नेपाली प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की हालिया 20 से 27 मार्च के बीच हुई चीन यात्रा के दौरान नेपाल ने व्यापार और पारगमन क्षेत्र, ऊर्जा सहयोग और संपर्क क्षेत्र सहित दस समझौतों पर हस्ताक्षर किये। पारगमन क्षेत्र में नेपाल ने कोलकाता बंदरगाह के विकल्प के तौर पर अब चीन के ग्वांग्झू बंदरगाह को इस्तेमाल करने का अधिकार प्राप्त कर लिया है। चीन अब नेपाल को तेल की आपूर्ति करने के लिए तैयार हो गया है। साथ ही चीनी रेलवे का विस्तार भी तिब्बत नेपाल बॉर्डर के रास्ते काठमांडू, पोखरा और उसके आगे लुंबिनी तक किया जाएगा। लुंबिनी भारत नेपाल सीमा से सिर्फ 25 किलोमीटर दूर स्थित है।
चीन ने 2014 में ही अपने रेल नेटवर्क का विस्तार तिब्बत के दूसरे सबसे बड़े शहर शिगात्से, जो ल्हासा के बिल्कुल नजदीक है, तक कर लिया था। योजना के मुताबिक, शिगात्से से गिरोंग तक की 450 लंबी रेलवे लाइन, जो रासुवगाडी से 26 किमी दूर है, के 2020 तक पूरा हो जाने संभावना है।
नेपाल का सत्ताधारी पक्ष इस पारगमन, व्यापार, ऊर्जा और परिवहन पर हुए इस चीन-नेपाल समझौते को एक बहुत बड़ी कामयाबी के तौर पर ले रहा है। उनका सोचना है कि यह समझौता नेपाल को व्यापार मार्ग के रूप में प्रशस्त कर भारत और चीन लिए नए अवसर सृजित कर सकता है।
यह एक विडंबना ही है कि देश के सत्ताधारी पक्ष ने प्रधानमंत्री ओली पर चीन की यात्रा के पहले ही यह दबाव बनाया था कि वे चीन के साथ ये सारे समझौते करें। लेकिन इसी समूह ने फरवरी में ओली की भारत यात्रा के पूर्व यह दबाव बनाया था कि वह भारत के साथ कोई समझौता न करें। हालिया चीन-नेपाल समझौते को चीन के इंस्टिट्यूट ऑफ साउथ ईस्ट एशियन एंड ओसियानिया स्टडीज के डायरेक्टर हू शिशेंग चीन और दक्षिण एशिया को जोड़ने की दिशा में ऐतिहासिक कदम के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार यह कदम दक्षिण एशियाई क्षेत्र में बदलती भौगोलिक-राजनीतिक स्थितियों को ध्यान में रखकर उठाया गया है।
इन समझौतों के बाद एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में चीन के सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के वाइस चेयरमैन जनरल शू किलियांग ने प्रधानमंत्री ओली और चीनी नेतृत्व के बीच बनी सहमति के मद्देनजर नेपाली आर्मी चीफ के समक्ष रक्षा रणनीति में बड़े सहयोग का प्रस्ताव रखा। साथ ही पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के जनरल फांग ने नेपाली आर्मी चीफ से कहा कि वह अपने देश में तिब्बत को आजाद कराने वाली गतिविधियों न होने दें। चीन-नेपाल संबंधों को भविष्य में और मजबूत करने के लिए बहुत संभव है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस साल 15 और 16 अक्टूबर को गोवा में होने वाले ब्रिक्स सम्मेलन में शामिल होने के पूर्व नेपाल की यात्रा करें।
नेपाली प्रधामंत्री की चीन यात्रा को लेकर भारत में मिलीजुली प्रतिक्रिया रही। भारत में ऐसे भी लोग हैं जो यह सोचते हैं कि एक संप्रभु राष्ट्र के तौर पर नेपाल के पास यह अधिकार है कि वह किसी भी देश के साथ अपने संबंधों को मजबूत करे। उनका यह मत है कि जब भारत भी चीन के साथ अपने संबंधों को मजबूत कर रहा है तो कोई कारण नहीं है कि नेपाल ऐसा न करे। हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भारत ने नेपाल के रूप में अपना रणनीतिक साझीदार चीन के हाथों खो दिया है। भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण का यह मानना है कि चीन और नेपाल के बीच हुए समझौतों को गंभीरता के साथ लिया जाना चाहिए। वह इस बात को मानते हैं कि चीन ने नेपाल में अपनी पैठ मजबूत की है जो भारत के लिए आर्थिक और सुरक्षा की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
यह ध्यान रखने वाली बात है कि चीन और नेपाल के बीच समझौता उस समय हुआ है जब वियतनाम, जापान और फिलिपिंस जैसे पड़ोसी मुल्क दक्षिण चीन सागर में चीन के साथ संघर्ष कर रहे हैं। साथ ही इस समझौते पर हस्ताक्षर करने का समय भी महत्वपूर्ण था। यह समझौता उस समय हुआ जब राजनीतिक उथल पुथल की वजह से नेपाल सरकार का भविष्य अनिश्चत था।
किसी भी वक्त मधेसी इलाकों की राजनीतिक पार्टियां अपनी जरूरी मांगों को लेकर सरकार की असफलताओं के विरुद्ध नया आंदोलन शुरू कर सकती थीं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते थे जब मधेसी मोर्चा के नेताओं द्वारा 135 दिनों तक बीरगंज-रक्सौल और दूसरी सीमा पर की गई नाकेबंदी ने सरकार को तगड़ा झटका दिया था। इसी वजह से फरवरी महीने के पहले सप्ताह तक भारत से नेपाल जाने वाली मूलभूत वस्तुओं जैसे तेल, एलपीजी गैस और दवाओं की भारी कमी हो गई थी। मधेसी पार्टियों द्वारा नाकाबंदी वापस लिए जाने के बाद भी स्थिति सामान्य नहीं हुई है। साथ ही, देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी नेपाली कांग्रेस भी व्यग्रता से इस अवसर की तलाश में है कि वह इस सरकार को गिराकर अपनी सरकार बना सके।
खास बात यह है कि भारत में कुछ लोग इस समझौते को मधेसी आंदोलन से भी जोड़ कर देख रहे हैं। उनका सोचना है कि अगर मधेस आंदोलन की वजह से जरूरी वस्तुओं का अभाव नहीं होता तो नेपाल का रुख चीन की ओर नहीं होता। वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि देश के सत्ताधारी पक्ष का झुकाव 1960 के दशक से ही चीन की तरफ रहा है। मधेसी आंदोलन ने एक बार फिर उन्हें यह मौका दिया है।मधेसी पार्टियां, जिन्होंने हाल में नए संविधान का समर्थन करने के लिए चीन की आलोचना की थी, अब भी इस चीन-नेपाल समझौते के समर्थन में नहीं है। ओली की चीन यात्रा के ठीक पहले मधेसी नेताओं ने एक संघीय गठबंधन के तले नेपाल में चीनी राजदूत को ज्ञापन सौंपकर यह मांग की थी कि नए संविधान में उनकी शिकायतों पर ध्यान देने के लिए चीन कूटनीतिक दबाव बनाए। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि बड़ी संख्या में नेपाली जनता का नए संविधान को समर्थन नहीं है और सरकार उनके आंदोलन को बलपूर्वक दबाने पर तुली हुई है।
दुर्भाग्य से सरकार की तरफ से गंभीरता न दिखाए जाने की वजह से मधेसी आंदोलन की समस्याएं अभी भी समाप्त नहीं हो पाई हैं। इस मामले को सुलझाने के लिए ब्रसेल्स में हुए 13वें यूरोपियन यूनियन-इंडिया सम्मेलन के बाद 30 मार्च को एक संयुक्त विज्ञप्ति जारी की गई थी (इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिस्सा लिया था)। इस विज्ञप्ति में नेपाल से नए संविधान में विवादित मुद्दों का समाधान करने की बात कही गई थी और इसे एक समयसीमा के भीतर समावेशी बनाने अपील भी की गई थी। साथ ही देश में आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने की बात भी कही गई थी। इससे पहले नवंबर 2015 में भी भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके ब्रिटिश समकक्ष डेविड कैमरन की मुलाकात के बाद भी संयुक्त वक्तव्य में ठीक ऐसी ही बातें कही थीं। लेकिन इन बयानों को मित्रतापूर्ण सलाह मानने की बजाय नेपाल ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए संविधान के मसले को देश का आंतरिक मामला बताया था।
भौगोलिक-आर्थिक कठिनाइयों की वजह से चीन से वस्तुओं का आयात नेपाल को भारत की तुलना में बहुत महंगा पड़ेगा। यह प्रमुख कारण है जिसकी वजह से नेपाल चीन से ज्यादातर वस्तुएं तिब्बत-नेपाल बॉर्डर से नहीं बल्कि कोलकाता बंदरगाह के रास्ते आयात करता है। ऐसी परिस्थितियों में यह शायद ही संभव हो पाए कि चीन नेपाल से व्यापार के मामले में भारत को पीछे छोड़ दे।
वास्तव में चीन नेपाल में कभी भी भारत के मुकाबले नहीं आ पाएगा। क्या वह नेपाल को व्यापार के लिए 27 बॉर्डर प्वाइंट उपलब्ध करा पाएगा जैसा कि भारत ने किया हुआ है। व्यापार के लिए नेपाल को चीन सिर्फ एक या दो बॉर्डर प्वाइंट ही उपलब्ध करा पाता है। क्या चीन नेपाल के 65 लाख लोगों को भारत की तरह रोजगार उपलब्ध करवा पाएगा। क्या वह अपने सीमाओं को नेपाली लोगों के लिए उसी तरह खोल सकता है जैसे भारत ने खोला हुआ है। नेपाल के पहाड़ी इलाकों के तकरीबन एक करोड़ लोगों का भारत घर है। ये लोग भारतीय समाज में अच्छी तरह घुलमिल गए हैं। क्या चीन ऐसा कर पाएगा।
वास्तव में, व्यापार, पारगमन, ऊर्जा और संपर्क क्षेत्र पर चीन-नेपाल समझौता एक ऐसी सरकार ने किया है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। यह कमजोर, अस्थिर है और बड़ी संख्या में नेपाली जनता के साथ इसके संबंध मैत्रीपूर्ण नहीं है। इन लोगों में मधेसी भी शामिल हैं जो नए संविधान में अपने अधिकार के लिए आंदोलन कर रहे हैं। यह परिस्थितियां इस सरकार की वैधता को चुनौती देती हैं और साथ ही इस समझौते को भी।
हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन और नेपाल के बीच यह समझौता व्यावसायिक से ज्यादा रणनीतिक है। इस समझौते की कोशिश यह है कि नेपाल को चीन के नजदीक लाकर भारत पर उसकी निर्भरता को कम किया जाए। इस समझौते के जरिये चीन का प्रभाव नेपाल में बढ़ेगा। इसके बड़े दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। न सिर्फ नेपाल के सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक तंत्र पर बल्कि भारत पर भी। ऐसी स्थिति में भारत को नेपाल में अपने हितों की रक्षा करनी होगी। अब तो यह सिर्फ समय ही बताएगा कि नेपाल किस तरह से उसके दो बड़े पड़ोसी देशों के हितों के बीच समन्वय बना पाएगा। किसी भी तरह का असंतुलन उसके लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। अगर दो हाथी लड़ाई या प्रेम करते हैं तो नुकसान वहां मौजूद घास का ही होता है।
लेखक नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं।
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