी ओर से एक अच्छा, ठोस झटका दिया है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। किसी अन्य मामले में, इस प्रकार के कुछ और झटके दिए जाने की जरूरत है, जो तालिबान और उनके समर्थकों को अफगानिस्तान में एक राजनीतिक समाधान की ओर बढ़ने के लिए मजबूर करे।
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[2] https://www.vifindia.org/author/sushant-sareen
[3] http://www.vifindia.org/article/2016/may/22/if-taliban-emir-is-dead-what-happens-to-his-momineen
[4] http://www.en.wikipedia.org
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=यदि तालिबान आमिर मर चुका है, तब उसके मोमीनीन का क्या होगा&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/ तालिबान-आमिर-मर-चुका-है,-तब-उसके-मोमीनीन-का-क्या-होगा.jpg&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2016/june/03/yadi-taliban-emir-mar-chuka-ha-tab-uska-momenen-ka-kya-hoga
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