देश भर में फैले कृषि संकट से राहत देने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जुलाई में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। मंत्रिमंडल ने खरीफ सत्र से पहले 14 फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृद्धि का ऐलान किया, जिसके बाद एमएसपी फसल की लागत के कम से कम 150 प्रतिशत हो गए। खरीफ सत्र की मुख्य फसल धान के लिए एमएसपी में लगभग 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई, जबकि बाजरा के एमएसपी से 96 प्रतिशत से अधिक प्रतिफल मिलेगा। लागत के ऊपर मिलने वाला प्रतिफल अब इनपुट लागत के 50 प्रतिशत से अधिक हो जाएगा, जिसका वायदा भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने महीनों पहले किया था और उसे 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ही पूरा कर दिया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि ऊंचा एमएसपी ही कृषि संकट की रामबाण दवा नहीं है और उससे जुड़ी अन्य समस्याओं को भी सुलझाना होगा। वे बिल्कुल सही हैं। कृषि समस्या एमएसपी के अलावा दूसरी चुनौतियों से मिलकर बनी हैं जैसे सिंचाई में बाधा, उत्पादन बढ़ाने के लिए किफायती तकनीक उपलब्ध नहीं होना और औपचारिक बैंकिंग प्रणाली से किसानों को सहयोग नहीं मिलना, जिसके कारण उन्हें ऊंचा ब्याज वसूलने वाले साहूकारों के पास जाना पड़ता है। आलोचकों ने यह भी कहा है कि पारंपरिक फसलों काएमएसपी बहुत अधिक होने का उलटा असर भी हो सकता है क्योंकि इससे महंगाई में इजाफा हो सकता है (जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादन की लागत बढ़ जाएगी ओर किसानों को नुकसान होगा), किसान नकदी फसलों की ओर जाने से रुक सकते हैं और बाजार में ऐसे उत्पादों का जरूरत से ज्यादा ढेर भी लग सकता है, जिनमें अधिक एमएसपी मिलता होगा। चिंता वाजिब हैं। हालिया घोषणा से सरकारी खजाने में 15,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ने का अनुमान है। लेकिन प्रभावी क्रियान्वयन और सही वित्तीय नियोजन से ये डर दूर किए जा सकते हैं।
एक और आलोचना हो रही है - एमएसपी बढ़ाने की नहीं बल्कि इस बात की आलोचना कि एमएसपी पर्याप्त नहीं बढ़ाया गया है। विभिन्न कृषक संगठनों ने कहा है कि एमएस स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों की तुलना में कम घोषणा की गई है। समिति ने सिफारिश की थी कि एमएसपी में जमीन के किराये के इनपुट मूल्य और पूंजी पर ब्याज (सी-2) का ध्यान रखा जाना चाहिए, लेकिन सरकार ए2+एफएल प्रणाली पर ही डटी रही है, जिसमें बीज, उर्वरक, श्रमिकों एवं पशुओं, भू राजस्व तथा सिंचाई के खर्च जैसी इनपुट लागतों आदि को शामिल किया गया है अर्थात सी-2 प्रणाली में सुझाए गए घटकों को छोड़कर बाकी सब कुछ शामिल किया गया है।
इसके बाद भी इस बढ़ोतरी की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। ए2+एफएल लागत पर 50 प्रतिशत प्रतिफल इस सरकार का ऐसा पहला कदम है। इस प्रोत्साहन का किसानों की आय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ना निश्चित है। एमएसपी का दो अहम कारकों पर सीधा प्रभाव पड़ता हैः सरकारी भंडार के बफर स्टॉक पर और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर। यथार्थवादी एमएसपी किसानों को अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करेगा, जिससे सरकार को एमएसपी से जुड़ी फसलों को पर्याप्त मात्रा में खरीदने में मदद मिलेगी ताकि उपरोक्त दोनों कारकों का ध्यान रखा जा सके। ऐसे मौके आते हैं, जब असाधारण परिस्थितियों से निपटने के लिए सरकार मएसपी से भी ऊंची कीमत (लेकिन खुले बाजार के मूल्य से कम कीमत) पर उत्पाद खरीदती है और जब एमएसपी अधिक होता है तो वह खरीद मूल्य भी बढ़ जाता है, जिससे किसानों की मदद होती है। इतना ही नहीं, बढ़े एमएसपी से 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के केंद्र के संकल्प में भी कुछ मदद मिल सकती है, हालांकि उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अच्छे एमएसपी से भी अधिक कदम उठाने पड़ेंगे।
उधर एमएसपी संबंधी कदम की सफलता प्रणाली के प्रभावी प्रशासन पर निर्भर होती है। जनवरी, 2016 में नीति आयोग ने ‘किसानों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के प्रभाव का मूल्यांकन अध्ययन’ शीर्षक से रिपोर्ट पेश की थी। इस व्यापक अध्ययन में उद्देश्य एवं पद्धति, क्रियान्वयन की प्रक्रिया, नीति की प्रभावशीलता, एमएसपी के प्रभाव तथा योजना की निगरानी समेत विभिन्न प्रकार के विषयों को शामिल किया गया। कुछ निष्कर्ष एवं सुझाव सरकार के हालिया हस्तक्षेप की सफलता के लिए महत्वपूर्ण हैं। रिपोर्ट में उस समय उपलब्ध (वर्ष 2010-11 के) नवीनतम आंकड़ों का प्रयोग किया गया है, लेकिन कम से कम सांख्यिकी सामग्री के मामले में वस्तुस्थिति आज भी बहुत अलग नहीं है।
रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि 81 प्रतिशत किसान विभिन्न फसलों के बारे में तय किए गए एमएसपी के बारे में जानते हैं, लेकिन उनमें से केवल 10 प्रतिशत को ही बुआई सत्र से पहले इसका पता चल पाया था। दूसरी ओर 62 प्रतिशत को बुआई सत्र के बाद एमएसपी का पता चला। इसलिए सरकार को इस बात पर ध्यान देना होगा कि केवल सात प्रतिशत किसानों राज्य सरकार के अधिकारियों के जरिये और केवल 11 प्रतिशत किसानों को भारतीय खाद्य निगम के जरिये एमएसपी का पता चल पाया था। ज्यादातर जानकारी गांव के “जानकार व्यक्तियों” जैसे ग्राम प्रधान, सरपंच, स्कूल शिक्षक और ग्राम सेवक के जरिये ही मिली। स्पष्ट है कि एमएसपी के विचार को बढ़ावा देने के लिए अभी आधिकारिक प्रशासन को बहुत काम करने की जरूरत है।
उत्पादों की बिक्री के माध्यम में भी सरकारी तंत्र की कमी स्पष्ट हो जाती है। रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार 67 प्रतिशत किसानों ने अपने उत्पाद निजी इंतजामों के जरिये बेचे, जबकि 21 प्रतिशत ने बिचौलियों की मदद ली। पहला विकल्प यानी निजी इंतजाम किसानों को कुंठा में डाल सकता है तो दूसरे विकल्प से उन्हें आय का नुकसान होता है क्योंकि बिचौलिया उसका कुछ प्रतिशत ले लेता है। सरकारी एजेंसियों के जरिये बिक्री केवल 4 प्रतिशत रही।
एमएसपी का भुगतान प्राप्त करने में लगने वाला समय भी चिंता का विषय है। रिपोर्ट के अनुसार 51 प्रतिशत किसानों को बिक्री के एक हफ्ते बाद से लेकर एक महीने के भीतर तक रकम मिल पाई; केवल 20 प्रतिशत किसानों को मौके पर ही अथवा बिक्री के दिन ही भुगतान मिला था। सरकारी पैमानों के हिसाब से तो महीने भर के भीतर ही बिक्री का भुगतान जारी करन देना उपलब्धि से कम नहीं है। लेकिन दोनों वक्त चूल्हा जलाने के लिए संघर्ष कर रहे किसानों के लिए यह भुगतान बहुत देर से किया गया और बहुत कम हो सकता है।
लेकिन रिपोर्ट में एक उत्साहजनक तथ्य है। अध्ययन में पता चला कि एमएसपी प्रणाली का पूरा फायदा उठाने के लिए 78 प्रतिशत किसानों ने “खेती की बेहतर पद्धतियां” अपना ली हैं। उन्होंने बीजों की अधिक उपज देने वाली किस्मों, जैविक खाद, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक तथा कटाई के बेहतर तरीकों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। अगर यह सिलसिला चलता रहा तो एमएसपी में इस बार की गई बढ़ोतरी से किसान और भी नई तकनीक अपनाने के लिए प्रोत्साहित होंगे क्योंकि ये तकनीकें आसानी से मिल ही नहीं रही हैं बल्कि किफायती भी हैं।
अंत में एमएसपी ही नहीं बल्कि अन्य सुविधाओं में भी मुख्यतः छोटे और सीमांत किसानों पर ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि उन्हें मदद की सबसे अधिक जरूरत होती है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के कुल किसान परिवारों में 65 प्रतिशत छोटे किसान हैं और उनकी वार्षिक आय का केवल 60 प्रतिशत हिस्सा खेती से आता है, जबकि किसान समुदाय में मात्र 16 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले बड़े किसानों की 74 प्रतिशत वार्षिक आय खेती से होती है। यह बड़ा अंतर स्वयं ही बता देता है कि कृषि क्षेत्र में संख्या में अधिक लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर तबके पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक टीकाकार एवं लोक मामलों के विशेषज्ञ हैं।)
(आलेख में लेखक के निजी विचार हैं। लेखक प्रमाणित करता है कि लेख/पत्र की सामग्री वास्तविक, अप्रकाशित है और इसे प्रकाशन/वेब प्रकाशन के लिए कहीं नहीं दिया गया है और इसमें दिए गए तथ्यों तथा आंकड़ों के आवश्यकतानुसार संदर्भ दिए गए हैं, जो सही प्रतीत होते हैं)
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