इमरान खान के नेतृत्व में पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक कदमों को लेकर कुछ बढ़त हासिल करने की कोशिश में जुटा था। इसके तहत पाकिस्तान ने भारत के साथ बातचीत करने का प्रस्ताव देकर गेंद भारत के पाले में डाल दी कि अगर वह इसे खारिज करता है तो भली मंशा से ‘शांति की ओर कदम’ बढ़ाने की उसकी पेशकश पर पानी फेरने का ठीकरा भारत के सिर पर फूटेगा।
पाकिस्तान पर अमेरिका ने दोहरा दबाव बना रखा है। एक ओर तो अमेरिका ने उसे दी जा रही सैन्य एवं आर्थिक मदद में कटौती कर दी है। ऐसे में अपनी संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से मदद की दरकार है। आतंकी कड़ियों से अपने जुड़ाव को लेकर अंतरराष्ट्रीय चिंताओं को लेकर भी उसके समक्ष जिम्मेदारी और जवाबदेही की मजबूरी भी आ गई है। ऐसे में इन गुणाभाग को देखते हुए इस्लामाबाद ने सोचा होगा कि भारत की ओर कूटनीतिक पैंतरा फेंकने से पाकिस्तान पर कुछ दबाव कम होगा। इसमें सबसे आसान दांव यही था कि भारत के साथ वार्ता की पेशकश की जाए, क्योंकि उसे पता है कि भारत इसके लिए तब तक सहमत नहीं होगा जब तक कि पाकिस्तान की धरती पर सक्रिय उन जिहादी तत्वों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती जो भारत को निशाना बनाते रहते हैं। पाकिस्तान ऐसा नहीं करेगा और जिस दिन इमरान खान ने सत्ता संभाली उनके बयान से ही यह स्पष्ट हो गया था। उन्होंने आतंक के मुद्दे पर लीपापोती करने वाले अंदाज में यह कहने की कोशिश की कि दोनों ही पक्ष एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं। यानी वह आतंकी गतिविधियों में पाकिस्तान की भूमिका को नकारने के साथ ही आतंक को एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने के मोर्चे पर दोनों देशों को एकसमान रूप से स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आरोप लगाता आया है कि भारत उसके बलूचिस्तान प्रांत में गड़बड़ी कर रहा है और इस मामले में वह संयुक्त राष्ट्र और अन्य मंचों पर डोजियर भी सौंप चुका है। उसने कुलभूषण जाधव मामले को ही पूरी तरह पलट दिया है।
कई वर्षों से गतिरोध की वजह से अटकी हुई समग्र वार्ता के एजेंडे में आतंक एक प्रमुख मुद्दा था। इसमें पाकिस्तान की ओर से भारत पर थोपे हुए आतंक को लेकर कुछ ठोस नहीं हुआ। इससे भी बदतर स्थिति यह हुई कि हमने संयुक्त बयान में समझौता एक्सप्रेस को लेकर ऐसे ही आरोपों को स्वीकार कर लिया और यहां तक कि बलूचिस्तान के उल्लेख पर भी सहमत हो गए जिससे देश में भारी हंगामा हो गया। इमरान खान और पाकिस्तानी विदेश मंत्री कुरैशी दोनों कश्मीर पर कोई समझौता न करने वाले तेवर दिखा चुके हैं जिसमें व्यापार सहित अन्य मोर्चों पर कोई समाधान निकालने के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ही आधार बनाना होगा। जनरल मुशर्रफ जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा आतंक के इस्तेमाल को लेकर खासे मुखर थे जो इसे एक ऐसे हथियार के रूप में देखते थे कि यह भारत को मजबूर करेगा कि वह पाकिस्तान के साथ कश्मीर को लेकर वार्ता करे। उनकी दलील थी कि अन्यथा ऐसा करने में भारत का और कोई हित नहीं। आतंकवाद और पाकिस्तान की कश्मीर नीति में इस आधारभूत जुड़ाव को इमरान खान और पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान की ओर से भी नहीं तोड़ा जाएगा।
इसलिए इमरान खान हमारे प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में जब यह कहते हैं कि पाकिस्तान आतंक के मुद्दे पर वार्ता के लिए तैयार है तो इसे इस तरह न देखा जाए कि वह हमारी मांग पर विचार करने के इच्छुक हैं कि आतंक पर शिकंजा कसकर ही एक सकारात्मक अनुकूल माहौल बनाया जा सकता है। हमारी मांग का अर्थ है कि लश्कर-ए-तैयबा के मुखिया हाफिज सईद और जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर, मुंबई में 2008 के आतंकी हमले के आरोपियों के साथ-साथ ही उड़ी और पठानकोट हमले के लिए जिम्मेदार आतंकियों पर कड़ी कार्रवाई करनी होगी। खुद इमरान खान के धार्मिक कट्टरपंथियों के साथ गहरे रिश्ते रहे हैं और अपने राजनीतिक करियर को आकार देने में उन्होंने इसका फायदा भी उठाया है और उनके दम पर चुनाव तक जीतने में सफल हो गए। ऐसे में इसकी संभावना कम ही है कि वह इन जिहादी तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करें जिन्हें देश की सेना का भी समर्थन मिला हुआ है।
धार्मिक उन्माद और आतंक की गंदगी पाकिस्तानी समाज में गहराई तक बस गई है। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने हाफिज सईद की दो संस्थाओं की गतिविधियों पर विराम लगाने से इन्कार कर दिया जबकि संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें आतंकी संस्था करार दिया है। यहां तक कि कट्टरपंथियों के दबाव में इमरान खान को खुद आतिफ मियां को देश की आर्थिक सलाहकार परिषद में नामित करने के अपने निर्णय को पलटना पड़ा, क्योंकि यह विख्यात अमेरिकी-पाकिस्तानी अर्थशास्त्री अहमदिया मुसलमान हैं। पाकिस्तान पहले से ही फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (फाटे) की ग्रे लिस्ट में दाखिल हो चुका है। ऐसे में उससे यही अपेक्षा है कि वह धनशोधन और आतंकी गतिविधियों को वित्तीय मदद रोकने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखाने वाली कार्ययोजना का खाका पेश करे, लेकिन इस महीने फाटे के एक प्रतिनिधिमंडल की रिपोर्ट में इन दोनों ही मोर्चों पर पाकिस्तान द्वारा उठाए गए कदमों को लेकर असंतुष्टि व्यक्त की गई है। पाकिस्तान की राजनीतिक, सैन्य और सामाजिक संरचना उसे उन जिहादी तत्वों से निपटने की इजाजत नहीं देगी जो इस देश को दूषित कर रहे हैं।
ऐसे में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की संयुक्त राष्ट्र सभा में बैठक से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं। यहां यह नहीं भूलना होगा कि मुंबई आतंकी हमले के वक्त भी पाकिस्तान में कुरैशी ही विदेश मंत्री थे। वहीं पाकिस्तान द्वारा आतंक के मोर्चे पर कोई ठोस कार्रवाई न करने और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तानी रेंजरों द्वारा बीएसएफ जवान की निर्मम हत्या के बाद मोदी सरकार द्वारा वार्ता के लिए हरी झंडी दिखाए जाने से सरकार ने आलोचनाओं को आमंत्रण दे दिया। हमारे प्रवक्ता ने एकदम सही तरह स्पष्ट करते हुए कहा कि बैठक का अर्थ वार्ता नहीं है और भारत आतंक के मुद्दे पर दृढ़ है और पाकिस्तानी विदेश मंत्री को भी इस स्थिति से अवगत करा दिया गया है। हालांकि इससे विपक्ष को सरकार पर हमला करने का एक अवसर मिल गया कि पाकिस्तान को लेकर उसका रवैया नरम-गरम वाला और लचीला है।
न्यूयॉर्क में पाकिस्तान के साथ बैठक पाकिस्तान के इस दुष्प्रचार को रोकने में मददगार होती जिसमें उसे यह कहने का अवसर नहीं मिलता कि भारत बैठक के प्रस्ताव को लेकर भी कुछ ज्यादा ही कठोर है। बैठक के तुरंत बाद हम यह घोषणा कर सकते थे कि हमने इसे न केवल नई सरकार के दावों को परखने के लिए स्वीकार किया, बल्कि हम ऐसी कोई धारणा भी खत्म करना चाहते थे कि केवल बातों और ठोस कार्रवाई के बिना संवाद की राह नहीं खुल सकती। इस्लामाबाद में सार्क सम्मेलन में भागीदारी न करने का हमारा फैसला पुराना है, क्योंकि पाकिस्तान अभी भी क्षेत्रीय आतंकवाद का गढ़ बना हुआ है और यह बात दोहराई जा सकती थी कि यह अपने पड़ोसी देशों की सुरक्षा के लिए खतरा है।
न्यूयॉर्क बैठक इसलिए रद्द कर दी गई, क्योंकि हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकियों ने जम्मू-कश्मीर में तीन पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी थी। वहीं पाकिस्तान ने दुःस्साहस दिखाते हुए बुरहान वानी और अन्य आतंकियों का महिमामंडन करने के लिए 20 डाक टिकट भी जारी किए। पाकिस्तान की इन नापाक हरकतों पर उसे घेरते हुए हमारे प्रवक्ता ने कहा कि इससे इमरान खान का ‘असली चेहरा’ सामने आ गया है। इमरान खान ने भी इस पर अप्रत्याशित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भारत के फैसले को दंभ से भरा और भारतीय नेतृत्व को ‘बड़े पद पर पहुंचे छोटे लोग’ तक कह दिया। उनके ऐसे अपशब्दों ने निकट भविष्य में राजनीतिक स्तर पर किसी भी तरह की द्विपक्षीय वार्ता के दरवाजे बंद कर दिए।
संयुक्त राष्ट्र महासभा और उससे पहले विदेश मंत्रियों की औपचारिक बैठक के माहौल में हालात और खराब हो गए। सार्क बैठक में अपनी बात कहने के तुरंत बाद सुषमा स्वराज उस बैठक से निकल आईं और अपने पाकिस्तानी समकक्ष से उन्होंने किसी भी तरह के संपर्क से किनारा कर लिया। संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में उन्होंने आतंक के मुद्दे को लेकर पाकिस्तान पर करारे प्रहार किए। वहीं कुरैशी ने एशिया सोसाइटी में अपने तीखे भाषण में भारत को घेरा और खुलेआम अमेरिका से कहा कि अगर वह आतंक से लड़ाई में पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान का समर्थन चाहता है तो उसे पूर्व में भारत पर दबाव बढ़ान पड़ेगा। इसका अर्थ यही था कि अफगानिस्तान सीमा पर अमेरिका को पाकिस्तान का समर्थन तभी मिलेगा जब कश्मीर में उसके हक में कुछ बात बने। यह पाकिस्तान के दोहरे चरित्र और उसके पाखंड को दर्शाता है। अतीत में पाकिस्तान ने जब भी उत्तर और दक्षिण वजीरिस्तान और स्वात घाटी में सैनिकों की संख्या बढ़ाई है तो भारत ने एलओसी पर दबाव बढ़ाने के लिए कभी ऐसा हालात का फायदा नहीं उठाया है।
पाकिस्तान ने अमेरिकी चिंताओं का गंभीरता से समाधान नहीं किया है, क्योंकि उसका सामरिक लक्ष्य ही तालिबान के जरिये अफगानिस्तान में अपना प्रभाव फिर से बढ़ाना है। आज पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान खूब फल-फूल रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में कुरैशी ने भारत के खिलाफ दुष्प्रचार में कोई कमी नहीं छोड़ी और यहां तक कि पेशावर में उस आतंकी हमले को भी भारत से जोड़ा जिसमें कई बच्चों की मौत हो गई थी। उन्होंने वहां कुलभूषण जाधव मामले का राग भी छेड़ा। कुरैशी इमरान खान सरकार के असली चेहरे का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके बारे में हमारे प्रवक्ता पहले ही रुख स्पष्ट कर चुके हैं। असल में ‘नया पाकिस्तान’ घरेलू स्तर पर लोगों को लुभाने का जुमला भर है और भारत के लिए कमोबेश वही पुराना पाकिस्तान है।
पाकिस्तान के साथ वार्ता शुरू करने पर सरकार के अनमने फैसले ने जहां उसके लिए आलोचना के द्वार खोल दिए तो उससे एक सबक यह भी मिला है कि पाकिस्तान के मामले में कड़वी हकीकत हमेशा झूठी उम्मीदों पर भारी पड़ेगी।
(लेखक भारत के पूर्व विदेश सचिव और वीआईएफ सलाहकार परिषद के सदस्य हैं)
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