नेपाल की सेना संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षक मिशन के लिए एक सबल-सक्षम भागीदार के रूप में उभरी है। देश के शांतिरक्षक दल और उसके साथ नेताओं ने बहुराष्ट्रीय मिशनों में अन्य देशों के समकालीनों के बीच अपनी पेशेवर दक्षता-क्षमता का प्रदर्शन किया है।
लंबे समय तक राजशाही के अधीन रहने वाले देश से गणतांत्रिक व्यवस्था में नेपाल के परिवर्तन ने उसकी सेना को विशेष रूप से डरा दिया था, क्योंकि गणतंत्र अपनाने के निश्चय के बाद देश में हुए पहले चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के पूर्व क्रांतिकारी चुने गए थे। इसलिए उनके और सेना के बीच राजशाही से संघर्ष के दिनों से ही कुछ कड़वाहट और शत्रुता की भावना बनी हुई थी।
बहरहाल, यह पिछले कुछ वर्षों की यादें हैं। अब तो सेना नेपाल की असामान्य राजनीति से ऊपर उठकर सरकार में काबिज होने वाले दलों के साथ और बदले जाने वाले प्रधानमंत्रियों से सामंजस्य बिठाने में सिद्ध हो गई है।
इस साल जून में संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा रणनीतिक साझेदारी कार्यक्रम (एसपीपी) में नेपाल सेना को शामिल करने के निर्वाचित सरकार के फैसले पर हुए विवाद से देश की स्वतंत्र विदेश और रक्षा नीति को लेकर चिंताएं हो गई हैं।
हालांकि इस मुद्दे पर की गई गहन जांच में यह चिंता सच्चाई से बहुत दूर मालूम हुई है। फिर भी, ऐसे फैसले भारत के क्षेत्रीय और द्विपक्षीय परिप्रेक्ष्य में काफी अहम रखते हैं, लिहाजा इस मुद्दे की विस्तृत जांच की आवश्यकता है।
यह मूलतःस्टेट पार्टनरशिप प्रोग्राम (एसपीपी) है, जिसकी शुरुआत संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा विभाग (डीओडी), और उसके अलग-अलग राज्यों, इलाकों और डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया द्वारा की गई थी। यह कार्यक्रम अब यू.एस. नेशनल गार्ड द्वारा संचालित किया जाता है, जो इसकी वेबसाइट के अनुसार संगठन, "रक्षा-सुरक्षा लक्ष्यों के हित में सैन्य-से-सैन्य संबंध स्थापित करता है, लेकिन यह व्यापक रूप से दोनों देशों की सेना, सरकार, आर्थिक समेत समूचे सामाजिक क्षेत्रों के संबंधों और उसकी क्षमताओं का भी लाभ उठाता है।”
नेपाल सेना ने एसपीपी का हिस्सा बनने के लिए 2015 में एक आवेदन किया था। इसके बाद उसने 2017 में अपनी इस इच्छा को फिर से दोहराया था और राष्ट्रीय सरकार की उचित मंजूरी मिलने के बाद यूटा नेशनल गार्ड्स के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने थे। भले ही इस प्रारंभिक आवेदन पर नेपाल सेना के तत्कालीन सेना प्रमुख ने हस्ताक्षर किए थे, लेकिन इसके बात के पर्याप्त सबूत हैं कि इसके लिए रक्षा मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के जरिए पूरी सरकार की सहमति थी। दरअसल, सेना प्रमुख राजेंद्र छेत्री ने 27 अक्टूबर 2015 को अमेरिकी राजदूत एलियाना बी टेप्लिज को पत्र लिखकर कहा था, “जैसा कि नेपाल सरकार की तरफ से अधिकृत किया गया है, (अमेरिका से) नेपाल के लिए निकट भविष्य में नेशनल गार्ड स्टेट पार्टनरशिप प्रोग्राम स्थापित किए जाने के बारे में औपचारिक अनुरोध करना मेरे लिए सम्मान की बात है।”
समग्र भू-राजनीतिक और आंतरिक राजनीतिक विकास के साथ-साथ नागरिक-सैन्य निर्णय लिए जाने की बात को देखते हुए, इस पर एक विवाद पैदा होना तय था, जैसा कि प्रस्तुत लेख में आगे किए गए विश्लेषण में देखा जा सकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका समेत प्रमुख वैश्विक शक्तियों और चीन-रूस के बीच प्रतिस्पर्धा की शुरुआत को देखते हुए "ब्लॉक" राजनीति के एक मजबूत रुझान के पुनरुत्थान से बहुपक्षवाद पर स्पष्ट खतरा उत्पन्न हो गया है। यह नेपाल की गुटनिरपेक्षता की पारंपरिक नीति को गंभीरता से कमजोर कर रहा है, खासकर तिब्बत के दक्षिण में उसकी भौगोलिक अवस्थिति की वजह से ऐसा हो रहा है। पर इन सबसे चीन बेचैन हो रहा है। नेपाल में संयुक्त राज्य अमेरिका की बढ़ रही अधिक से अधिक साझेदारी और हिंद-प्रशांत रणनीति में उसके एक महत्त्वपूर्ण भागीदार होने से पेइचिंग की चिंताएं लगातार बढ़ रही हैं।
विकास के क्षेत्र में, चीन-अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धा मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (नेपाल कॉम्पैक्ट) के अनुसमर्थन के दौरान स्पष्ट थी, जो पांच साल के विलंब के बाद 28 फरवरी 2022 को हुआ था। अमेरिका के उप विदेश मंत्री जेया उजरा का नेपाल में तिब्बती शरणार्थी शिविरों का दौरा; और फिर, संयुक्त राज्य अमेरिका सेना प्रशांत के कमांडिंग जनरल जन.चार्ल्स ए फ्लिन के दौरे से यह धारणा बनी है कि नेपाल की अमेरिका और इंडोपैक्म (यूएस इंडो-पैसिफिक कमांड) के साथ बढ़ती नजदीकियां परस्पर सैन्य-सहयोग बनाने पर जोर दे रही हैं। इन्हीं घटनाक्रमों के बीच एसपीपी भी सुर्खियों में आ गया है। हालांकि, नेपाल के राजनीतिक दल और उनका नेतृत्व सरकार की इस कोशिश को अमेरिका से एक करीबी सैन्य साझेदारी बनाने के जरिए देश के "गुटनिरपेक्षता" सिद्धांत के संतुलन को परेशान करने के रूप में देखते हैं। चीन भी नेपाल के नेताओं को ऐसा करने से रोकने की भरसक कोशिश कर रहा है।
भारत हालांकि इस स्थिति पर नजर रखे हुए है, लेकिन इस मुद्दे पर उसकी तरफ से अभी तक कोई आधिकारिक टिप्पणी नहीं की गई है। हालांकि यह कहना पर्याप्त है कि खुद नेपाल का नेतृत्व इस बात से अवगत है कि भारत अपने पड़ोस में क्षेत्रीय और वैश्विक सेनाओं की गतिविधियों में इस इजाफे को किस तरह देख रहा होगा।
इस मसले को लेकर नेपाल की संसद में हंगामा हुआ और सेना को जलालत झेलनी पड़ी, यहां तक कि उसके प्रमुख को संसदीय समिति के समक्ष पेश होकर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ रही है। लेकिन सेना 15 जून तक इस बारे में मुतमईन थी, जब उसने स्पष्ट किया कि वह एसपीपी का समर्थन नहीं करेगी। लेकिन इन सब के बीच नेपाल ने जो बात खुलकर नहीं कही, वह यह कि अमेरिका के साथ उसके प्रस्तावित सैन्य संबंध से भारत से संबंधों में बाधा आएगी और चीन भड़क जाएगा।
इस प्रसंग में नेपाल की विशिष्ट राजनीति का एक पहलू भी है, जिसमें कम्युनिस्ट समाजवादी स्पेक्ट्रम सबसे प्रमुख है। जबकि सीपीएन माओवादी सेंटर के अलावा, सीपीएन यूएमएल जैसे अन्य दल जो 2015 में सत्ता में थे, जब नेपाल सेना ने एसपीपी में शामिल होने के लिए अमेरिका से अनुरोध किया था। हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ सघन सैन्य संबंध बनाने में नेपाल में आम हिचकिचाहट है। चीन ने बहुत चतुराई से इसका फायदा उठाया है और पेइचिंग में कम्युनिस्ट पार्टी के वार्ताकारों ने काठमांडू में अपने समकक्षों के साथ नियमित बातचीत में बहुत मजबूत संबंध बनाए हैं।
नेपाली सियासत के मिजाज को देखते हुए, राजनीतिक पार्टियां अमेरिका विरोधी होने के लिए इच्छुक नहीं हैं, इसी का नतीजा है कि नेपाल सेना की तरफ से कथित एसपीपी के प्रस्ताव की शुरुआत कराई गई थी। उसी समय, नेपाल की विभिन्न सरकारों के काल में अमेरिका से जुड़े कई कार्यक्रम हुए थे, जैसे मिलेनियम चैलेंज कोऑपरेशन (एमसीसी) विकास परियोजना की पुष्टि की गई थी, अमेरिकी उप विदेश मंत्री जेया उजरा और संयुक्त राज्य अमेरिका के कमांडिंग जनरल जनरल चार्ल्स ए फ्लिन ने दौरा किया था। इन सबने राजनीतिक दलों की चिंताओं को बढ़ा दिया है, जिनका इजहार उन्होंने जून में नेपाल की प्रतिनिधि सभा में सार्वजनिक रूप से किया है, और अन्य मंचों पर भी अपने विचार रखे हैं। प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और फिर सेना प्रमुख (सीओएएस) प्रभु राम शर्मा की अमेरिका की यात्राओं ने सांसदों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। यही वजह है कि इन सांसदों ने प्रतिनिधि सभा में और अन्य मंचों पर काफी हंगामा किया। नेपाल में चीन की सीमा से सटे काफी ऊंचाई वाले इलाके में अमेरिका की सेना के साथ संयुक्त अभ्यास जैसी फर्जी खबरें अफवाहों की फैक्टरी के चालू होने का संकेत है।
नेपाल में, हालांकि नागरिक-सैन्य संबंध सौहार्दपूर्ण रहे हैं, लेकिन खास कर विदेश नीति और रक्षा सहयोग की परस्परता के संदर्भ में, उसके नीतिगत निर्णय लेने की प्रक्रिया को विकसित करना अभी बाकी है। इसकी रेखाएं कुछ धुंधली प्रतीत होती हैं, हालांकि नेपाल सेना इस बात पर जोर दे रही है कि उसने विदेश मंत्रालय और इस प्रकार सरकार के माध्यम से आने वाले सभी प्रस्तावों पर गौर किया है।
इसमें खास बात यह है कि हाल के दिनों में रक्षा विभाग का कार्यभार आमतौर पर सीपीएन यूएमएल के केपी शर्मा ओली संभालते रहे हैं, अथवा वर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा संभाल रहे हैं। हो सकता है कि समय और परिचालन की बाधाओं ने सरकार को रक्षा पोर्टफोलियो पर ध्यान केंद्रित करने से रोका हो,जिसके चलते इसका बहुत कुछ भार सेना और नौकरशाही को दे दिया हो। इससे नेताओं को सांसदों की तरफ से पूछे जा रहे कठिन प्रश्नों को हल करने में बड़ी मदद मिली और प्रधानमंत्री देउबा बड़ी चालाकी से एसपीपी पर एक संसदीय समिति के समक्ष पेश होने से बच गए।
एसपीपी पर विवाद प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की जुलाई और उसके बाद की अमेरिका यात्रा तक जारी रह सकता है। इस साल नवम्बर में निर्धारित राष्ट्रीय और प्रांतीय चुनावों में भी यह एक चुनावी मुद्दा हो सकता है।
नेपाल की सेना को इन सब विवादों से परे रखने के लिए एक आम राजनीतिक सहमति है, जो व्यापक राष्ट्रीय में हित है।
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