राष्ट्रकवि स्व. श्री रामधारी सिंह दिनकर की उपरोक्त पंक्तियाँ श्री लंका की वर्तमान परिस्थिति पर अक्षरशः लागू होती हैं। विगत शनिवार को देश के कई संगठनों (बार एसोसिएशन, बौद्ध संगठन, कर्मचारी संघों आदि) के आह्वान पर देश के कोने कोने से प्रदर्शनकारी कोलंबो में जमा हुए। आसमान छूती मंहगाई, पेट्रोल डीज़ल ही नहीं वरन खाद्य सामग्री, दूध, जीवनरक्षक दवाओं और खेती के लिए खाद की भी भयानक कमी ने आम जनता को उस सरकार के खिलाफ कर दिया, जो इस बढ़ती हुई आर्थिक बदहाली को रोकने में पूर्णतः नाकाम रही थी। कुछ चुनिंदा परिवारों की भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकारों ने देश की जनता की, लगता है, कभी कोई परवाह ही नहीं की और अपना-अपना खज़ाना ही भरते रहे। जब जनता के सब्र का प्याला भर गया तो "गो- गोटा- गो" (जाओ गोटबाया जाओ) के नारे के रूप में जनता का गुस्सा फूट पड़ा ।
वैसे तो कमोबेश सभी पूर्ववर्ती श्रीलंकाई सरकारें इस संकट की ज़िम्मेदार रही हैं, किन्तु इसमें बड़ी भूमिका राजपक्षे परिवार की रही है। 1936 से राजपक्षे परिवार श्रीलंका की राजनीति में सक्रिय हुआ जब मैथ्यू राजपक्षे हम्बनटोटा सीट से स्टेट कौंसिल के सदस्य चुने गए।
कई पीढ़ियों तक शासन के विभिन्न अंगों में मध्यम स्तर पर ही रहने के बाद राजपक्षे खानदान के हाथ सत्ता का चरम सुख 2004 में लगा जब 1970 से सांसद रहे महिंद्र राजपक्षे प्रधानमंत्री बने और अगले ही साल राष्ट्रपति चुने गए, जिस पद पर वे 2015 में पराजित होने तक रहे। फिर 2019 से अप्रैल 2022 तक अपने छोटे भाई गोटाबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति बनवा कर स्वयं प्रधानमंत्री बन बैठे। अपने अन्य भाइयों, बेसिल, नमन, चामल तथा भतीजी निरुपमा को मंत्री बना कर महिंद्रा भाई भतीजावाद के एक सच्चे उदहारण बन गए। उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यकाल में चीन से लगभग एक अरब डॉलर क़र्ज़ लेकर अपने चुनाव क्षेत्र में बंदरगाह, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा और स्टेडियम बनवाये। जहां हवाई अड्डा और स्टेडियम लगभग खाली हैं, बंदरगाह के क़र्ज़ की किश्तें न चुका पाने के कारण उसको चीन को ही 99 सालों के लिए पट्टे पर देना पड़ा है। इस प्रकार जानबूझ कर चीन के कर्ज़े के मकड़जाल में देश को धकेलने के लिए मोटी रिश्वत पाने के भी आरोप महिंद्रा पर लगे हैं। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर धोखाधड़ी, सरकारी धन और साधनों का दुरूपयोग, हत्या और लगभग 31 अरब डॉलर के धन-शोधन के भी आरोप लगे हैं। उनकी भतीजी निरुपमा का नाम भी पैंडोरा पेपर्स में आया था।
2012 में जीडीपी में 9 % की वृद्धि दर दिखाने वाले श्रीलंका की आर्थिक स्थिति वैसे तो लगातार गिरती जा रही थी, लेकिन यह गिरावट कोरोना और उसके बाद के समय और तेज़ हो गयी। विदेशी मुद्रा के लिए पर्यटन तथा चाय, कॉफ़ी, चावल, मसालों आदि के निर्यात पर निर्भर रहने वाले हिन्द महासागर के रत्न के रूप में विख्यात श्रीलंका की विदेशी मुद्रा के सारे स्रोत कोरोना के कारण लगभग ठप ही हो गए। रही सही कसर पिछले साल की आयकर की दर आधी करने के लोकलुभावन बजट ने कर दी जिससे सरकारी राजस्व का एक बड़ा हिस्सा कम हो गया। बिना किसी सुदृढ़ विकल्प के रासायनिक खादों पर प्रतिबन्ध लगा कर जैविक खादों का उपयोग करने की घोषणा ने तो खेती की कमर ही तोड़ दी क्योंकि विकल्प के रूप में चीन से आयातित जैविक खाद प्रदूषित पाई गयी। विदेशी मुद्रा की भरी कमी ने पेट्रोल -डीज़ल के आयत को कम कर दिया, फलतः मंहगाई में बेतहाशा वृद्धि हुई। श्रीलंकाई अखबार डेली मिरर के मुताबिक जून के माह में मंहगाई में वृद्धि 54 % से ऊपर रही। स्थिति की भयावहता का अंदाज़ा इसीसे लगाया जा सकता है कि देश का उपयोग करने लायक विदेशी मुद्रा भंडार कम हो कर पिछले माह सिर्फ 2 .5 करोड़ डॉलर रह गया, जो कि केवल एक महीने के ईंधन आयात के लिए भी पर्याप्त नहीं है। लगभग 82 अरब डॉलर के जीडीपी वाले इस देश पर कुल विदेशी क़र्ज़ 51 अरब डॉलर से अधिक है और अब श्रीलंका क़र्ज़ पर ब्याज की किश्तें चुकाने की स्थिति में भी नहीं है। इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 3 .5 अरब डॉलर के उद्धारकारी ऋण की मांग की गयी है जिसके जारी होने में समय लगने की सम्भावना है।
ऐसे में श्रीलंका ने सहायता के लिए विश्व से अपील की है। जहाँ भारत इस स्थिति के आने से पूर्व ही अपने दक्षिणी पड़ोसी की सहायता करना प्रारम्भ कर चुका था, अन्य देशों की ठोस प्रतिक्रिया आनी बाकी है। भारत ने और अधिक सहायता देने का आश्वासन दिया है, वहीँ इस त्रासदी के संभावित कारण-चीन- की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट बयान नहीं आया है। हाँ, जापान ने ज़रूर कहा है कि विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP ) के तहत जापान 30 लाख डॉलर की आपातकालीन सहायता देगा तथा शेष सहायता तभी मिलेगी, जब कानून और व्यवस्था की बहाली हो जाएगी। यह कितनी विडंबना और पश्चिम की विदेश नीति के विरोधाभास है कि पश्चिमी देश जहां रूस से युद्ध जारी रखने के लिए यूक्रेन को अरबों- खरबो के हथियार और अन्य सहायता दे रहे हैं, वहीं श्री लंका को भुखमरी से बचाने के लिए अभी तक किसी मदद की घोषणा नहीं की गयी है- सिवाय श्रीलंका को सलाह देने के कि वह देश में कानून और व्यवस्था को शीघ्र बहाल करे!
वर्तमान स्थिति यह है कि राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे, दोनों ने इस्तीफ़ा देने की पेशकश की है, जिसकी मांग प्रदर्शनकारी कर रहे थे। माना जाता है कि ये इस्तीफे एक-दो दिन में आ जाएंगे, जिसके बाद नई कार्यवाहक सरकार का गठन संभव है। व्यापक समर्थन वाला यह जन- प्रदर्शन इक्का दुक्का घटनाओं को छोड़ कर आम तौर से अहिंसक रहा, जिसके लिए श्रीलंकाई जनता सराहना की पात्र है। फिर भी राष्ट्रपति भवन में जैसी अराजकता देखने को मिली, उससे स्पष्ट हो गया कि यह संगठित आंदोलन के बजाय एक नेतृत्वविहीन आक्रोशित भीड़ है। इस आक्रोश और इसके फलस्वरूप उपजे आंदोलन को एक दिशा दे सकने वाले नेतृत्व का न होना एक खतरनाक नज़ीर बन सकता है। अभी तो ग़नीमत है कि कोई अवांछनीय घटना नहीं हो पाई, लेकिन राष्ट्रपति भवन में कुछ प्रदर्शनकारियों द्वारा किया गया व्यवहार यह दिखाता है कि यदि नेतृत्व न हो, तो आंदोलन उच्छृंखल हो सकता है जो, यदि समय रहते नेतृत्व द्वारा नियंत्रित न किया जाए तो, विनाशकारी रूप ले सकता है। इसलिए अभी तो प्राथमिक आवश्यकता है किसी भी प्रकार शीघ्र ही इस अराजकता पर काबू पाया जाए ताकि एक व्यवस्था कायम हो सके।
हम सभी ने देखा है कि जब राहत सामग्री बांटी जाती है तो कैसे भगदड़ और मारपीट का मंज़र दिखने लगता है। एक बार जब कानूनी व्यवस्था कायम हो जाए तो सरकार को कुछ कठोर और अप्रिय किन्तु आवश्यक कदम लेने पड़ेंगे। भ्रष्टाचार पर कठोर नियंत्रण, विधि का शासन, विदेशों से सहायता की अपील, विदेशी कर्ज़ों को चुकाने की समयसीमा में छूट की प्राप्ति, विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ने के लिए एक दूरगामी नीति और आय के अन्य नए तथा भरोसेमंद साधनों की खोज आदि ऐसे ही कुछ कदम हो सकते हैं। इन सभी उपायों में समय लगेगा क्योंकि लम्बी बीमारी के इलाज़ भी लम्बा ही चलता है।
श्रीलंका के वर्तमान संकट ने एक सीख तो सभी विकासशील देशों को दे ही दी है कि मित्र वही देश होता है जो संकट के समय काम आए, न कि वह जो लुभावने सब्ज़बाग दिखा कर क़र्ज़ दे और संकट के समय मदद से आनाकानी करे।
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