महामारी के तेज गति से और गंभीर होने और मोल्डो (मिलिट्री के सिक्के में अंकित) में 11वें दौर की बातचीत के बाद पूर्वी लद्दाख की रिपोर्टिंग जाहिरा तौर पर, और उचित ही, एक थकाऊ काम है और उसमें ‘रिपोर्ट करने लायक कुछ नहीं’ (एनटीआर) है। ‘स्रोतों’ के हवाले से लिखे जा रहे छिटपुट लेख और विश्लेषण अक्सर बहस को जिंदा रखते हैं और मुद्दे को सामने ला देते हैं।
स्वाभाविक है कि पत्रकार सूचनाओं को जमा करने और उन्हें प्रसारित करने में तय आचार-संहिताओं का पालन करते हैं। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी खबरें तथ्यों पर आधारित और निष्पक्ष हों। पत्रकार अपनी खबरों के व्यक्ति, समाज और संस्थाओँ पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभावों को लेकर भी सजग रहते हैं। वस्तुनिष्ठता ज्यादातर राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में मायने रखती है, क्योंकि जो सत्ता-सरकार में हैं, वे इसकी शिकायत नहीं कर सकते अथवा वे किसी व्यक्तिपरकता को भी खारिज नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि कोई खबर अवश्य ही खोजबीन कर, फिर उसकी छानबीन कर और तथ्यों को सत्यापित करने के बाद ही प्रकाशित करनी चाहिए, न कि महज ‘विश्वसनीय सूत्रों’ के हवाले या ‘ऐसा कहा जाता है’, के आधार पर प्रसारित-प्रकाशित किया जाना चाहिए। यहां हम सूचना के ‘सूत्र’ का खुलासा न करने की उचित पवित्रता के निर्वहन की बाध्यता को समझ सकते हैं-लेकिन उनमें से बहुतों के अपना स्वार्थ भी हो सकता है। फिर विरोधियों द्वारा सूचनाओं के जरिये प्रभावित करने का अभियान भी होता है। स्पष्ट है कि किसी प्रतिष्ठित समाचार माध्यम का कोई भी जिम्मेदार संपादक (या, मुख्य संपादक) अवश्य ही सूचनाओं की सत्यता और प्रामाणिकता की मांग करता है। पूर्वी लद्दाख के मामले में, विशेषकर सब सेक्टर नॉर्थ (एसएसएन) की रिपोर्ट में प्राय: ‘कहा जाता है’, लिखा होता है क्योंकि किसी रिपोर्टर ने उस क्षेत्र का दौरा नहीं किया है, और न ही प्राथमिक स्रोतों (अपवाद जो नियम को प्रमाणित करता है) से उन खबरों को लेकर कोई बातचीत की है।
पूर्वी लद्दाख में जटिल स्थिति के चार पहलू हैं, जो हाल के समाचार-मीडिया जगत में उजागर हुए हैं, जिनकी समीक्षा की आवश्यकता है। पहला, देपसांग पठार है, जहां कहा जाता है कि 2020 के पहले से ही गतिरोध बना हुआ है और भारतीय फौज अपनी परंपरागत गश्ती सीमा बॉटलनेक/Y जंक्शन (राकी नाला) के पार से लेकर गश्ती के बिंदु (पीपी) 10,11,12 और 13 तक विगत सात वर्षों में यानी 2013 से ही नहीं पहुंच पाई है। दरअसल, देपसांग में ही चीनी सेना के साथ 2013 के अप्रैल-मई महीने में 22 दिनों का एक लम्बा गतिरोध हुआ था। लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) की व्यवस्था गश्ती के क्षेत्र की जवाबदेही, जिनमें पीपी भी शामिल हैं, यह पाक और जरूरी काम कमांडर्स और सेना का है। एसएसएन में, जैसा कि और जगह भी होता है, गश्ती-निगरानी दिल्ली गृह मंत्रालय और सेना के मुख्यालय, उधमपुर के उत्तरी कमांड और लेह में फायर एंड फ्यूरी कॉर्प्स के आर्डर और समन्वय पर होती है। देपसांग में, भारतीय तिब्बत बार्डर पुलिस (आइटीबीपी) और सेना के लगभग 40 सदस्यीय संयुक्त गश्ती की जाती है, जिसकी अगुवाई दो अफसर करते हैं। इस दल को एक अंतराल पर गश्ती करनी होती है-महीने में एक बार पीपी 10,11,12 और 13 की तरफ गश्त लगानी पड़ती है। आकर्षक या लुभाऊ नामों से इस गश्ती दल के जिम्मे कुछ विशेष काम भी सौंपे जाते हैं, जैसे शुचिता बनाये रखना, अपने भूभाग पर अपने दावे को दोहराना, भूभाग से संबंधित जानकारी लेना, किसी भी बदलावों के बारे में सूचनाएं रखना और अपने क्षेत्रों में सामान्यतया दखल रखना। इसके अलावा, एएसओ/ डब्ल्यूएएसओ (विंटर एअर सर्विलांस ऑपरेशन) हेलीकॉप्टर उड़ानों का उपयोग निगरानी एवं दखल की अपनी नीति के रूप किया जाता है।
इसे अवश्य ही कहा जाना चाहिए कि अप्रैल-मई 2013 के गतिरोध के समय से ही योजना के मुताबिक पेट्रोलिंग लगातार हो रही थी, केवल चीन की पीएलए की गश्ती दल के साथ हुई झड़पों और भूभाग की परिस्थितियों के कारण ही अंतराल आया। यहां तक की झड़प के बाद, मोर्चे पर तैनात कमांडर इस सबक को जितनी जल्दी हो, पूरा करने का प्रयास करते, कभी-कभी दिन में एक या दो बार भी गश्ती पर निकलते हैं। 2013 से 2019 के बीच साल में कम से कम 8 से 10 पेट्रोलिंग सुनिश्चित की गई। बेहद कठिन भूभाग और खराब मौसम वाले पेट्रोलिंग पॉइंट 10-13 की गश्ती में 5 से 6 दिन लगते थे। गश्ती दल को विस्तृत विवरण देना होता है और बड़ी संख्या में गश्ती की रिपोर्टस आइटीबीपी/सेना की पूरी श्रृंखला तक जाती है। यहां तक कि ये रिपोर्टस इस समय भी उपलब्ध होंगी। इसका तात्पर्य यह है कि आइटीबीपी और सेना के सभी रैंकों को मिला कर कुल 2500 जवानों ने देपसांग के पेट्रोलिंग प्वाइंट्स के आधार को अवश्य ही छुआ होगा। एएसओ/ डब्ल्यूएएसओ के अतिरिक्त, कुछ सीनियर कमांडर्स के साथ, लिमिट ऑफ पेट्रोलिंग (एलओपी) के साथ-साथ नियमित मिशन पर भी जाते हैं। अब कहा जाता है कि हम 2013 से ही अपने एलओपी के पास भी नहीं पहुंच पाए हैं, क्योंकि पीएलए ने हमारी गतिविधियों को रोक दिया है, यह पूरी तरह सुनी-सुनाई बातें हैं और सीमा की रक्षा में दिन-रात जु़टे प्रतिबद्ध एवं समर्पित आइटीबीपी एवं सेना के जवानों, टुकड़ियों के संगठनों और उनके नीचे से ऊपर के कमांडर्स की निष्ठा और सम्मान को चुनौती देना है! दरअसल, हमारी ही गतिविधियों की तरह पीएलए भी अपने दावे की लाइन तक पहुंचने के लिए प्रयास कर रही होंगी, इसे ट्रैक जंक्शन (डीबीओ समीप) या बर्टसे में आइटीबीपी चौकी के करीब बताया जाता है। 2020 में, हालांकि एक खुले सूत्र के मुताबिक राकी नाला पर बॉटलनेक के दोनों ओर परस्पर बलॉक है, जिससे भारत की संयुक्त गश्ती एलओपी तक नहीं पहुंच पाती है, उसी तरह पीएलए पेट्रोलिंग बर्टसे की तरफ नहीं आ पाती है। ‘सूत्रों’ ने कहा कि “…भारतीय सेना को देपसांग में 2013 के पहले और उसके बाद से रोका जा रहा है”, निश्चित रूप इन तथ्यों का सत्यापन किया जाना चाहिए।
दूसरा मसला पश्चिमी हाइवे पर लगभग 150-200 किलोमीटर और 24 से 36 घंटे के भीतर एलएसी की गतिविधि में चीनी सेना के निशानों के बारे में खुफिया सूचनाओं के उपलब्ध न होने का है। हालांकि पीएलए शियादुल्ला (सांशिली या 30 बैरक-काराकोरम दर्रे से 100 किलोमीटर उत्तर) के समीप सलाना अभ्यास करती है, यह संदर्भ स्पष्ट रूप से एलएसी के पूरब का है। हालांकि इस तथ्य को फिर से पुष्ट किये जाने की जरूरत है, किसी भी बड़े सैन्य अभ्यास में एक दूसरे के विपरीत या अक्साई चिन में ‘blobs’ रखा जाता है, इसकी पहले कभी रिपोर्टिंग नहीं की गई। किसी भी सैन्य अभ्यास से जुड़ी अधिकतर सूचनाएं अवलोकन के लिेए उपलब्ध हैं। प्रथम होने के कारण, यदि ऐसी खुफिया जानकारी उपलब्ध थी, तो राजनयिक और सैन्य चैनलों को अपने चीनी समकक्षों से उसकी सच्चाई और मंशा की मांग करनी चाहिए थी। स्थानीय संरचनाओं ने तुरंत ही अपनी तैनाती बढ़ाई होती या पूरी तरह ऑपरेशनल अलर्ट जारी किया होता। यह बुनियादी सामरिक योजना होती है। लिहाजा, यह सूचना भी सत्यापन की मांग करती है।
तीसरा, गोगरा और हॉट स्प्रिंग्स और आगे की गतिविधि में सैन्य विलगन का है। दरअसल, सोग्त्सालु/चांग चेन्मो नदी घाटी का इलाका पेट्रोलिंग प्वाइंट्स/ कोंगकला में नियमित निगरानी के बावजूद सैन्य टकराव से रहित रहा है। एलएसी के सबसे कम विवादित हिस्से में से एक के साथ, यह माना जा रहा था कि यहां से सैन्य विलगन संभव है। हालांकि कोंगकला के पश्चिम और लनाकला के उत्तरी इलाके में हुओशाओयुन सीसे-जस्ता का भंडार है। 19 मिलियन टन की उच्च स्तरीय गुणवत्ता वाले जस्ता और लीड के साथ यह एशिया का सबसे बड़ी और विश्व में सातवीं सबसे बड़ी धातु की खदान है, जिसका फिर-फिर खनन किया जा सकता है। इस खदान का दोहन चीन की मौजूदा खदान वाली जस्ता की आपूर्ति को दोगुना कर देगा। हालांकि फोब्रंग से मार्सिमिकला होते हुए हॉट स्प्रिंग्स तक बन रही सड़क चीन के लिए चिंता की वजह हो सकती है।
चौथा, 2020में पीएलए द्वारा कई बार किये गये सीमा के अतिक्रमणों में उल्लंघनों में पीएलए द्वारा नियोजित अंतिम स्थिति पर विचार करने का मुद्दा है। निश्चित रूप से अतिरिक्त बल की पर्याप्त मात्रा में तैनाती के बावजूद देपसांग पठार और पैंगोंग त्सो नॉर्थ बैंक/स्पैंगूर गैप (कैलाश क्षेत्र) में दो जोड़ मैकेनाइज्ड और मोटरचालित डिविजनें थीं। इससे यह स्पष्ट है कि पीएलए ने पूर्वी लद्दाख में व्यापक स्तर पर परम्परागत युद्ध की कल्पना नहीं की थी। पीएलए ने योजना बनाई होगी कि वह पहुंच जाएगी और ‘बिना किसी जंग के’ 1959 के दावे की लाइन पर कब्जा जमा लेगी। चीन के 1959 की क्लेम लाइन के बारे में शिवशंकर मेनन ने अपनी किताब ‘च्वाइसेज: इनसाइड दि मेकिंग ऑफ इंडिया’ज फॉरेन पॉलिसी’ज में लिखा है कि चीनियों ने “विवेचना (एलएसी की) केवल सामान्य संदर्भ में नक्शे पर किया था, स्केल पर नहीं।” 2020 में यहां तक कि कथित 1959 की क्लेम लाइन पर कब्जे का विश्लेषण पीएलए को बड़ी संख्या में सैन्य बल की जरूरत पड़ी होगी, जिसे भारतीय सेना की कई यूनिटों के साथ कई स्थलों पर परम्परागत मुठभेड़ करनी हुई होगी, और जिसके चलित लक्ष्यार्थ होंगे। वास्तव में, 1959 की क्लेम लाइन के बारे में खुली सूचना के अनुसार अब एसएसएन या चुमर समेत कई इलाकों में इससे इनकार किया जा रहा है। पीएलए के लिए अंतिम स्थिति समग्र भू-राजनीतिक संकेत के एक हिस्से के रूप में डरानेवाली हो सकती है। किसी भी अन्य उपाय से इसे कम होता हुआ माना जा सकता है।
इन पहलुओं ने सर्वशक्तिमान सवाल सामने ला दिया है-इसके आगे क्या और कैसे? भारतीय सेना/आइटीबीपी और पीएलए के बीच चोशुल में दसवें दौर की बातचीत के बाद हुए समझौते से एलएसी के प्रबंधन में महत्वपूर्ण बदलाव आया। इस संधि ने पैंगोंग त्सो के उत्तर और दक्षिण में और रेजांगला-रिचेनला में सीमा से चरणबद्ध, समन्वित, सत्यापित और सैन्य विलगन (डिसइंगेजमेंट) के लिए तालमेल करने का मार्ग प्रशस्त किया। जैसा कि पहली बार पैंगोंग त्सो के उत्तर में लगभग 6 से 8 किलोमीटर का क्षेत्र एक बफर इलाका बनाया गया, जो अक्सर होने वाले आमने-सामने के टकराव और झगड़े-मारपीट के कारण को दूर करता है। यह कथित क्लेम लाइन का हल भविष्य पर छोड़ते हुए उसे चुनौती नहीं देता है, और सीमांकन एवं परिसीमन की उम्मीद करता है।
क्या इस नई प्रविधि में पूर्वी लद्दाख के अन्य इलाकों में भी कोई दिशा-निर्देश है? भू-भाग का अनोखापन और एलएसी के दावों की जटिलता इतनी व्यापक है कि समाधान का कोई एक सांचा हरेक जगह एक सा वहनीय नहीं है। एक सत्यापन व्यवस्था के साथ, सीमा पर विधिवत पहचान के उपायों के साथ सब-सेक्टर में समान बफर की योजना बनाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, हॉट स्प्रिंग्स-गोगरा इलाके और बॉटलनेक (राकी नाला) में बफर क्षेत्र 500 से 1000 मीटर का हो सकता है और चिप चैप नदी (डीबीओ) के साथ और चुनार में यह 4 किलोमीटर तक हो सकता है। इसी तरह भिन्न इलाके में बफर जोन का दायरा भिन्न हो सकता है। यह सीमा पर परस्पर बातचीत के आधार पर तय करना होगा, जहां सेना एक दूसरे के साथ अब भी आमने-सामने तैनात हैं, और इसे स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव्स एंड वर्किंग मेकैनिज्म फॉर कंसल्टेशन एंड कोऑर्डिनेशन (डब्ल्यूएमसीसी) के अंतर्गत सीमांकन-परिसीमन प्रक्रिया के निर्धारण जैसे बड़े मामले से इसे नहीं मिलाना चाहिए। एक वृहद कक्षा में, मानचित्रों के आदान-प्रदान की 2002 की प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए और जहां विवाद नहीं है, वहां उप-क्षेत्र (सब-सेक्टरल) विधि के आधार पर मामला सुलझाया जाना चाहिए, शेष को आगे के लिए छोड़ देना चाहिए, जैसा कि हिमाचल प्रदेश-तिब्बत या उत्तराखंड-तिब्बत सीमा पर किया गया था! क्रमिक प्रविधि से एक बार परस्पर विश्वास जम जाए तो युद्ध की तीव्रता में कमी (De-escalation) लाना अपरिहार्य है!
सारांश यह कि, प्रचलित मुहावरा ‘भरोसा कीजिए लेकिन ठोक-बजा कर’, का सिद्धांत भीतरी सूचना देने वाले ‘सूत्रों’ पर भी लागू होता है! और मौजूदा उलझनों से बाहर आने के लिए ‘तंग दायरे से बाहर’ सोचने का शुद्ध विचार अपरिहार्य होगा।
Translated by Dr Vijay Kumar Sharma (Original Article in English) [3]
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[1] https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/may/22/poorvee-laddaakh-enateeaar-soochanaon-par-bharosa-keejie-par-jaanch-parakh-kar
[2] https://www.vifindia.org/author/Rakesh-Sharma
[3] https://www.vifindia.org/article/2021/april/26/eastern-ladakh-ntr-trust-but-verify-information
[4] https://images.newindianexpress.com/uploads/user/ckeditor_images/article/2021/2/20/AERGAERG.PNG
[5] http://www.facebook.com/sharer.php?title=पूर्वी लद्दाख : एनटीआर-सूचनाओं पर ‘भरोसा कीजिए पर जांच-परख कर’!&desc=&images=https://www.vifindia.org/sites/default/files/AERGAERG_0_0.png&u=https://www.vifindia.org/article/hindi/2021/may/22/poorvee-laddaakh-enateeaar-soochanaon-par-bharosa-keejie-par-jaanch-parakh-kar
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