पिछले करीब तीसेक साल में अमेरिकी चुनावों में ईसा मसीह की अहमियत काफी बढ़ गई है। ऐसा तब है, जब ईसाई धर्म - चर्च जाने वाले परिवारों अथवा पारिवारिक मूल्यों के अर्थ में - में लगातार गिरावट देखी गई है। विवाह के बगैर ही संतानोत्पत्ति में 50 प्रतिशत से अधिक वृद्धि देखी गई है, जिससे पता चलता है कि अमेरिकी नागरिकों पर पारंपरिक चर्च का प्रभाव कितना कम हो रहा है। किंतु चुनाव अभियान संभालने वाले, विशेषकर रिपब्लिकन पार्टी के पक्ष के लोग स्वयं को “सच्ची आस्था वाले” और “दोबारा ईसाई बनकर जन्म लेने वाले” या “बॉर्न अगेन” बताना चाहते हैं। डेमोक्रेट भी स्वयं को अनीश्वरवादी नहीं बता सकते और ओबामा चर्च गए तथा उन्होंने दिखाया कि वह “ईश्वरवादी” हैं।
पिछले साल जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे अश्वेतों के थे और उनमें से कई प्रवासियों की पहली और दूसरी पीढ़ी के अश्वेतों की संतान हैं। सूचना प्रौद्योगिकी और विश्वविद्यालयों पर ही नजर रखने वाले भारतीयों के लिए अमेरिका का अर्थ पश्चिम में कैलिफोर्निया और उत्तर-पूर्व में बॉस्टन भर है।
किंतु अमेरिका में बड़े इलाके ऐसे भी हैं, जहां श्वेत समुदाय के बुजुर्ग रहते हैं और उसे बाइबल पट्टी तथा “होमलैंड” कहते हैं। हम में से कई ने दक्षिण या उत्तर डकोटा या कंसास और दक्षिण कैरोलिना या लुइसियाना के बारे में सुना भी नहीं होगा। रेड-नेक कहलाने वाले गरीब अश्वेत इन इलाकों में उसी तरह भरे पड़े हैं, जैसे बेंगलूरु के पार्कों में गाजर घास। उनमें से अधिकतर निरक्षर हैं और उनके पास पासपोर्ट भी नहीं है तथा उन्हें इराक और इंडिया (भारत) के बीच और मुसलमान और हिंदुओं के बीच फर्क भी नहीं पता होगा, सिखों की बात तो छोड़ ही दीजिए।
इस तबके में कई गुट हैं, जैसे गन लॉबी/टी पार्टी लॉबी/ईवैंजेलिकल/प्रो-लाइफ आदि। उनमें से कुछ एक दूसरे के विरोधी हैं और अधिकतर गुट आक्रोश में रहते हैं। उन्हें लगता है कि ईसाइयत के सिद्धांतों पर जन्म लेने वाला “उनका” अमेरिका - हालांकि इस बात पर कई लोग सवाल उठाते हैं - गुम हो गया है और उसकी वजह हैं उदारवादियों और समलैंगिकों एवं गर्भपात समर्थकों तथा “उच्छृंखल अश्वेतों” के समूह। ट्रंप की बदौलत अब इस्लाम को भी नया खतरा माना जाने लगा है।
बुढ़ाता हुआ श्वेत अमेरिका अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव जिता नहीं सकता किंतु स्थानीय स्तर पर खासा नुकसान पहुंचा सकता है। ईसा काफी कुछ वैसे ही हैं, जैसे भारत में “धर्मनिरपेक्ष” होना - हर कोई कहता है कि वह धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन कोई उनका यकीन नहीं करता। उसी तह अमेरिका में हरेक प्रत्याशी दावा करता है कि वह “चर्च जाता है अथवा बाइबल के मूल्यों में विश्वास करता है।” कोई उनका भरोसा नहीं करता।
रिपब्लिकन पार्टी की ओर से दौड़ से बाहर हो चुके टेड क्रूज अपनी वित्तीय जरूरतों के कारण बाइबल के कट्टर अनुयायियों की ओर हैं। यह याद रखना होगा कि अमेरिकी चुनावों के लिए लाखों डॉलर की जरूरत होती है और कारोबारी समूहों के अलावा चर्च समूह धन के प्रमुख स्रोत बन गए हैं।
इसलिए इन “बॉर्न अगेन” समूहों के आगे सिर झुकाना जरूरी होता है। हो सकता है कि ये समूह किसी एक प्रत्याशी का समर्थन नहीं करें क्योंकि हरेक समूह का अपना एजेंडा होता है और अनुमान होते हैं। वे सभी एक मामले में एक समान हैं और वह यह धारणा है कि अमेरिका वैसा नहीं रहा, जैसा पहले था। इन “यीशु समूहों” में से अधिकतर बुजुर्गों के हैं। युवा उतने उत्साही नहीं हैं। महिलाओं में तो पुरुषों के मुकाबले और भी कम उत्साह है। लैटिनो समुदाय जैसे लोग ईश्वर से डरने वाले और चर्च जाने वाले हो सकते हैं किंतु “बॉर्न अगेन” के विचारों से सहमत नहीं भी हो सकते हैं।
नए जमाने के ईवैंजेलिकल समूह जैसे पेंटेकोस्टल या असेंबली ऑफ गॉड पारंपरिक एपिस्कोपैलियन अथवा प्रेसबाइटीरियन समूहों की अपेक्षा अधिक कट्टर ईसाइयत समर्थक हैं। बाद वाले दो समूहों ने पिछली दो सदियों में सबसे अधिक राष्ट्रपति दिए हैं। यह जानना दिलचस्प है कि गणतंत्र के संस्थापकों में से एक थॉमस जेफरसन और सुविख्यात अब्राहम लिंकन चर्च जाने के लिए अधिक उत्साहित नहीं रहा करते थे। तालिका - 1 देखें।
नए जमाने के ये समूह मानते हैं कि अमेरिका की बुनियाद बाइबल के सिद्धांतों पर रखी गई थी और अब वह उन आदर्शों से डिग रहा है। किंतु अन्य समूह संविधान की अधिक “धर्मनिरपेक्ष” विवेचना करते हैं, जहां चर्च और राज्य अलग-अलग हैं। किंतु इस समूह को भी अपनी आस्था किसी न किसी चर्च के साथ जुड़ी हुई दिखानी होती है। बहुत कम समूह अनीश्वरवादी हैं और सार्वजनिक तौर पर इसका प्रदर्शन करते हैं।
यूरोप और भी अधिक अनीश्वरवादी हो गया है और चर्च जाने के चलन में कमी आ रही है। अमेरिका में जिसे बाइबल पट्टी कहा जाता है, वहां चर्च जाने का चलन अब भी बाकी है। दिलचस्प बात है कि वहां अश्वेत चर्च हैं, जहां अश्वेत जाते हैं और पादरी भी अश्वेत ही होते हैं। यदि ईसा का जन्मस्थान देखा जाए तो वह भी श्वेत नहीं रहे होंगे किंतु अश्वेत चर्चों में भी उन्हें सलीब पर श्वेत पुरुष के रूप में दिखाया जाता है।
कम से कम निकट भविष्य में किसी “अनीश्वरवादी” के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने की कल्पना कोई भी नहीं कर सकता। आप रूढ़िवादी हो सकते हैं या उदार हो सकते हैं या प्रगतिशील भी हो सकते हैं, लेकिन अनीश्वरवादी या नास्तिक नहीं हो सकते।
सबसे विकसित एवं उच्च प्रौद्योगिकी वाले देश में यह बेहद दिलचस्प स्थिति है। समलैंगिकता/गर्भपात/विवाह पूर्व यौन संबंध आदि पर बहस भी बाइबल की व्याख्या पर केंद्रित हैं और इस बात पर केंद्रित हैं कि यीशु के अनुसार इन समस्याओं का क्या समाधान होता।
कारण सीधा है। बे क्षेत्र या बॉस्टन में बसने वाला कॉर्पोरेट अमेरिका “अनीश्वरवादी” हो सकता है या अधार्मिक भी हो सकता है, लेकिन वह अमेरिकी समाज की रचना नहीं करता। अमेरिकी समाज का प्रतिनिधित्व अब भी इलिनोइस के “पेओरिया” शहर में रहने वाली बुजुर्ग श्वेत महिला करती है, जो उसी पुरानी दुनिया की नुमाइंदगी करती है, जिसे आप अपनी सुविधा के अनुसार “समृद्ध” या “मूर्ख” मान सकते हैं।
इससे इन समूहों की कुंठा और व्हाइट हाउस पर नियंत्रण की उनकी अक्षमता ही बढ़ेगी तथा इससे इन समूहों के सदस्य हिंसा तथा उत्पात में लिप्त हो सकते हैं।
अमेरिका का भविष्य कहीं और से आए निवासियों से जुड़ा है - आयरलैंड या इटली से आए लोगों से नहीं बल्कि लैटिन अमेरिका या चीन या भारत से आए लोगों और वियतनामियों से भी।
बाइबल पट्टी इससे वाकिफ है और वह इससे नाराज है। लेकिन जनसांख्यिकी ही भाग्य है और उसे वह बदल नहीं सकती।
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[2] https://www.vifindia.org/auhtor/prof-r-vaidyanathan
[3] http://www.vifindia.org/article/2016/may/12/jesus-as-a-third-candidate-in-the-us-elections
[4] http://www.bbc.co.uk
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