चतुर्भुज समन्वय दल (Quadrilateral Coordination Group (QCG)) के नए शांति प्रयासों में जुटे शैतानी सरगना पकिस्तान, पीड़ित पक्ष अफ़गानिस्तान, आर्थिक प्रबंधक अमेरिका और मूक दृष्टा चीन के संयुक्त प्रयासों के वाबजूद अफगानिस्तान की हालत कोई बहुत अच्छी नहीं लगती। कल तक जो सिर्फ एक डर था, या कहिये कि दुःस्वप्न था, वो आज सच होता नजर आता है। ख़ास तौर से सुरक्षा के क्षेत्र में ये डर हकीकत बनता दिखता है।
तालिबानी आतंक वहां अपने उबाल पर है। जघन्य वारदातों को अंजाम देने की अपनी कुव्वत उन्होंने अफगानिस्तान के हर इलाक़े में, अकल्पनीय हिंसा के जरिये दिखाया है । उस से भी खतरनाक बात ये है कि अब उन्होंने फौज़ी तरीकों से कई इलाकों को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया है। अफगानी राष्ट्रिय सेना (The Afghan National Army (ANA)) को कई इलाकों से पीछे हटना पड़ा है । जैसे जैसे अफगानी सेना में मारे गए लोगों को गिनती बढ़ेगी, फौज़ का आत्मविश्वास बनाये रखना मुश्किल होता जाएगा। राजनैतिक नेतृत्व की कमी के कारण सेना में कर्तव्यपरायणता को बनाये रखना और उसे दिशा देना भी मुश्किल होगा। राजनैतिक नेतृत्व के बंद कमरों में किये जा रहे फैसलों में भी आत्मसमान रखने वाले अफ़गानी गुटों को आक्रमणकारियों के सामने घुटने टेकने जैसा अनुभव होता है। अफ़गानी फौज़ में क्षमता और कार्यकुशलता की कमी है। ये किसी भी तरह अफगानी सैनिक के लड़ने के जज्बे या उसकी हिम्मत को नहीं दर्शाता। इस मामले में जैसा की पाकिस्तानियों को बताया गया अमेरिकियों मत था, बिलकुल वैसे ही अफगानी राष्ट्रिय सेना एक प्रतिष्ठित असैन्य हवलदारों की टुकड़ी से ज्यादा प्रशिक्षित है भी नहीं।
ऐसे में आश्चर्य नहीं होता जब अमेरिकियों के प्रिय राष्ट्रपति अशरफ घनी, अपनी सत्ता को थोड़ा बल देने के लिए, पुराने और बेकार साबित हो चुके पाकिस्तानियों को रिझाने की कोशिशें करते दिखते हैं। अफ़गानी मामलों में पाकिस्तानी साज़िशों और घुसपैठ को रोकने की कोशिश में लगे एक और आन्तरिक सुरक्षा प्रमुख को उन्होंने निकाल फेंका है। कहा जाता है कि एन.डी.एस. के नए प्रमुख आई.एस.आई. के साथ होने वाले विवादित समझौते के खिलाफ़ नहीं है। ये समझौता एन.डी.एस. को आई.एस.आई. का एक विभाग भर बना देगा, इस तरह अफ़गानिस्तान में पाकिस्तानी मंसूबों को रोकने का कोई तरीका नहीं बचेगा। इसके अलावा हाई पीस कौंसिल के नए प्रमुख पीर सय्यद अहमद गिलानी के बरसों से आई.एस.आई. एजेंट होने का शक है, उनसे पाकिस्तानी हितों को ही आगे बढ़ाने की उम्मीद की जा सकती है। अफ़गानी सत्ता समूह में लगातार पाकिस्तानी घुसपैठ से अफ़गानी शासन की दिक्कतें और बढ़ गई हैं। क्या होता होगा अगर ‘शत्रु’ को योजनाओं के बनने का पता, आफगानी तंत्र के कार्यान्वयन शुरू होने से पहले ही चल जाए तो ?
कार्यपालिका की अक्षमता के अलावा राजनैतिक स्तर पर भी, अशरफ गिलानी की योग्यता, उनकी योजनाओं पर अविश्वास और संदेह बढ़ने लगा है। एक ऐसे समय में जब बर्बर तालिबानियों के खिलाफ अफ़गानिस्तान के राजनैतिक नेतृत्व को एकजुट होना चाहिए था, अशरफ गिलानी की नीतियों ने उनमें आपसी वैमनस्य बढ़ा दिया है। नतीजन देश भी एकजुट नहीं है, बिखराव बढ़ रहा है। आम तौर पर ऐसी स्थिति में छोटे दलों का नेतृत्व अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश करता है। फलस्वरूप पहले से रुग्ण देश में जातीय-कबीलाई वैमनस्य और बढ़ेगा, इस तरह देश कमजोर ही होता जायेगा ।
अफगानिस्तान की आन्तरिक राजनीती, आर्थिक और सुरक्षा समस्याएँ अमेरिकियों ने और बढ़ा दी हैं। धीमे मगर निश्चित तरीके से अफगानियों को भेड़ियों के सामने परोस दिया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि एक लम्बे चले युद्ध ने अमरीकियों को थका दिया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि इस युद्ध को जीतने का ना तो कोई ख़ास सामरिक महत्व है, ना ही इस से मध्य-पूर्व के तेल समृद्ध देशों जैसा कोई ख़ास आर्थिक लाभ होने की संभावना है। यही वजह है कि कहा तो जाता है कि अमेरिका, अफगानिस्तान को बीच मंझधार में नहीं छोड़ेगा, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर बिलकुल ऐसा ही होता दिखाई देता है ।
यहां गौर करने लायक है कि अमेरिकियों के लिए अफगानिस्तान प्रतिष्ठा का मुद्दा भी होगा। सारी दुनियां के सामने वो ये नहीं साबित करना चाहते कि एक बलशाली राष्ट्र अमरीका को अफगानिस्तान से अपने कदम पीछे खींचने पड़े। साथ ही साथ, अमेरिकी अन्य शक्तियों को भी इस इलाके में खींचना चाहती है, ख़ास तौर पर चीन को, ताकि उनके निकलते ही अफगानिस्तान की हालत किसी हवा निकले गुब्बारे की सी ना हो जाए। अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने के कुछ समय बाद अगर अफगानिस्तान नष्ट भी हो जाता है तो अमेरिका को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
अगर फायदे के लिहाज से देखें तो 9/11 के बाद से चीन का अफ़गानिस्तान सफ़र सबसे मजेदार रहा है। अफ़गानिस्तान की सुरक्षा में उनका कोई योगदान नहीं है । अगर आर्थिक सहयोग देखें तो वो भी ना के बराबर रहा है (यहां तक की वहां की खदानों में भी चीनी निवेश का कोई ख़ास नतीजा अब तक नहीं निकला है)। इसके वाबजूद चीन ने अपने लिए अफ़गानिस्तान के सत्ता केंद्र में अपनी गहरी पैठ बना ली है। उनके क्यू.सी.जी. (QCG) का एक हिस्सा होना भी इसमें काफी मदद करता है। अमेरिकियों का मानना है कि अब चीन को अफगानी इलाकों के लिए अपने आर्थिक स्रोत भी खोलने चाहिए, और ये अफगानिस्तान के बने रहने के लिए जरूरी भी है। अमेरिकियों की मानें तो जिन तरीकों से ये किया जा सकता है वो हैं
1) चीनी अपना व्यापक प्रभाव पाकिस्तान पर इस्तेमाल करें जिस से कि पाकिस्तानी एक तरफ अमेरिकी सुरक्षा एजेंसियों से सहयोग और दूसरी तरफ तालिबानी आतंकियों की मदद का अपना खेल बंद करें; और
2) चीनी अपना आर्थिक सहयोग अफगानिस्तान की सरकार को बनाये रखने के लिए देना शुरू करें।
अमेरिकियों का मानना है की अफगानिस्तान में एक सबल स्थायी व्यवस्था होने से चीनियों को काफी फायदा होगा – एक तो चीन-पाकिस्तान के बीच एक आर्थिक गलियारा बन सकेगा (इस से अफगानिस्तान के तांबे के खदानों और अन्य स्त्रोतों का इस्तेमाल हो पायेगा साथ ही जिंगजेंग प्रान्त में इस्लामिक आतंकवाद के पनपते जिन्न को भी काबू में किया जा सकेगा) जो कि अफगानिस्तान में शांति-व्यवस्था के बिना नहीं हो सकता । उधर चीन अपने पाकिस्तान के निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता पर मौन है। कुल मिला कर चीन एक ऐसी व्यवस्था करने के फ़िराक में दिखता है जहाँ उनका गन्दा काम पकिस्तान को करना पड़े, ये वही गलती है जो अमेरिकी सोच में 9/11 के हमले के पहले और बाद में पकिस्तान के प्रति रही थी। यानि अमेरिका की तरह ही चीन भी पाकिस्तान पर अफगानिस्तान के हालात सुधारने में सहयोग की बेकार उम्मीद लगाये बैठा है।
यानि अगर क्यू.सी.जी. को देखें तो चार में से तीन सदस्य अपने चौथे सदस्य पकिस्तान से मदद की उम्मीद लगाये बैठे हैं। मतलब परेशानी की जड़ से ही समस्या सुलझाने की उम्मीद की जा रही है! साफ़ तौर पर ये एक असमर्थनीय और असाध्य काम होगा । 9/11 से लेकर अभी तक के पंद्रह सालों में और अभी के तालिबानी मुखिया मुल्ला मंसूर से पाकिस्तानी सम्बन्ध ना होने की बात कोई बहुत भोला आदमी ही मान सकता है। गौरतलब है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के विदेश मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़, तालिबान को प्रश्रय देने की बात कबूल चुके हैं और रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ कह चुके हैं कि वो तालिबान पर अपने प्रभावों का इस्तेमाल टी.ए.पी.आई. पाइपलाइन की परियोजना का काम सुचारू रूप से चलने देने के लिए करेंगे।
चाहे पाकिस्तान, तालिबान पर अपने असर से कितना भी इनकार कर ले मगर हर घटना की पटकथा रावलपिंडी (जी.एच.क्यू. हेडक्वार्टर) और आबपारा (आई.एस.आई. हेडक्वार्टर) के बीच ही लिखी गई होती है। अगर पाकिस्तानी दो-मूंहेपन का अंदाजा लगाना है तो एक नजर 9/11 के बाद हुई घटनाओं पर डालनी चाहिए। उस वक्त तत्कालीन आई.एस.आई. प्रमुख को कांधार जाकर मुल्ला ओमर से बात करने को कहा गया था, ताकि वो ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौंप दें। लेकिन आई.एस.आई. प्रमुख ने जाकर मुल्ला ओमर को उल्टी ही पट्टी पढ़ा दी । वही तरीका आज फिर इस्तेमाल किया जा रहा है। बाहर तो पाकिस्तानी कहते हैं कि वो तालिबान पर दबाव बना रहे हैं, लेकिन अन्दर ही अन्दर वो तालिबान को अपना दबाव बढ़ाने के लिए कहते हैं ताकि उनके नाम पर और ज्यादा वसूली की जा सके।
दुसरे शब्दों में कहा जाये तो तालिबान की आतंकी हरकतें, द्विपक्षीय वार्ताओं में ज्यादा से ज्यादा फायदेमंद सौदा कर पाने का एक बहाना भर है। तालिबानी जितने ज्यादा कट्टर और बातचीत के खिलाफ दिखेंगे, पाकिस्तान को अपमे लिए सहूलियतें वसूलने में उतनी ही ज्यादा सुविधा होगी। दूसरी तरफ ये तालिबान के लिए भी फायदेमंद है। ख़ास तौर पर वो कट्टरपंथी जो किसी भी सुलह के लिए राज़ी नहीं, उन्हें तालिबान समर्थक बनाये रखने में ये तालिबान की भी मदद करता है ।
मान लें की किसी तरह सौभाग्यवश या किस्मत के किसी खेल से पकिस्तान की नियत साफ़ हो जाती है, वो सकारात्मक सहयोग करने लगता है तो भी वहीँ मौजूद, तालिबान नामक रक्तपिपासु पिशाच का क्या ? पिछले सभी प्रयासों की असफलता की एक बहुत बड़ी वजह ये भी है की पकिस्तान और उसका पिट्ठू तालिबान के अविश्वसनीय होने का नतीजा इस इलाके के अन्य पक्षों के फैसलों, चुनावों और कार्यों के नुक्सान के रूप में होता है । इसके अलावा जमीनी स्तर पर पाकिस्तान और तालिबान ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे जिस से उनपर शांति प्रयासों की बहाली में सहयोगी होने का कोई भरोसा हो।
सैधांतिक तौर पर अफगानिस्तान में आम सहमती बनाने के लिए, सभी पक्षों को वार्ता में शामिल करना एक उचित फैसला लगता है। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर इसका ठीक उल्टा हो रहा है। जो भी गैर शासक वर्ग का तिलिबानी बातचीत की प्रक्रिया में शामिल होता है, वो पाकिस्तान समर्थित है। इस तरह बातचीत हमेशा अफ़गानी सरकार के खिलाफ होती है, जहाँ अफगानिस्तान को मुख्य पक्ष होना चाहिए वहां वो बस एक अन्य लाभार्थी बनकर रह जाता है।
विडंबना ही है कि अगर तालिबान को वार्ता की मेज़ तक ले भी आया जाये तो वो एक ऐसी बर्बर हुकूमत को नैतिक समर्थन देने जैसा होगा जो खुद में ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था के समर्थकों के लिए एक हार है। अगर पाकिस्तानी और तालिबानी मिलीभगत से हो रहे आतंकी वारदातों को नजरंदाज भी कर दें तो एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या तालिबान के वार्ता की मेज़ पर आ जाने भर से सभी समस्याएँ सुलझ जाएँगी ? क्या कोई ऐसा सुझाव है जो सबको मंजूर हो, और साथ ही साथ जिसपर तालिबान भी राज़ी हो जाए ? वार्ता में दोनों पक्षों को एक दुसरे को थोड़ी रियायत देनी पड़ती है, ऐसे में तालिबान को देने के लिए कुछ ख़ास तो बचा ही नहीं है! किसी तरह अगर तालिबान वार्ता से समस्या का हल निकालने के लिए राज़ी हो जाए तो वो तालिबान कहाँ बचेगा ? तालिबानी कट्टरपंथी ही तालिबानी जमात में वार्ता की तरफ झुकाव दिखाने वालों के शत्रु हो जायेंगे।
ये याद रखा जाना चाहिए कि तालिबानी खुद को जेहादी कहते हैं, अपनी जान पर वो खेलने निकले हैं। लेकिन इसका मतलब ये हरगिज़ भी नहीं कि वो बेवक़ूफ़ हैं। अब जब कि तालिबानी समर्थन अपने उठान पर है, अमेरिकी हताशा में अब अफ़गानिस्तान से निकल भागने के रास्ते ढूंढ रहे हैं, चीन किसी तरह की आर्थिक मदद शुरू नहीं कर रहा, ना ही वो पाकिस्तान पर किसी तरह का दबाव बना रहा है। ऐसे हालत में तब अफगानी सरकार आर्थिक संकट से जूझ रही है, उस वक्त किसी भी सुलह के लिए भला तालिबान क्यों राज़ी होगा ? जब वो युद्ध जीतने की कगार पर है, ऐसी हालत में वो सुलह तो नहीं ही करना चाहेगा।
जो उन्हें आज दिया जा रहा है, वो पेशकश कुछ साल पहले भी की गई थी। अगर कुछ साल पहले, जब तालिबान की स्थिति मजबूत नहीं थी, उस वक्त भी तालिबान इन शर्तों पर राज़ी नहीं था तो फिर आज जब वो जंग जीत रहे हैं तब वो उन्हीं शर्तों पर क्यों राज़ी हो जायेंगे ? किसी तरह अगर वो कुछ शर्तों पर राजी हो भी जाते हैं तो वो सिर्फ समय लेने और अपनी स्थिति और सुदृढ़ करने का एक बहाना होगा। फिर ये सिर्फ कुछ महीनों या साल की बात होगी जब वो दोबारा पूरे देश को कब्ज़े में लेना चाहेंगे। अगली बार वो ऐसा सिर्फ बाहरी हमलों से नहीं कर रहे होंगे, उस वक्त तक वो अपनी लिए देश के अन्दर भी समर्थन जुटा चुके होंगे। तालिबान पहले से ही जीती हुई जंग को उस दिन लड़ कर नहीं, खेल कर जीत रहा होगा।
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