अभी तक दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक भारत अपने आयुध भंडार को उन्नत बनाने के लिए 2022 तक लगभग 310 अरब डॉलर (20.8 लाख करोड़ रुपये) खर्च करने के लिए तैयार है। इसके लिए वैश्विक हथियार आपूर्तिकर्ता और देसी आपूर्तिकर्ता होड़ में हैं, जो गठजोड़ बनाने, साझा उपक्रम (जेवी) तैयार करने, सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) और सीधी बिक्री जैसे सभी व्यावहारिक विकल्प तलाश रहे हैं। ऐसी साझेदारियों में मदद करने के लिए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर द्वारा 28 मार्च को गोवा में डिफेंस एक्सपो 2016 के दौरान रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) आरंभ की गई। वहां 48 देशों तथा रक्षा से संबंधित 1,055 कंपनियों के 224 प्रतिनिधि भी मौजूद थे। उनके सामने पेश की गई डीपीपी 2016 में विश्वसनीय रक्षा औद्योगिक आधार (डीआईबी) अथवा सैन्य उद्योग को बढ़ावा देने की बात कही गई है, जो भारतीय सैन्य बलों के काम भी आएगी और निर्यात भी करेगी। पर्रिकर ने यकीन जताया कि 2 अप्रैल से लागू इस प्रक्रिया से खरीद में ईमानदारी सुनिश्चित होगी और खरीद प्रक्रिया सुगम तथा सरल होगी ताकि सैन्य उपकरणों की स्वदेशी डिजाइन तथा उत्पादन से सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को बढ़ावा मिले।
विकास कर रहा भारत जटिल सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए मजबूती से सैन्यीकरण में जुटा है और 29 फरवरी को संसद में पेश केंद्रीय बजट 2016-17 में रक्षा क्षेत्र के लिए 2.58 लाख करोड़ रुपये (38.4 अरब डॉलर) आवंटित किए हैं। रोटी के बजाय हथियारों पर जोर दिए जाने की आलोचना करने वाले इस पर सवाल उठा रहे हैं क्योंकि शिक्षा के लिए 72,394 करोड़ रुपये (1.08 अरब डॉलर), सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए 38,892 करोड़ रुपये (57.9 करोड़ डॉलर) और कृषि तथा कृषक कल्याण के लिए 35,984 करोड़ रुपये (53.55 करोड़ डॉलर) आवंटित किए गए हैं।
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) भारत को हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बताता है, जिसकी 2011 और 2015 के बीच वैश्विक हथियार आयात में 14 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। भारत इतना अधिक आयात इसीलिए करता है क्योंकि उसे अभी तक सोवियत युग के पुराने उपकरणों से काम चला रहे अपने सैन्य बलों की सामरिक एवं रणनीतिक सुरक्षा में खामियों की चिंता है। चिंता का एक और कारण यह भी है कि पाकिस्तान और चीन भारत की सीमाओं पर मिलकर अपनी सैन्य क्षमताओं में इजाफा कर रहे हैं।
पर्रिकर ने अपने अधिकारियों को 1.5 लाख करोड़ रुपये (22.3 अरब डॉलर) मूल्य के 86 अटके हुए खरीद प्रस्तावों को चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में ही यानी 30 जून 2016 तक मंजूरी देने का निर्देश दिया है।
पिछले मई में 3.7 अरब डॉलर के तीन रक्षा ठेकों को हरी झंडी दी गई थी, जो ‘मेक इन इंडिया’ की तर्ज पर थे। 2 अरब डॉलर का एक ठेका एयरबस तथा टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स द्वारा संयुक्त रूप से सी-295 परिवहन विमान के निर्माण का था, जो भारतीय वायुसेना के पुराने एव्रॉस की जगह लेंगे। शुरुआती तौर पर 56 विमानों का ठेका दिया गया है तथा आठ और विमान लेने का विकल्प है। ब्रिटेन की बीएई सिस्टम्स पीएलसी भारतीय सेना के लिए स्थानीय स्तर पर 145 एम777 हॉवित्जर के निर्माण के ठेके में महिंद्रा डिफेंस सिस्टम्स (एमडीएस) की साझेदार है। रूस की रोसतेक स्टेट कॉर्पोरेशन और हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) का साझा उपक्रम 1 अरब डॉलर के सौदे में 200 केए-226टी ट्विन इंजन लाइट मल्टीपरपज हेलीकॉप्टरों का लाइसेंसी निर्माण करेगा, जो ऊंचाई पर होने वाले अभियानों विशेषकर सियाचिन के लिए भारतीय सैन्य बनलों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पुराने चीता और चेतक - एयरोस्पेशल एसए 315बी लामा और एसए 319 अलॉउट 3 के भारतीय संस्करण - की जगह लेंगे।
अभी तक आयात ही भारतीय रक्षा क्षेत्र का मुख्य सहारा रहे हैं - रक्षा पूंजी का 70 प्रतिशत आयात पर खर्च होता है - क्योंकि रक्षा उपकरण बनाने वाले सार्वजनिक उपक्रम (पीएसयू) और रक्षा मंत्रालय के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) पर खुले दिल से खर्च करने के बाद भी ढंग का सैन्य उद्योग विकसित नहीं हो सका है।
अजीब बात है कि पूंजीगत अधिग्रहण के अंतर्गत बजटीय आवंटनों का अक्सर पूरी तरह इस्तेमाल ही नहीं होता है और संशोधित अनुमान के समय उन्हें वापस ले लिया जाता है। पिछले चार वर्ष में वापस किए गए 35,088 करोड़ रुपये (5.2 अरब डॉलर) में से 11,665 करोड़ रुपये (1.7 अरब डॉलर) तो 2015-16 में ही बच गए। साल 77,407 करोड़ रुपये (11.5 अरब डॉलर) आवंटित किए गए थे।
रक्षा आयात पर भारत की निर्भरता निकट भविष्य में भी जारी रहने की संभावना है, लेकिन प्रधानामंत्री नरेंद्र मोदी देश को हथियारों का बड़ा निर्यातक बनाना चाहते हैं और एक दशक में ही 3 अरब डॉलर के निर्यात का उनका लक्ष्य है। हकीकत यह है कि भारत की हथियारों की खरीद उसके निर्यात पर भारी पड़ जाती है। पर्रिकर ने संसद को बताया कि पिछले पांच वर्ष में तीनों सेवाओं के लिए “पूंजीगत अधिग्रहण के वास्ते विदेशी आपूर्तिकर्ताओं को कुल 1.03 लाख करोड़ रुपये (15.4 अरब डॉलर) का सीधा भुगतान” किया गया है। इसके उलट पांच रक्षा पीएसयू, चार रक्षा पोत कारखानों, 39 आयुध निर्माणियों तथा निजी क्षेत्र पिछले तीन साल में कुल मिलाकर केवल 1,644 करोड़ रुपये (24.5 करोड़ डॉलर) का ही निर्यात कर सके।
फरवरी में मेक इन इंडिया नीति को बल मिला, जब बटालियन अथवा रेजिमेंट स्तर पर निगरानी के सभी संसाधनों - स्थानीय स्तर के यूएवी और ग्राउंड सेंसर समेत - का एकीकरण करने के 40,000 करोड़ रुपये (5.95 अरब डॉलर) के बैटलफील्ड मैनेजमेंट सिस्टम (बीएमएस) ठेके के लिए दो भारतीय गठबंधन चुने गए। यह प्रतिष्ठित ठेका हासिल करने के लिए चौदह दावेदारों ने चार गठबंधन बनाए थे। जिन दो को चुना गया, उनमें एक टाटा पावर स्ट्रैटेजिक इंजीनियरिंग डिविजन (एसईडी) और एलएंडटी का गठबंधन था तथा दूसरा रोल्टा इंडिया और रक्षा पीएसयू भारत इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (बीईएल) का गठबंधन। दोनों ही पहाड़ों, जंगल, मैदान तथा रेगिस्तान में अभियान के लिए बीएमएस के नमूने बनाएंगे। बीएमएस भारत और दुश्मन की सेनाओं की स्थितियों तथा हथियारों के मुख्य प्लेटफॉर्मों की सटीक जानकारी देंगे और साथ में इलाके का विश्लेषण भी करेंगे तथा हालात की अच्छी जानकारी प्राप्त हो सके।
टाटा पावर एसईडी-एलएंडटी को एससीएल इन्फोसिस्टम्स-बीईएल के गठबंधन के साथ एक ओर बड़े ठेके के लिए चुना गया है। यह 10,000 करोड़ रुपये (1.5 अरब डॉलर) के टैक्टिकल कम्युनिकेशन सिस्टम (टीसीएस) को बनाने का ठेका है, जो पुराने आर्मी रेडियो इंजीनियरिंग नेटवर्क की जगह लेगा। सेना ने अपने संचार नेटवर्क की इस रीढ़ को फौरन बदलने की मांग 1996 में की थी। दोनों चुनी गई टीमें टीसीएस के दो नमूने तैयार करेंगी, जिनमें से सात को सेना की सात कमानों के लिए तैयार किया जाएगा। दो नमूनों का परीक्षण किया जाएगा और जिस गठबंधन को चुना जाएगा, वह पूरा टीसीएस तैयार करेगी।
गठबंधन बना चुकी दस भारतीय कंपनियां देश के अब तक के सबसे बड़े स्वदेशी ठेके के लिए होड़ में हैं, जिसमें 60,000 करोड़ रुपये (8.39 अरब डॉलर) के 2,610 फ्यूचर इन्फैंट्री कॉम्बैट व्हीकल (एफआईसीवी) की आपूर्ति की जानी है। टाटा मोटर्स ने भारत फॉर्ज लिमिटेड के साथ हाथ रणनीतिक समझौता किया है और अमेरिकी जनरल डायनामिक्स लैंड सिस्टम्स, एलएंडटी ने महिंद्रा के साथ हाथ मिलाया है। टाटा पावर एसईडी अकेले ही होड़ में है तथा दूसरे दावेदारों में रिलायंस डिफेंस, रोल्टा, पुंज लॉयड, टीटागढ़ वैगन्स और सार्वजनिक क्षेत्र की आयुध निर्माणी बोर्ड हैं।
इस ठेके का विचार 2009 में आया था, लेकिन अभिरुचि पत्र को अचानक 2012 में वापस ले लिया गया, जिसे जल्द ही वापस जारी किया गया। एफआईसीवी जमीन और पानी दोनों पर चलने वाला, बख्तरबंद, खोजी और हवा में सेना को ले जाने वाला वाहन होगा, जो 4 किलोमीटर के दायरे में टैंकभेदी मिसाइल दाग सकता है और यह भारतीय सेना में 1980 के दशक से इस्तेमाल किए जा रहे रूस में बने बीएमपी 2 दूसरी पीढ़ी के इन्फैंट्री लड़ाकू वाहनों की जगह लेंगे। चुने गए तीनों गठबंधन एफआईसीवी का एक नमूना तैयार करेंगी, जिसकी 80 प्रतिशत लागत रक्षा मंत्रालय भरेगा।
टाटा ग्रुप उन भारतीय कंपनियों में से है, जो सेना की इस उदारता का फायदा उठाने की कोशिश में हैं। 2014-15 में 108.8 अरब डॉलर (7.3 लाख करोड़ रुपये) की कमाई करने वाला भारत का निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा समूह इस क्षेत्र में जमकर निवेश कर रहा है और उसके रक्षा तथा वैमानिकी कारोबार से 2015-16 में 2,650 करोड़ रुपये की कमाई होने की उम्मीद है। उदाहरण के लिए बेंगलूरु में 500 करोड़ रुपये (7.44 करोड़ डॉलर) के कारखाने वाली टाटा पावर एसईडी इतनी ही लागत वाला एक और कारखाना कर्नाटक के वेमागल में लगा रही है। कारखाना अगले साल शुरू होगा और दूसरे चरण में 200 करोड़ रुपये (2.98 करोड़ डॉलर) और लगाए जाएंगे। इस क्षेत्र में समूह की 14 कंपनियों के पास 1.3 अरब डॉलर से अधिक के ठेके हैं। टाटा मोटर्स के रक्षा एवं सरकारी कारोबार के उपाध्यक्ष वरनॉन नोरोन्हा को उम्मीद है कि यदि एफआईसीवी का ठेका मिल जाएगा तो उनकी कंपनी के राजस्व में रक्षा का 15 प्रतिशत योगदान हो जाएगा, जो अभी केवल 3 प्रतिशत है।
रक्षा क्षेत्र में कदम रखने वाली सबसे नई भारतीय कंपनी 10 अरब डॉलर का विविध कारोबार वाला अदाणी समूह है, जिसकी नई सहयोगी कंपनी अदाणी एयरो डिफेंस सिस्टम्स एंड टेक्नोलॉजीज लिमिटेड ने मानवरहित विमान प्रणाली (यूएएस) बनाने के लिए 30 मार्च को इजरायल की एलबिट-इस्टार ओर बेंगलूरु की अल्फा डिजाइन टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड के साथ गठबंधन के समझौते पर हस्ताक्षर किए। अदाणी को लगता है कि यूएसएस प्रौद्योगिकी का अगला मोर्चा होगा, जो कई काम करने विशेषकर देखने और सुनने की क्षमता प्रदान करेगा, जिससे सेना एवं नेट सुरक्षा प्रदाताओं को सूचना संबंधी लाभ मिलेगा।
अनिल अंबानी के नियंत्रण वाली रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर ने पीपावाव डिफेंस एंड ऑफशोर इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड में 2,082 करोड़ रुपये में नियंत्रणकारी हिस्सेदारी खरीदने की योजना का ऐलान किया और पिछले साल 819 करोड़ रुपये में 18 प्रतिशत हिस्सेदारी लेकर रक्षा क्षेत्र में कदम रख दिया। दिसंबर में उसने 850 करोड़ रुपये में 17 प्रतिशत हिस्सेदारी और खरीद ली तथा 26 प्रतिशत अतिरिक्त हिस्सेदारी के लिए खुली पेशकश की।
57,164 करोड़ रुपये (9.22 अरब डॉलर) कारोबार वाली इंजीनियरिंग एवं निर्माण दिग्गज एलएंडटी को सेना और नौसेना दोनों से 18 से 20 अरब डॉलर के ठेकों के मौक्े दिख रहे हैं। 2002 से एलएंडटी भारत की इकलौती कंपनी है, जिसके पास तटरक्षक बल समेत चारों सेनाओं के लिए सभी रक्षा उपकरण बनाने के लाइसेंस हैं। कंपनी ने भारत की पहली परमाणु क्षमता युक्त स्वदेशी पनडुब्बी अरिहंत का ढांचा तथा अन्य महत्वपूर्ण पुर्जे तैयार किए और पूर्वी तट पर 1,225 एकड़ कुटापल्ली पोत कारखाने में वह 3,989 करोड़ रुपये का निवेश कर चुकी है, जहां पी 751 पनडुब्बियां बनाने - अगर उसे 8 से 10 अरब डॉलर के बीच का ठेका मिल गया - और नौसेना के दूसरे ठेके पूरे करने का उसका इरादा है।
भारत का सबसे बड़ा रक्षा सौदा जनवरी 2012 में हुआ था, जब भारतीय वायुसेना के लिए मघ्यम दूरी के कई भूमिकाओं वाले 126 राफेल युद्धक विमान बनाने का 22 अरब डॉलर का ठेका फ्रांस की दसॉ एविएशन ने जीता था। यह प्रक्रिया 2005 में शुरू हुई थी, जब वायुसेना ने 1980 के दशक से काम आ रहे, लेकिन अब पुराने पड़ चुके सोवियत निर्मित मिग-21 को हटाकर नए जेटफाइटर लाने की सूचना जारी की थी। भारतीय वायुसेना को 42 युद्धक बेड़े रखने का अधिकार है, लेकिन केवल 34 बेड़ों के साथ वह कमजोर लगती है। कीमत और गारंटी की शर्त के कारण बातचीत अटकी हुई थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रैल 2015 में फ्रांस की यात्रा के दौरान अनिश्चित कीमत पर 36 राफेल की सीधी खरीद की बात कर ली। यह अस्पष्ट है कि बाकी युद्धक विमानों के सौदे का क्या हुआ, जिसके तहत 18 राफेल सीधे खरीदे जाने थे और बाकी 108 एचएएल प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के जरिये बनाए जाने थे।
भारत के साथ फ्रांस का एक अन्य वर्तमान सैन्य कार्यक्रम 23,560 करोड़ रुपये (3.73 अरब डॉलर) की प्रौद्योगिकी हस्तांतरण परियोजना (पी 75) है, जिसके अंतर्गत फ्रांस की सरकारी कंपनी डीसीएनएस और भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी मझगांव डॉक लिमिटेड (एमडीएल) स्कॉर्पीन पनडुब्बी बना रही हैं। पहली पनडुब्बी कालवरी सितंबर में शुरु होगी और एक साल बाद पानी में उतार दी जाएगी। बाकी पांच एक-एक साल बाद सेना को मिलेंगी।
भारतीय नौसेना का आधुनिकीकरण का कुछ अधिक ही ठोस कार्यक्रम है, जिसमें भारतीय पोत कारखानों से 41 जहाजों का ठेका भी है। 1.09 लाख करोड़ रुपये (16 अरब डॉलर) के इन ठेकों में पी 75 भी शामिल हैं।
डीसीएनएस, एमडीएल और युद्धपोत बनाने की क्षमताएं तैयार करने और उनमें विस्तार करने के लिए भारी निवेश कर चुकीं एलएंडटी तथा आरडीईएल जैसी रक्षा केंद्रित कंपनियां छह डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बी बनाने की 50,000 करोड़ रुपये (7.44 अरब डॉलर) की पी 75 इंडिया (पी 75आई) की निविदा की भी बाट जोह रही हैं, जो जल्द ही खुलने वाली है।
पिछले साल सितंबर में भारत ने 22 अपाचे एएच-64ई युद्धक और 15 चिनूक सीएच-47एफ हेवी लिफ्ट हेलीकॉप्टर खरीदने के लिए बोइंग के साथ 2.5 अरब डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर किए थे। चिनूक के ढांचे का बड़ा हिस्सा पहले ही भारत में बन रहा है और अपाचे के पुर्जे भी यहीं बनाने की बात चल रही है। ऐसे में बोइंग के चेयरमैन जिम मैकनर्नी ने कहा की उनकी कंपनी इनमें से किसी भी हेलीकॉप्टर को भारत में असेंबल कर सकती है और उन्होंने बोइंग के वर्तमान युद्धक जेट भी देश में ही बनाने का प्रस्ताव रखा।
सिप्री के मुताबिक रूस भारत को लगातार हथियारों की आपूर्ति करता रहा है और 2001 से 2015 के बीच भारत के हथियार आयात में इसकी 70 प्रतिशत हिस्सेदारी रही। दूसरी ओर भारत रूस से हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार रहा है और पांच साल की उसी अवधि में रूस का 39 प्रतिशत सैन्य निर्यात भारत को ही हुआ। सिप्री की रिपोर्ट कहती है, “मौजूदा ठेकों और हथियारों के आधार पर रूस निकट भविष्य में भारत को हथियारों की आपूर्ति में दूसरों से बहुत आगे रहेगा। पिछले साल दिसंबर में भारत की रक्षा खरीद परिषद (डीएसी) ने लगभग 40,000 करोड़ रुपये (6 अरब डॉलर) की अनुमानित लागत से पांच रूसी एस-400 ट्रायंफ (नाटो बल इसे एसए-21 ग्राउलर कहते हैं) मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली की खरीद को मंजूरी दी है।” खबरें हैं कि भारत सतह से हवा में 400 किलोमीटर तक मार करने वाली ऐसी 12 मिसाइल खरीद सकता है, जो सामरिक एवं युद्धक विमानों तथा युद्धक एवं क्रूज मिसाइल जैसे 36 लक्ष्यों पर एक ही समय में 72 मिसाइलें दाग सकती हैं। चीन ने सबसे पहले एस-400 को खरीदा था, जो रूस के हथियारों के भंडार में मौजूद अत्याधुनिक युद्धक रोधी मिसाइल प्रणालियों में एक है।
डीआरडीओ और इजरायली एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज (आईएआई) भारतीय और इजरायली सशस्त्र बलों के लिए मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल (एमआर-सैम) विकसित करने की 10,076 करोड़ रुपये (1.5 अरब डॉलर) की परियोजना और लंबी दूरी वाली सैम (एलआर-सैम) बनाने की 2,606 करोड़ रुपये (38.8 करोड़ डॉलर) की परियोजना में साझेदारी कर रही हैं। दोनों सैम प्रणालियां इस साल से शामिल की जाएंगी।
यह विचार जोर पकड़ रहा है कि दो मोर्चों पर भारत के सामने जो खतरा है, उसे देखते हुए भारत को पर्याप्त सैन्यीकरण की जरूरत है। रक्षा आधुनिकीकरण तथा स्वदेशीकरण के अलावा उसे रडार से बचने वाली स्टील्थ प्रणालियों, मानव रहित प्रणालियों, उपग्रह से निगरानी तथा साइबर-युद्ध पर ध्यान देना होगा। उदाहरण के लिए जब सैन्यीकरण की बात आती है तो चीन हमसे पीढ़ियों आगे है और अंतर बढ़ता जा रहा है। दशकों तक सोवियत आयात तथा रिवर्स इंजीनियरिंग पर निर्भर रहने के बाद चीन ने स्वदेशीकरण को सफलता के साथ बढ़ाया है। ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है’ के फलसफे के तहत चीन पाकिस्तान की भी रक्षा उपकरणों की आधी से अधिक जरूरत पूरी करता है।
(लेख में 1 डॉलर की कीमत 67.2 रुपये मानी गई है)
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